: लडाई के और भी तरीके होते हैं… असहमति का सम्मान भी करना सीखो : मैं यहाँ अपनी बात बनारस में साहित्य अकेडमी के समारोह में काव्यपाठ को उचित ठहराने के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि जिस युग में हम जी रहे हैं उसकी विडम्बनाओं को रेखांकित करने और चुनौतियों को रखने के लिए कह रहा हूँ. पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि साहित्य अकेडमी से जो पत्र आया उसमे मोदी का कहीं नाम नहीं था, जो कार्ड छापा उसमे भी नाम नहीं था, यहाँ तक कि मालवीय जी और वाजपेयी की जयंती का जिक्र तक नहीं था. टेलीफ़ोन पर भी साहित्य अकेडमी के उपसचिव ने भी ऐसी कोई जानकारी नहीं दी.
दिल्ली एअरपोर्ट पर विमान में चढ़ने के दौरान संगीत नाटक अकेडमी की प्रमुख ने बताया कि वो भी वनारस जा रही हैं और उन्होंने अपना कार्ड दिखाया जिसे संस्कृति मंत्रालय ने छापा था, तो पता चला कि मोदी जी आने वाले हैं और तीनो अकादमियां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, इन्दिरा गांधी कला केंद्र और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र आदि का यह संयुक्त समारोह है जिसका मुख्या समारोह मानव संसाधन मंत्रालय ने आयोजित किया है, जिसमें स्मृति इरानी भी आ रही हैं, रेल मंत्री और संस्कृति मंत्री भी आ रहे हैं, इस तरह यह केंद्र सरकार का समारोह है.
विमान में ही मनोज दास से हमने चर्चा कि साहित्य अकेडमी को ये बताना चाहिए था, फिर बनारस एअरपोर्ट पर साहित्य अकेडमी के अजय शर्मा मिले उनसे पूछा तो वे बोले कि तीन दिन पहले नया कार्ड संस्कृति मंत्रालय का छपा जिसमे मोदी जी का नाम है, हमें भी ये जानकारी नहीं दी गयी थी, साहित्य अकेडमी का कार्यक्रम पहले से तय था. बनारस पहुंचा तो अख़बारों में मोदी का विज्ञापन था जिसमें साहित्य अकेडमी के समारोह का जिक्र था. हमने फिर उप सचिव से पूछा. उन्होंने बताया कि हमारा समारोह अलग भवन में होगा, मोदी का समारोह स्वंत्रता भवन में एक बजे होगा. उससे पहले 12 बजे हमारा समारोह अलग भवन में होगा. साहित्य अकेडमी के लोग मोदी के समारोह में नहीं गए. मोदी के समारोह में जाने के लिए कार्ड भी अलग था. वो लेखकों को भी नहीं दिया गया था. २५ तारीख को मैं किसी समारोह में गया ही नहीं.
मुझे बताया गया कि २५ को काशी नाथ सिंह साहित्य अकेडमी के समारोह में गए थे. अगले दिन ज्ञानेन्द्र पति मिले. हमने उनसे पूछा तो उन्होंने भी कहा कि साहित्य अकेडमी स्वयत्त संस्था है, समारोह अलग है. अब मोदी भी दिल्ली लौट चुके हैं. हमे काव्यपाठ कर अपनी बात कहनी चाहिए. यही राय हरिश्चंद्र पाण्डेय की थी. फिर हम तीनों ने यही फैसला किया. मैं चाहकर भी दिल्ली लौट नहीं सकता था क्योंकि मुझे रेल आरक्षण नहीं मिलता अगले दिन और इतने पैसे नहीं कि विमान से लौटूं. मुझे हर हालत में २८ को दिल्ली आना था, इसलिए काव्यपाठ का फैसला किया और मोदी के खिलाफ कविताएँ सुनाने का मन बनाया. अगर साहित्य अकेडमी के समारोह में नहीं जाता तो मुझे विमान किराये और होटल खर्च के १५ हज़ार लौटाने भी पड़ते और पैसे मेरे पास नहीं थे कि लौट सकूँ. इसलिए लड़ाई की रणनीति बदलनी पड़ी. मैंने हरिश्चंद्र पाण्डेय और ज्ञानेंद्र पति से कहा भी कि फेसबुक के युवा क्रांतिकारी लेखक विवाद करेंगे और वही हुआ जिसकी आशंका थी.
अब चूँकि बनारस के कार्यक्रम में भाग ले चुका हूँ और कुछ दाग मुझ पर जाने अनजाने लग ही गए तो कुछ बातें कहना चाहूँगा. पहले तो ये कहना चाहूँगा कि दाग लगने के बाद मैं अब किसी पर कोई सवाल नहीं उठाऊंगा क्योंकि मैं नैतिक रूप से अपना अधिकार खो चुका हूँ, पहले ये सवाल जरूर उठता रहा लेखों में. दूसरी बात ये कि आप लोग भी सोचें कि विरोध का अतिवाद कहाँ तक उचित है? मोदी की नीतियों का विरोधी मैं हूँ, और विरोध भी करता रहा हूँ, और भविष्य में भी जारी रहेगा. पर मैं इस देश के पतन के लिए कांग्रेस को भी दोषी मानता हूँ लेकिन मोदी देश का प्रधानमंत्री भी है. यह एक कड़वी सच्चाई है. ऐसे में, क्या अब हम जनादेश को न मानें? अगर वो जिस सड़क का उद्घाटन करें तो हम उस पर न चलें? जिस अस्पताल की आधार शिला रखें उसमे इलाज न कराएँ? जिस अख़बार में विज्ञापन हो उसे न पढ़ें? जिस हॉस्टल का उद्घाटन करें उसमे न रहें? जिस स्कूल कॉलेज में भाषण दें उसमे न पढ़ें? ये विरोध का कौन सा तरीका है… क्या विरोध का तरीका सिर्फ बहिष्कार ही है? क्या विरोध जताने के और तरीके नहीं हैं?
क्या विरोध करते हुए उसका प्रदर्शन किया जाये… ढिंढोरा पीटा जाये? क्या आज़ादी की लडाई में गरम दल और नरम दल की भूमिका अलग अलग नहीं थी? क्या किसी व्यवस्था के भीतर रहकर आदमी विरोध नहीं करता? हम जितना मोदी का विरोध करते हैं वो उतना मजबूत होकर उभर रहा और मोदी को हम चुनाव में हरा नहीं पा रहे. आखिर क्या बात है? मैं जनादेश को सत्य नहीं मानता पर लोकतंत्र में उसका सम्मान करता हूँ… क्या यू आर अनंतमूर्ति की तरह घोषणा कर दूँ कि ये देश छोड़कर चला जाऊं और बाद में न जाऊं? दरअसल विरोध करते समय दूसरों की इमानदारी पर सवाल नहीं उठाना चाहिए. इतना सरलीकरण और निष्कर्ष निकल कर सीधे अवसरवादी और दलाल नहीं कहना चाहिए, खासकर तब जब आप सामने वाले को जानते हैं. विनोद कुमार शुक्ल की रचना से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ पर उन्हें दलाल नहीं कहूँगा भले वे रायपुर गए. इसी तरह नरेश सक्सेना रायपुर गए और उन्होंने अपनी बात कही तो मैं उन्हें फांसी नहीं दे दूंगा… उनके खिलाफ फैसले नहीं सुनाऊंगा…
ये सही है कि रायपुर प्रसंग पर मैंने दो कवितायेँ लिखी थीं लेकिन किसी पर निजी हमले नहीं किये नाम लेकर. उनके खिलाफ अभियान नहीं चलाया. उनमें से तीन ने मुझे ब्लोक भी किया लेकिन मैंने किसी को ब्लोक नहीं किया और न ही किसी की वाल पर जवाब दिया. कविता केवल किसी एक घटना पर नहीं होती, वो प्रवृतियों पर होती है, होरी पात्र किसी एक व्यक्ति विशेष का अब नहीं, उसे किसी एक आदमी में reduce न करें… अगर मेरी कविता से रायपुर जानेवाला आदमी आहत हुआ तो उससे माफी मांगने को राजी हूँ.
सोलह मई के बाद कविता पाठ के लिए दफ्तर से छुट्टी लेकर कविता सुनाने गया… बीस से अधिक कवितायेँ लिख कर फेसबुक पर डाल चूका हूँ. मैं खुद देश के हालत से अधिक चिंतित हूँ लेकिन मुझे किसी का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. दरअसल, किसी तरह की कट्टरता खतरनाक है… ये वाम कट्टरता है कि अगर तुमने वहिष्कार नहीं किया और दूसरे तरीके से विरोध किया तो तुम अवसरवादी हो… मोदी व्यक्ति नहीं वो एक प्रवृति का नाम है… रचनाकार प्रवृतियों के खिलाफ लिखता है, व्यक्ति पर नहीं… यही सामान्यीकरण है रचना का.
पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? इसका जवाब एक घटना और एक लडाई से नहीं दिया जा सकता. रचनाकार का मूल्यांकन उसकी रचना से होना चाहिए. न किसी एक घटना से. हर आदमी की सीमा होती है… उसमे कमजोरियां होती हैं… परिस्थितिजन्य मजबूरियां भी होती हैं… कुछ व्यावहारिक दिक्कतें भी होती हैं… सवाल इरादे और नीयत का है. अगर आपने ये तय कर लिया है कि जिसने विरोध में कविता सुनकर अवसरवाद का परिचय दिया तो हम उसकी सफाई नहीं दे सकते इसलिए मैंने शुरू में कहा कि कोई सफाई नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मैं खुद अपना नैतिक अधिकार खो चुका हूँ लेकिन मेरे साथी अभियान चलाकर चरित्रहनन कर रहे… वे भी इस लडाई को कमजोर कर रहें हैं.
रायपुर या बनारस का विरोध कर लेखकों में फूट पड़ी, ये मेरे लिये दुखदायी है. इसलिए विरोध का अतिवाद ठीक नहीं. अपने साथी लेखको का, विरोध सार्वजानिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए. अंदरूनी बहसों को भीतर चलाया जाये तो बेहतर होगा. विरोध के नाम पर खिल्ली उड़ाना ठीक नहीं और फेसबुकिया क्रांति से भी बचना होगा.
लेखक विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
मूल पोस्ट….
kp
January 2, 2015 at 9:02 am
अभी-अभी चूं-चूं करने का स्पेस मिला हुआ है, चिंचिआ लो। कीमत जब देनी पड़ेगी तब जाहिर होगा कि चिंचियाने में दिलचस्पी है या गुणगान करने में। जय हो भैरव बाबा की।
द्वारिका प्रसाद अग्र
January 3, 2015 at 2:42 pm
विमल जी की बात में दम है। अनुचित आलोचना उचित नहीं होती। वैसे भी, लोग क्या बकते हैं- उस पर क्यों ध्यान देना ? आप पर चर्चा हो रही है, यह एक महत्वपूर्ण संकेत है, इसका मज़ा लीजिए, मित्र।