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सियासत

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल

मानव समाज ने स्वयं को अनुशासित रखने के लिये अधिकार और दायित्व शब्द का निर्माण किया है किन्तु यही दो शब्द वह अपनी सुविधा से उपयोग करता है. पुरुष प्रधान समाज की बात होती है तो अधिकार शब्द प्राथमिक हो जाता है और जब स्त्री की बात होती है तो दायित्व उसके लिये प्रथम. शायद समाज के निर्माण के साथ ही हम स्त्री को दायित्व का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं और यही स्त्री जब अधिकार की बात करती है तो हमें नहीं सुहाता है लेकिन हम इतने दोगले हैं कि खुलकर इस बात का विरोध भी नहीं करते हैं. बल्कि इससे बचने का  रास्ता ढूंढ़ निकाल लेते हैं. कदाचित विश्व महिला दिवस का मनाया जाना इसी दोगलेपन का एक अंश है. ऐसा एक दिवस पुरुषों ने अपने लिये क्यों नहीं सोचा या साल के पूरे 365 दिन स्त्रियों के लिये क्यों नहीं दिया जाता? बातें कड़ुवी हैं और शायद एक बड़ा वर्ग इन बातों से असहमत हो लेकिन सच से आप कब तक मुंह छिपाते रहेंगे?

<p>मानव समाज ने स्वयं को अनुशासित रखने के लिये अधिकार और दायित्व शब्द का निर्माण किया है किन्तु यही दो शब्द वह अपनी सुविधा से उपयोग करता है. पुरुष प्रधान समाज की बात होती है तो अधिकार शब्द प्राथमिक हो जाता है और जब स्त्री की बात होती है तो दायित्व उसके लिये प्रथम. शायद समाज के निर्माण के साथ ही हम स्त्री को दायित्व का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं और यही स्त्री जब अधिकार की बात करती है तो हमें नहीं सुहाता है लेकिन हम इतने दोगले हैं कि खुलकर इस बात का विरोध भी नहीं करते हैं. बल्कि इससे बचने का  रास्ता ढूंढ़ निकाल लेते हैं. कदाचित विश्व महिला दिवस का मनाया जाना इसी दोगलेपन का एक अंश है. ऐसा एक दिवस पुरुषों ने अपने लिये क्यों नहीं सोचा या साल के पूरे 365 दिन स्त्रियों के लिये क्यों नहीं दिया जाता? बातें कड़ुवी हैं और शायद एक बड़ा वर्ग इन बातों से असहमत हो लेकिन सच से आप कब तक मुंह छिपाते रहेंगे?</p>

मानव समाज ने स्वयं को अनुशासित रखने के लिये अधिकार और दायित्व शब्द का निर्माण किया है किन्तु यही दो शब्द वह अपनी सुविधा से उपयोग करता है. पुरुष प्रधान समाज की बात होती है तो अधिकार शब्द प्राथमिक हो जाता है और जब स्त्री की बात होती है तो दायित्व उसके लिये प्रथम. शायद समाज के निर्माण के साथ ही हम स्त्री को दायित्व का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं और यही स्त्री जब अधिकार की बात करती है तो हमें नहीं सुहाता है लेकिन हम इतने दोगले हैं कि खुलकर इस बात का विरोध भी नहीं करते हैं. बल्कि इससे बचने का  रास्ता ढूंढ़ निकाल लेते हैं. कदाचित विश्व महिला दिवस का मनाया जाना इसी दोगलेपन का एक अंश है. ऐसा एक दिवस पुरुषों ने अपने लिये क्यों नहीं सोचा या साल के पूरे 365 दिन स्त्रियों के लिये क्यों नहीं दिया जाता? बातें कड़ुवी हैं और शायद एक बड़ा वर्ग इन बातों से असहमत हो लेकिन सच से आप कब तक मुंह छिपाते रहेंगे?

यह भी हैरान कर देने वाली बात है कि एक तरफ तो स्त्री को महिमामंडित करते हुये इतनी रचनायें लिखी जाती हैं कि सचमुच में भ्रम होने लगता है कि जितना सम्मान हम स्त्री को देते हैं, वह सम्मान दुनिया में कहीं स्त्री को कहीं नहीं मिलता है लेकिन जब हम पीठ पीछे देखते हैं तो जो कुछ स्त्रियों के साथ घट रहा है, वह शर्मनाक है. दुर्दांत किस्म के निर्भया के मामले को लेकर हमारा समाज जिस तरह से आंदोलित हुआ, वह आज का सच है. इतने बड़े हादसे के बाद भी समाज आंदोलित नहीं होता तो यह दुखद था किन्तु लगता नहीं कि इस आंदोलन ने समाज के भीतर भय उत्पन्न किया है. एक निर्भया के बाद यह सिलसिला थमा नहीं है जो भारतीय समाज के लिये कलंक है.

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इस संदर्भ में यह बात भी हैरानी में डाल देने वाली है कि डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’के प्रसारण पर रोक लगाने की पुरजोर कोशिश की जाती है लेकिन यह कोशिश नहीं दिखती नहीं है कि ‘इंडियाज डॉटर’ जैसी डाक्यूमेंट्री का निर्माण ही क्यों हो? निर्भया प्रकरण स्वतंत्र भारत के माथे पर दाग है तो स्मरण किया जाना चाहिये कि इसी भारत में माया त्यागी प्रकरण भी हुआ है. ह्यमून ट्रैफिङ्क्षकग की खबरें लगातार आती रही हैं. स्मरण करें हिन्दी फिल्म न्यू देहली टाइम्स को जिसका आधार ही था आदिवासी महिलाओं के विक्रय का. इस खबर को आधार बनाकर मीडिया एवं राजनीतिक के घिनौने चेहरे को बेनकाब किया गया. हमारा बस यही मानना है कि पुरानी शर्मनाक घटनाओं से सबक लिया जाता तो शायद कोई निर्भया प्रकरण नहीं होता और न ही किसी को ‘इंडियाज डॉटर’ बनाने की जरूर होती.     

स्त्री समाज की जब हम चर्चा करते हैं तो उनके अभिव्यक्ति के स्वाभाविक स्वतंत्रता की बात आती है. यहां का परिदृश्य भी निराशाजनक है. मीडिया में स्त्री स्वतंत्रता एवं सहभागिता शून्य सी है. जो महिलायें किसी तरह से मीडिया में सक्रिय हैं, उन्हें सुनियोजित ढंग से निर्णायक पदों से परे रखा गया है. यही नहीं, अपनी प्रतिभा के बूते पर स्थान बनाने की कोशिशों में जुटीं इन महिला पत्रकार साथियों को इतना प्रताडि़त किया जाता है कि उनके समक्ष पत्रकारिता छोड़ जाने का विकल्प होता है या स्वयं को समाप्त कर लेने का एकमात्र रास्ता. इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर मीडिया में चर्चा नहीं होती है. पिछले समय में एक नहीं, अनेक घटनायें सामने आयी हैं. ऐसे में स्त्री की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात बेमानी हो जाती है.

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कोई दो साल पहले एक सर्वे में बात साफ हुई थी कि मीडिया में महिलाओं की उपस्थिति नहीं के बराबर है. दुनिया भर की आवाज उठाने वाले मीडिया में ही स्त्रियों की आवाज घुट रही है तो मीडिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महज एक नारा बन कर रह जाता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका समागम के संपादक है )

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