समरेंद्र सिंह-
दरअसल तमाम पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों ने यादवों को अपना नेता मानने से इनकार कर दिया है। अब वो सभी अपना नेता तैयार कर रहे हैं और उन्हें भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए। वर्ग की लड़ाई जब जाति पर आएगी और वंशवाद की राजनीति पर सिमट जाएगी तो हमेशा वर्ग हारेगा। बात बस इतनी सी है। बाकी जिसे जो बौद्धिक पाखंड रचना है रचता रहे।
अभी अन्य पिछड़ी जातियों ने यादवों के नेतृत्व को पूरी तरह से स्वीकार करने से इनकार किया है। आप खुद देखिये बिहार में एक कुर्मी का शासन पंद्रह साल से है। छत्तीसगढ में कुर्मी मुख्यमंत्री हैं। ठीक ऐसे ही सभी जगह पर कुर्मी और कोयरी नेतृत्व उभर चुका है। मल्लाह नेतृत्व उभर चुका है। राजभर नेतृत्व सामने है। जाट और गुर्जर नेतृत्व भी है। ये सभी गैर यादव पिछड़ी जातियां हैं। ये अपनी शर्तों पर समझौता करती हैं।
ठीक इसी तरह आने वाले समय में इन जातियों के बुद्धिजीवी यादव और मंडल बुद्धिजीवियों को नकार देंगे। पिछड़ों की नुमाइंदगी की वकालत करने वाले यादव बुद्धिजीवी कुछ अपवादों को छोड़कर घनघोर जातिवादी हैं। ये सामाजिक सुधारों से जुड़े संघर्ष को जातिवादी चश्मे से देखते हैं। अपने नेताओं के सभी अपराधों को ढाल मुहैया कराते हैं, इसलिए अन्य पिछड़ी जातियों के बुद्धिजीवी इनके बौद्धिक आतंक को नकार देंगे। मतलब आने वाले दिनों में पिछड़ों के बीच भी वैसी ही तीखी बहस होगी जैसी सवर्णों के बीच होती है। ये मेरा अनुमान है और मैं गलत होना चाहूंगा।
जनता का मानस गढ़ना पड़ता है और इसकी शुरुआत दिमाग से नहीं दिल से होती है। अगर आप नेता हैं तो आपकी प्राथमिकता में सबसे पहला काम लोगों का दिल जीतना है। दिमाग की बारी उसके बाद आती है। जो दिल ही नहीं जीतेगा, वो कितनी भी बात करे उन बातों का कोई मोल नहीं होता है।
लोकतंत्र का ये बहुत ही सीधा और सरल पक्ष है। मतलब अगर मैं आप पर भरोसा नहीं करता हूं तो आप जो कुछ भी कहिएगा, उसे मैं एक झटके में ये कह कर नकार दूंगा कि झूठा है या गपोड़ी है या फिर चोट्टा है। बात शुरु भी नहीं हुई और खत्म हो गई।
इन चुनावों में यही बात हुई है। बीजेपी ने दिल जीता था। इसलिए उसके नेताओं की बात लोगों के जेहन में घुसी। उन्होंने माना कि बीजेपी जो कहती है वो करती है। बाकी झूठे हैं, गपोड़ी हैं, चोट्टे हैं। और चोट्टों का क्या? कुछ नहीं!
इसलिए बाकी दलों को जमीन पर काम करना होगा। जनता को दोषी, गुनहगार ठहराने और गाली देने से काम नहीं चलेगा। पिकनिक मनाने से तो कतई काम नहीं चलेगा। मर्सिडीज बेंज की आलीशान बस में घूमने से भी काम नहीं चलेगा। जनता के सुख दुख में खड़े होने से काम होगा। पसीना दिखना चाहिए। शरीर से पसीने की गंध आनी चाहिए। आंसू और मुस्कान साझा करना चाहिए। ये काम आसान नहीं है। गर्मियां शुरु होने वाली हैं। घूमने से पैर में छाले पड़ जाते हैं। तपती धूप से बदन पर फफोले उग आते हैं। उन्हें देख कर पब्लिक का दिल पसीजता है। सर्दियों में और सुहाने मौसम में करोड़ों की मर्सिडीज में घूमने से दिल नहीं जीता जाता। ये लोकतंत्र है, यहां जो राजा बनकर मैदान में उतरेगा, उसके हिस्से शिकस्त ही आनी है।
मगर देख रहा हूं कि हार से तिलमिलाए कांग्रेसी और समाजवादी पार्टी के भांटों ने जनता को ही गरियाना शुरु कर दिया है। ये नाजायज, बेतुकी और बेहूदी बात है। बचना चाहिए। नेताओं से कहना चाहिए कि वो काम करें। पब्लिक को बदनाम न करें। ये पब्लिक है और ये पब्लिक पटकना जानती है। अच्छे अच्छों को इसने अपने दांव से चित कर दिया है फिर ये शाही लौंडे और शाही छपरिया किस खेत की मूली हैं। आगे भी पटके जाएंगे। राज तो जनता ही करेगी। शासन उसके प्रतिनिधि करेंगे। बाकी बस ढोल बजाएंगे।