विमल मिश्र-
विवेक शुक्ला की “दिल्ली का पहला प्यार – कनॉट प्लेस” हाथों में है। इसे पढ़ते हुए देश की इस मशहूर जगह की ढेरों छवियों की रीलें मेरे ज़ेहन में घूम रही हैं, जिसने मुझसे दिल्ली का पहला परिचय कराया।
मेरी कर्मभूमि मुम्बई का भी अपना एक कनॉट प्लेस है – उसके फोर्ट इलाक़े में। एक ऐसा कनॉट प्लेस मेरी जन्मभूमि बनारस में भी है दशाश्वमेध रोड के रूप में।हम सभी के शहरों के अपने कनॉट प्लेस होते हैं। जब हम कनॉट प्लेस जैसे स्थानों पर जाते हैं तो हमारी नज़रें अक्सर उसकी स्थूल काया तक घूम कर बंध जाती हैं … विवेक शुक्ला जी इन जगहों की आत्मा को पकड़ते हैं और उसमें जान भर देते हैं। मानो ये कंक्रीट पत्थर की बेजान मूरतें नहीं हों हाड़-मांस और दिल – दिमाग़ वाली जगहें हों।


नवभारत टाइम्स जैसे सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले दैनिक अख़बार में शहराती ज़िंदगी पर दैनिक कॉलम लिखना कोई मामूली काम नहीं है … आप जरा सोचिए, वे यह काम बरसों से करते आ रहे हैं। आप इन जगहों या लोगों पर उनका कोई भी लेख पढ़िए, आपको लगेगा वे उनसे हाथ मिलाकर या उनकी धड़कनें सुनकर आए हों और फिर वे उन्हें आपका दोस्त बनाकर ही मानते हैं।
मेरे इस अज़ीज़ दोस्त की ताज़ातरीन किताब “दिल्ली का पहला प्यार – कनॉट प्लेस” जो प्रतिबिंब प्रकाशन ने छापी है – उनके लेखन में मील का पत्थर है। किताब amezon पर उपलब्ध है। क़ीमत भी मामूली।
विवेक शुक्ला जी जैसा दिल्ली पर लिखते हैं वैसा ही मैं मुम्बई पर लिखता हूँ और अपने लिखे को दोबारा पढ़ने से हर बार लगता है जैसे कुछ छूट गया हो। फिर ख्याल आता है कि दरअसल, इसे तो उन्हीं की तरह लिखा जाना चाहिए था।
इन विषयों पर ऐसा गहन रिसर्च करने वाले लेखक पत्रकार हिंदी दुनिया में उँगलियों पर गिने जा सकते हैं।मैं विवेक जी की गिनती सर्वश्रेष्ठों में ही करूँगा।
विवेक भाई, आपसे दरख्वास्त है कि आप इस तरह के ढेरों और नगीनें अपने पाठकों को दें।
विवेक शुक्ला- मैं Vimal Mishra जी से लिखना सीखता हूं। मैंने उनकी मार्फत ही मुंबई और काशी को थोड़ा बहुत जाना। उन्होंने मेरी किताब की समीक्षा की है। मैंने इतना तो बाबा भोले नाथ से मांगा भी नहीं था।