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सुख-दुख

अखबारों में विचार अब घाटे का सौदा!

-जयराम शुक्ल

पिछले एक माह से पत्र-पत्रिकाओं में एक दिलचस्प होड़ देखने को मिल रही है। होड़ यह दावा स्थापित करने के लिए है कि बाजार में सबसे प्रभावी उपस्थिति हमारी है। कोई पीछे नहीं रहना चाहता एक ही सर्वे और रेटिंग एजेंसी के निष्कर्ष पर सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। यह विग्यापन पाठकों लिए नहीं है,बाजार के लिए है। उत्पादकों और रिटेलरों को रिझाने के लिए है कि वो हमी हैं जो आपके उत्पाद की महिमा सबसे ज्यादा ग्राहकों तक पहुँचा सकते हैं। संदेश बड़ा साफ है अखबार अब विचारों के संवाहक नहीं बाजार के प्रवक्ता हैं।

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दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने का दावा करने वाले ऐसे अखबार में मैंने कुछेक साल काम किए हैं जिसके मालिक को हमेशा यह बात सालती थी कि ये जो संपादकीय पेज है न वो कुछ नहीं अपितु वेस्टेज आफ स्पेश है। दैवयोग से मैं उसी पन्ने का काम देखता था जो प्रबंधन की नजर में आज से दस साल पहले ही अखबार का सबसे गैरजरूरी और फालतू समझा जाने लगा था। फिर धीरे-धीरे संपादकीय दो से एक हुई, उसके शब्द घटते-घटते दो सौ से ढाई सौ तक आ गए। गंभीर की जगह रोचक और लुभावन सामग्री ने ले लिया। अब तो हफ्ते में कई दिन अखबार में यह पेज ही ढूँढे नहीं मिलता। यह मंथन भी तभी से शुरू हुआ है कि संपादकीय पन्ने का सफेद हाथी पालने की बजाय इसका भी “स्पेश सेल” किया जाए। मेरा अनुमान है कि जल्दी ही इस पेज का स्पेश भी विग्यापन के लिए बुक होना शुरू हो जाएगा।

स्पेश सेल का बिजनेस, जी हाँ टाइम्स आफ इंडिया के मालिक समीर जैन ने किसी विदेशी अखबार को दिए गए इंटरव्यू में बड़ी ईमानदारी से इस बात को स्वीकार किया कि वे अखबार में स्पेश सेल का बिजनेस करते हैं। अब विचार तो अनुत्पादक कोटि का आयटम है। लिखने वाले पर खर्चा अलग से। एक पेज में कितने कालम सेंटीमीटर हैं और उसका प्रीमियम रेट क्या है यदि उससे एक धेला भी नहीं निकलता तो प्रबंधन की दृष्टि से वह घाटे का सौदा है। अँग्रेज़ी के लेखकों तो कुछ पारिश्रमिक( अमेरिकी-यूरोपीय अखबारों से पचास गुना कम) मिल भी जाता है लेकिन नब्बे फीसद हिंदी लेखक अभी भी फोकट फंडी हैं। मुझे इस बात के भी अनुभव हैं कि कई नामधारी लेखक इस बात के लिए अनुनय करते हैं कि उन्हें बस छाप दीजिए पारिश्रमिक कोई इश्यू नहीं। कई मामलों में लेखक ही डेस्क इंचार्ज को उपकृत करते हैं।



यह एक अलग खेल है। आजकल अखबारों में छपने वाले लेखों की भाषा, उनकी पक्षधरता, उससे निकलने वाली मूलध्वनि से आप आसानी से समझ सकते हैं कि लेखक किसके लिए काम कर रहा है। अखबारों से पारिश्रमिक के नाम पर भले ही धेलाभर न मिले पर जिनके लिए लिखा जा रहा है वे ठीकठाक भरपाई कर देते हैं। यहाँ पर एक फंडा और काम करता है। वह यह कि जिस तरह अखबार ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों तक पहुँचने का दावा करते हैं उसी तरह ये लेखक ज्यादा से ज्यादा अखबारों में छपने का दावाकर कारपोरेट हाउसों और राजनीतिक प्रतिष्ठानों से कान्टैक्ट हाँसिल करते हैं। अब यह खुला खेल है अखबार मालिक,लेखक दोनों समझते हैं एक तरह से यह म्यूट अंडरस्टैंडिंग है।

एक नई प्रवृत्ति और पनपी है। सेलीब्रटीज से लिखवाना। कई पत्र-पत्रिकाओं में सेलीब्रटीज और बड़े नेताओं के नाम से छपे लेख से आप एक पाठक की हैसियत से चकित या प्रभावित होते होंगे कि ये कितने बड़े बौद्धिक हैं। पंचानबे फीसद मामलों में होता यह है कि बेचारा उप संपादक लेख की काँपी तैयार करता है, वही सलेब्रटीज या नेता के सिकेट्रीज के पास जँचने को जाती है। फिर उसमें उन महापुरूषों का नाम टाँककर फोटो के साथ लेख बनकर छप जाती है। पाठक खुश हो लेते हैं कि वाह क्या उम्दा विचार हैं..! कई मामलों में बड़े नेताओं और सेलीब्रटीज के नामों से छपने वाले लेखों के एवज में विग्यापन दर के हिसाब से उल्टे अखबार को ही भुगतान किए जाते हैं। यह काम लायजनिंग देखने वाली बड़ी कंपनियां करती हैं और वही कई गिरामी लेखकों से घोस्ट या शैडो रायटिंग के लिए अनुबंध करती हैं।

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एक महान पत्रिका के पिछले कई महीनों के अंकों को तजबीज रहा हूँ। इसमें अब कुछ समझ में ही नहीं आता कि क्या एडवर्टोरियल है और क्या एडिटोरियल। जो एक महीन सी रेखा इन दोनों को विभक्त करती थी संपादन के प्रबंधकीय कौशल ने उसे भी इरेज कर दिया। कोई भाषाई फर्क नहीं, हो भी कैसे क्यों कि विग्यापन के काँपी राइटरों को संपादकों ने स्थानापन्न कर दिया है। इसकी वजह भी पार्टी का आग्रह ही होता है जो यह चाहती है कि इसे ऐसा प्रस्तुत किया जाए ताकि पाठकों..माफ करिए ग्राहकों को यह संदेह न हो कि यह विग्यापन या अपना प्रचार है।

ग्राहकों-पाठकों को चकराए रखने की कला ही अब सफलता का पैमाना है। विचार और बाजार में अच्छा खासा घालमेल हो गया है। अखबारों से विचार खारिज नहीं हुए हैं अपितु उनका बाजार के साथ फ्यूजन हो गया है। हाँ..फ्यूजन! एक मजेदार उदाहरण समझिए। साल में पंद्रह दिन का पितरपक्ष आता है। हिंदू कर्मकाण्ड के हिसाब से इन दिनों कोई शुभ काम करना निषेध माना जाता है। नई वस्तुओं की खरीददारी भी नहीं होती। यानी के ये पंद्रह दिन बाजार की मंदी के होते हैं।

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बाजार की मंदी का मतलब अखबारों के विग्यापन की मंदी। अब इस बार जब पितरपक्ष आए तो गौर से देखिएगा। कई नामधारी ज्योतिषियों से यह लिखवाया जाता है कि पितरपक्ष की खरीदारी कितनी शुभ होती है, इन दिनों नई वस्तुओं के खरीदने से सात पीढी तक के पितर तृप्त हो जाते हैं। उन्हें अपनी संतानों पर गर्व होता है और वे स्वर्ग से आशीर्वाद की वर्षा करते हैं। इसी बीच अखबारों के वैचारिक पन्ने में कई घोर प्रगतिवादी लेखक भी प्रकट हो जाएंगे जो यह साबित करेंगे कि पितर-सितर कुछ नहीं होता, ये दकियानूसी बातें हैं, देशवासियों को अंधविश्वास के खोल से बाहर आना चाहिए। बाजार अपने हिसाब से विचार परोसता है, उसे ट्विस्ट भी करता है और उसकी तिजारत भी।

विचार को बाजार में बदल दिये जाने की बातें जाननी है तो टाइम्स आफ इंडिया समूह की यात्राकथा जानिए। यह समूह आज भी देशभर के मीडियाबाजार के लिए आयकानिक है। सन् नब्बे के पहले तक यह प्रकाशन समूह अपनी साहित्यिक और वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता था। इस समूह की पत्रिकाओं में चार लाइन भी छपना एक सर्टीफिकेट की तरह होता था।



धर्मयुग,दिनमान,सारिका,इलस्ट्रेटेड वीकली, खेल,फिल्म और कई ऐसी पत्रिकाएं निकलती थीं जो उस दौर के प्रतिमान गढ़ती थीं। अग्येय,कमलेश्वर,रघुवीर सहाय,सर्वेश्वरदयाल,प्रीतीश नंदी,मुल्कराज आनंद,राजेन्द्र माथुर,विद्यानिवास मिश्र जैसे कितने दिग्गज साहित्यकार और संपादक इस समूह के साथ जुड़े थे। इन्होंने पत्रकारों और साहित्यकारों की कई कई पीढियां गढ़ी। नब्बे के उदार वैश्विकरण के शुरू होते ही विचारकों के साथ विचार भी अप्रसांगिक होते गए। और स्थिति यहाँ तक आ पहुँची जब एक मालिक डंके की चोट पर यह उद्घोष करता है कि हम अखबार विचार के लिए नहीं बाजार के लिए निकालते हैं।

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(भुवनभूषण देवलिया स्मृति व्याख्यान व सम्मान समारोह के संदर्भ में)

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