विजय सिंह ठकुराय-
कल से दिलीप सी मंडल जी और उनके शिष्यों ने यहां एक खामखाह की बहस छेड़ी हुई है कि दुर्घटना की स्थिति में ट्रेन के सबसे आगे और सबसे पीछे मौजूद लोगों को चोटें आती हैं इसलिए पैसे वालों और सवर्णों को बचाने के लिये एसी डिब्बों को बीच में लगाया जाता है। अब वैज्ञानिक चिंतक होने के नाते मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि दिलीप जी को दुर्घटना के मैट्रिक्स समझाऊं।





जब कोई वाहन 130 किमी/घण्टा की रफ्तार से दौड़ रहा होता है, तो उसमें बैठे सभी इंसान, चाहें आगे बैठे हों या पीछे, उन सभी के शरीर भी इसी स्पीड से यात्रा कर रहे होते है। जब वाहन किसी अन्य चीज से टकराता है, तो वाहन की बॉडी उस इम्पैक्ट की ऊर्जा सोख कर क्षतिग्रस्त हो जाती है, पर इस इम्पैक्ट के कारण किसी को सीधे तौर पर चोट नहीं लगती।
होता यह है कि गाड़ी तो इम्पैक्ट के साथ टूट-फूट झेल कर रुक गयी, पर यात्रा कर रहे लोगों के शरीर तब भी 130 किमी/घण्टा की स्पीड से गतिमान होते हैं। अब शरीर में मौजूद यह एक्सट्रा काइनेटिक एनर्जी बिना रिलीज किये इंसान का शरीर जीरो मोशन में नहीं आ सकता, इसलिए गाड़ी के रुकते ही लोगों के गतिमान शरीर तेजी से आगे की ओर गिरते हैं, किसी अन्य चीज से टकराते हैं, टक्कर से एक्स्ट्रा काइनेटिक एनर्जी के आउटबर्स्ट से शरीर के सॉफ्ट टिश्यूज क्षतिग्रस्त होते हैं, ऑर्गन फेलियर होता है, ब्लड वेसल्स फट जाते हैं, और इंसान दुनिया से कूच कर जाता है।
ऐसा सृष्टि का कोई नियम नहीं है जिसके अनुसार वाहन में आगे बैठे इंसान को चोट ज्यादा लगेगी, पीछे वाले को कम, पर चूंकि जनरल डिब्बों में मौजूद भीड़ दूसरे डिब्बों के मुकाबले काफी ज्यादा होती है इसलिए उन डिब्बों में चोटिल व्यक्तियों का औसत अन्य डिब्बों के मुकाबले ज्यादा दिखाई देता है, पर यह आंकड़ों के भ्रम के अलावा कुछ नहीं। ट्रेन में बैठा हर आदमी समान रिस्क के लेवल पर होता है, चाहें सबसे आगे बैठा हो, या सबसे पीछे, या बीच में, या छत पर। इसे समझने के लिए बस न्यूटन का प्रथम नियम पढ़ने की जरूरत है।

अब मैं यह बताता हूँ कि मंडल जी ने इस डिब्बा थ्योरी की वैज्ञानिक स्टडी कहाँ से की है। हुआ कुछ यूं कि जब कोरोमण्डल एक्सप्रेस मालगाड़ी से टकराई, तब बाजू से हावड़ा एक्सप्रेस निकल रही थी। टक्कर के बाद कोरोमण्डल के कुछ डिब्बों ने बाजू की लाइन को ऑलमोस्ट क्रॉस कर चुकी हावड़ा एक्सप्रेस के सबसे पीछे के दो डिब्बों से टकरा कर उन्हें डिरेल कर दिया। दोबारा धातव्य रहे कि तेजी से चल रहे वाहन के अचानक रुक जाने के कारण शरीर में मौजूद काइनेटिक एनर्जी होने के कारण ही व्यक्ति चोटिल होता है। पर, Sideways पीछे के डिब्बे में हुई इस टक्कर में हावड़ा एक्सप्रेस की काइनेटिक एनर्जी अवरुद्ध नहीं हुई, और किसी को खास चोट नहीं आयी, पर पीछे मौजूद दो डिब्बे डिरेल होने के कारण उसमें मौजूद लोग गुड़मुड़ होकर एक-दूसरे के ऊपर गिरे होंगे, इसलिए उन दो डिब्बे के लोगों को चोटे अवश्य आईं।

अब हुआ यह कि कुछ सो कॉल्ड प्रतिष्ठित न्यूज़ पोर्टल ने यह खबर चला दी कि “हावड़ा एक्सप्रेस में रिज़र्व कोच के किसी व्यक्ति को चोट नहीं लगी”, जो कि दुर्घटना की प्रकृति को देखते हुए वैसे भी नहीं लगनी थी। पर, मंडल जी ने उन्हीं सेलेक्टिव और भ्रामक खबरों को उठा कर अपनी डिब्बा थ्योरी प्रतिपादित कर दी।
दुनिया की कोई संस्था इस निराशावादी सोच के साथ ट्रेन नहीं चलाती कि दुर्घटना हो गयी तो आगे वाला बचेगा, या पीछे वाला। दुर्घटना से बचने के अपने मेकेनिज़्म होते हैं, जिन्हें इनस्टॉल करते हुए गाड़ी के प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा का ध्यान रखा जाता है। अगर गाड़ी में आगे-पीछे बैठने की जगह से ही जीवन की सुरक्षा तय होने लगी तो सबसे पहले रोज गाड़ी चलाने वाला ड्राइवर ही धरने पर बैठ जावे कि हमारा इंजन गाड़ी के बीच मे लगाओ। क्या संभव है? कैसी हास्यापद बात होगी।
भीड़ वाले डिब्बों को क्राउड मैनेजमेंट के तहत किनारे रखा जाता है। एसी और स्लीपर डिब्बों के बीच पेंट्री, टीटी, हेल्पर स्टाफ का आवागमन बना रहे, इसलिए भी जनरल डिब्बे बीच मे नहीं लगाए जाते। जो एसी का टिकट खरीदता है, उसे गाड़ी में चढ़ते और उतरते वक़्त ज्यादा चलना नहीं पड़ता। और भी कई सारी बातें हैं। कौन सा डिब्बा कहाँ लगेगा, इसके कारण सिर्फ क्राउड मैनेजमेंट, ईवेकुएशन मैनेजमेंट एंड फैसिलिटी मैनेजमेंट में छुपे होते हैं, पढिये तो सही। यह भी एक ध्रुव सत्य है कि दुनिया के हर हिस्से में, हर क्षेत्र में, ज्यादा मूल्य चुकाने वाले को अतिरिक्त सुविधाएं मिलती ही मिलती हैं। यह आपकी समाजवादी बुद्धि को अच्छा न लगे तो बेशक इसकी आलोचना करिए। पर आलोचना की आड़ में संस्थाओं को गरीब-गुरबा का जीवनहंता मत घोषित करिए। तब यह बुद्धिजीविता से कहीं ज्यादा अराजकता की निशानी हो जाती है।
एक चीज और, मंडल साहब ने मुझसे कहा कि मैं ट्रेन से नहीं चलता तो क्या मैं ट्रेन से जुड़ा ज्ञान नहीं दे सकता? बिल्कुल दे सकते हैं, व्यवस्था पर ज्ञान देने के लिए व्यवस्था का भाग होना कतई जरूरी नहीं है।
परंतु, जब आप व्यवस्था को अमानवीय, क्रूर और दमनकारी बताते हैं तो आवश्यक हो जाता है कि आप उस व्यवस्था का अंग “नहीं” हों।
इसलिए मैं मंडल साहब से अनुरोध करता हूँ कि भविष्य में जब भी ट्रेन से चलें, तो जनरल डिब्बे से ही चलें, एसी डिब्बे का परहेज कर मिसाल कायम करें।
One comment on “ट्रेनों में जनरल डिब्बे सबसे आगे या सबसे पीछे ही क्यों लगाए जाते हैं?”
जनरल वालों को तो ढंग से पानी और खाना तक नहीं मिल पाता। आपकी नज़र में सब सुविधा पैसे वालों को ही मिलनी चाहिए। कम से कम जरूरी सुविधा तो हर इंसान को चाहिए। जनरल वालों को पूरी यात्रा में भाग दौड़ रहती है। वो डिब्बे अगर बीच में हो तो आसानी रहे। या फिर इस देश और हर सुविधा को अमीरों के लिए आरक्षित कर दीजिए।