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क्या ट्रोल भाषा ही टीवी, सोशल और डिजिटल मीडिया की भाषा बन गई है?

प्रशांत टंडन-

ट्रोल भाषा ही राष्ट्र भाषा बन गई है। बीजेपी में मोदी के बाद एक नई परिपाटी आ गई जिसमे नेता अवतार है और गाली गलौज तक उतर जाने वाली भक्तों की टोली. जो भी विचार, मोदी जी की नीतियों या बयानों की आलोचना करे उस पर टूट पड़ो. यानि आलोचना का उत्तर सामान्य असहमति नहीं है ट्रोल भाषा में ये सिर्फ हेट स्पीच के द्वारा ही की जा सकती है. इसमें शिष्टाचार या सार्वजनिक प्लेटफोर्म पर भाषा की मर्यादा की कोई जगह नहीं.

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दुख की बात है सेक्यूलर खेमे में भी यही संस्कृति हावी हो रही है. मतलब सामान्य रहना ही नहीं है. किसी मामूली जिज्ञासा या दृष्टिकोण का जवाब चिढ़ कर ही दिया जा सकता है. सोशल मीडिया पर रोज़ देखता हूं और इस तरह की कम्यूनिकेशन से चिंतित भी हूं. शब्दों के चयन का उद्देश्य अगर किसी को नीचा दिखाना है तो ये दोनों तरफ मानसिक संतुलन को बिगाड़ेगा आज नहीं तो कल.

हमेशा रविशंकर प्रसाद की प्रेस काँफ्रेंस के तेवर लिये रहना बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है. कुछ समय पहले Anil Chamadia जी ने बहुत बढ़िया बात कही थी कि मोदी जिस संस्कृति को लाये उसका प्रतिरोध भी उसी टूलकिट के इस्तेमाल करके बनाया जा रहा है. मोदी विरोध के भी भक्त-अवतार मॉडल निकल आये हैं. लगभग सभी पब्लिक फ़िगर्ग के इर्द गिर्द एक गाली गलौज वाली टोली बन गई है. ‘सेक्यूलर’ ऐंकर्स और सोशल मीडिया इंफ्लूसर्स के पीछे भी तलवारे लिए लोग चल रहे हैं.

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उनके अवतार को कुछ कहा तो उसी भाषा शैली में आपका कमेंट बॉक्स भर जायेगा जैसा मोदी के भक्तों की तरफ़ से होता है. यानि किसी व्यक्ति या विचार के दो पक्ष होने का स्कोप ही नहीं है. ऐसे सामान्य संवाद कैसे संभव हो सकता है?

ट्रोल भाषा अब सोशल मीडिया की चाहर दीवारी लांघ कर घरों और दफ़तरों तक घुस गई है. ट्रोलभाषा निजी संबंध तो प्रभावित कर ही रही है एक ईको चैंबर भी बना रही है.

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Urmilesh- यार, ये तो बहुत बड़ी और ज़रूरी बात कह दी! काफ़ी समय से मैं भी यही महसूस कर रहा हूँ. बहुत सारे व्यूअर हमारे लेख या वीडियो पसंद करते हैं. पर कुछ सलाह भी दे बैठते हैं कि आप उनकी तरह ठोक कर या कड़क कर लिखिये या बोलिये! मैं कोई जवाब नहीं देता. अब उनको कैसे बताऊँ कि मैं एक प्रोफेशनल पत्रकार हूँ, हरकारे या जयकारे लगाने वाला ‘चीखू’ नहीं हो सकता!

Prashant Tandon- संवाद ही संभव नहीं है काफ़ी लोगों से. आप हम तो अपना प्रोगेशनल जीवन जी चुके थे जब सोशल मीडिया आया. जो इसके बीच में हैं उनके बारे में सोचता हूँ जिन्हे जीवन काटना है इसमें. एक ऐसा समाज जिसमे सब चिढ़े हुए घूम रहे हैं, भाषा का शिष्टाचार नहीं है.

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Urmilesh- बहुत सारे पाठक/ दर्शक या श्रोता हमारे लेख या वीडियो पसंद करते हैं. कुछ नापसंद भी करते होंगे. पर कुछ उत्साही पाठक या श्रोता सलाह भी दे बैठते हैं कि आप ‘उनकी तरह ठोक कर, बजा कर या कड़क कर’ लिखिये या बोलिये! ऐसे पाठकों-दर्शकों का इशारा किसी अन्य अपेक्षाकृत युवा या अधेड़ यूट्यूबर/ पत्रकार की तरफ़ होता है. ऐसे सुझावों का मैं कोई जवाब नहीं देता. अब उन शुभचिंतकों को कैसे बताऊँ कि मैं बीते 40 साल से एक प्रोफेशनल पत्रकार हूँ, किसी का ‘ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद’ करने वाला कभी नहीं रहा. किसी का हरकारे या जयकारे लगाने वाला ‘चीखू’ नहीं हो सकता! एक पत्रकार के रूप में मैं सूचनाएँ और तथ्य दे सकता हूँ. इनकी रौशनी में किसी प्रक्रिया या घटनाक्रम की व्याख्या कर सकता हूँ. पर मैं जिस व्यक्ति या समूह की आलोचना करता हूँ, उसके विरुद्ध भद्दे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता. किसी ‘ख़ास रंग’ के ‘ट्रोल’ के विरुध्द किसी अन्य रंग का ‘ट्रोल’ मैं नहीं बन सकता! सोशल मीडिया पर भी मेरी उपस्थिति भी एक आम नागरिक या एक पत्रकार के तौर पर है. मैं न किसी दल या संगठन का सदस्य/समर्थक हूँ और न ही किसी नेता का प्रचारक. जो सही लगता है, वह अपने ढंग से लिखता हूँ.

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