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जो क्रांतिकारी लोग निकाले गए, वो तो चुप्पी साध लिए, पर जनता उन्हें ‘शहीद’ बताने में जुटी हुई है!

Devpriya Awasthi : आज बहुत से मित्र मिलिंद खांडेकर, पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा की नौकरियां चले जाने का रोना रो रहे हैं। शायद इसलिए कि वे सेलेब्रिटी बिरादरी में शुमार किए जाते हैं। वरना तो ज्यादातर मीडिया घरानों में ऐसा आए दिन होता रहता है। खुद भुक्तभोगी हूं और यह गति पाने वाले अनेक मित्रों को करीब से जानता भी हूं। ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया में सहानुभूति और समर्थन पाने के लिए सेलेब्रिटी होना पहली शर्त है।

Satyendra PS : सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जिन पत्रकारो को हीरो बताया जा रहा है, उन्होंने कहीं बयान दिया क्या कि मोदी या सरकार की तरफ से नौकरी छोड़ने का दबाव था? झूठ मूठ का तो हम लोग इनको शहीद नहीं बना रहे? ये ऊपर के पद पर बैठे लोग बहुत दम्भी और मैनेजमेंट के चमचे होते हैं।

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ये अपने सामने किसी को काबिल नहीं समझते जबकि सारी काबिलियत मैनेजमेंट की चमचई और गुटबंदी से आती है। जब कर्मचारी निकाले जाते हैं तब तो ये कहते हैं कि बेट्टा मरो, ये मैनेजमेट का फैसला है। ऐसे में ये मोदी के खिलाफ मैनेजमेंट की असहमति के बावजूद कुछ दिखाएंगे या बोलेंगे, इस पर सन्देह है।

ये इत्ती मोटी सेलरी वाले हैं कि रिटायरमेंट के 5 साल पहले नौकरी छोड़कर भी शेष जीवन का प्रबंधन कर सकते हैं। फ्लैट्स, एसयूवी या लक्जरी कार, बैंक खाते सअब मेंटेन होते हैं। असल समस्या उनकी है, जिनकी नौकरी जाते ही चूल्हा जलना बन्द हो जाता है। इसलिए पहले इन्हें खुद को शहीद घोषित करने दीजिए, उसके बाद हम लोग हई हैं शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगाने के लिए।

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हम भी गुणगान करेंगे। पहले अपनी समस्या लेकर वो खुद सामने आए। हम लोग गरीब गुरबे  हैं। यह कहकर उनको लावारिस न छोड़ेंगे की मैनेजमेंट का फैसला है कि तुम लोग गधे हो इसलिए निकाल दिए गए।

अभी आकर खण्डन कर दें कि मोदी जी हम लोगों को साल भर के टूर पर आस्ट्रेलिया भेज रहे हैं इसलिए इस्तीफा दिया है तो फिर हम लोग मुंह बनाए फिरेंगे और ये लोग हंसेंगे की देखो यार तुम लोग हो चूतिये, इसलिए हमेशा भुखमरी रेखा पर खड़े रहते हो। रवीश कुमार ने इन लोगों की शहीदी के लिए बैटिंग की है। इन लोगों की तरफ से कोई बयान नहीं आया।

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Abhishek Parashar : आज पत्रकारिता छोड़ चुके या फिर अपेक्षाकृत सुरक्षित लोकेशन पर खड़े ”क्रांतिकारी” कह रहे हैं कि सन्नाटा है. सन्नाटा तो है लेकिन यह नहीं होता अगर छंटनी और महीनों इंटर्न से मुफ्त काम कराए जाने या फिर न्यूनतम मेहनताना नहीं दिए जाने के मामले में वरिष्ठ इस्तीफा दे देते और मृतप्राय पत्रकारों का संगठन इस मामले को लेकर सड़कों पर कूद पड़ता. फिर आज यह कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि जब गिने-चुने वरिष्ठों को टारगेट कर बाहर निकाला गया तो लोग सड़कों पर क्यों नहीं उतरे, सामूहिक इस्तीफा क्यों नहीं दिया? आज आपके पीछे कोई नहीं है, कल हमारे पीछे कोई नहीं होगा. इस स्थिति के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वह यहीं वरिष्ठ हैं. आपको याद आता है कि किसी वरिष्ठ ने न्यूनतम मेहनताना को लेकर लड़ना तो दूर एक पोस्ट तक भी लिखा हो.

Pradeep Mahajan : ब्रांडेड पत्रकारों के निकाले जाने पर भूचाल… लेकिन हजारों पत्रकारों के शोषण पर क्यों रहते हैं खामोश…. जी हाँ, जब किसी बड़े पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान द्वारा लात पड़ती है तो मीडिया जगत में भूचाल आ जाता है… ऐसा लगता है जैसे देश की पत्रकारिता उन्ही के दम पर जिंदा थी…

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लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू है कि हजारों पत्रकारों के घर चूल्हा नहीं जल रहा… ये पत्रकार या तो दबंगों या अपने मालिकों या पुलिस प्रशासन द्वारा शोषित-प्रताड़ित हो रहे हैं… मजीठिया वेज बोर्ड की लड़ाई में क्रांतिकारी पत्रकारों के घर के बर्तन गहने तक बिक गए लेकिन तब ये बड़े ब्रांड के पत्रकार चुप्पी साधे रहे…

ये बड़े मीडिया संस्थान के पत्रकार दूसरे पत्रकार साथियों की लड़ाई में उनके साथ खड़े होने की बात तो छोड़ो, उन्हें हौंसला तक नहीं देने आते… लेकिन जब ब्रांडेड पत्रकार का शोषण या मीडिया निकाला होता है तो दूसरे साथी पत्रकार उनके लिए मिलजुल कर आवाज उठाते हैं… लानत है बड़े बैनरों में काम करने वाले ब्रांडेड पत्रकारों पर जो अपने साथी पत्रकार के शोषण-उत्पीड़न के दौरान मदद नहीं करते…

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वरिष्ठ पत्रकार देवप्रिय अवस्थी, सत्येंद्र पी. सिंह, अभिषेक पाराशर और प्रदीप महाजन की एफबी वॉल से.

इन्हें भी पढ़ें….

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https://www.youtube.com/watch?v=4d93-GqC-lU

1 Comment

1 Comment

  1. umesh shukla

    August 4, 2018 at 8:48 am

    sach kaha aap logon ne in kathit bade logon ki badaulat hi media samuh ke mailk naye patrkaron ka mamane tareeke se dohan karate hain. sabase badi baat ki aaj tak media samuh ki naukariyone ke liye koi nishchit mapdand tay nahi kiya gaya, aise men in kathit bade patrkaron ko shaheed batana theek nahi, yeh baat alag hai ki inke mudde ko lekar sarkar ke rukh ka pata lagaya jaa sakata hai ki vo chahati kya ha.

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