हिमांशु जोशी-
नासमझ से कुछ समझने लायक बनने का जो भी सफर तय किया है, उसमें देश की सदनों के लिए मेरे मन में इज्जत थी। साल 2008 में जब लोकसभा में नोट लहराए गए थे तब थोड़ा सा देश की राजनीति को लेकर समझ बन रही थी फिर भी उस संसद की गरिमा मन में थी ही। कल लोकसभा में जो भी हुआ उसके बाद नई संसद और लोकतंत्र को लेकर मन में सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या हम अब भी एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं!
सिर्फ ‘सरनेम’ को कुछ कह देने भर से ही विपक्ष के सांसद की सदस्यता रद्द कर दी जाती है और एक पूरे धर्म पर ही अशोभनीय टिप्पणी देने वाले को सिर्फ कड़ी फटकार दी जाती है। 2010 में आई फ़िल्म ‘my name is khan’ का दूसरा भाग अब अपने देश पर भी बन सकता है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ से आज सुबह उम्मीद थी कि वह एक स्तम्भ की तरह ही खड़े रहेगा पर इन अखबारों के पहले पन्ने को देखकर ऐसा कुछ लगा नही। तीन प्रमुख हिंदी अखबारों में से एक ने ही पहले पन्ने में इस खबर को जगह दी है पर वो भी बचते हुए। तीनों अखबार की मुख्य खबर ‘लैपडॉग मीडिया’ वाली ही है। लेकिन दैनिक भास्कर ने इस खबर को प्रमुखता से लगाया है। इसके लिए दैनिक भास्कर की तारीफ किए जाने की जरूरत है।

दो छोटे अखबार भी साथ में हैं जिन्होंने अपना फर्ज निभाया है। उत्तर उजाला और द पायनियर हिंदी को बधाई। इन दोनों अखबारों ने लाज रख ली। असली खबर को लीड बनाया। सच, झूठ, दिखावे की समझ जनता को होनी चाहिए और ऐसी पत्रकारिता के साथ खड़े होना चाहिए।




