यशवंत सिंह-
अस्पताल चलें…
घर पर जब आक्सीजन लेवल अट्ठासी-नब्बे के बीच चक्कर लगाने लगा था तो उसी समय भर्ती होने का तय किया. पर भर्ती कहां होऊं? हर तरफ तो बेड-आक्सीजन के लिए हाहाकार है. किससे कहूं? क्या करूं? अगर और नीचे गिरा आक्सीजन लेवल तो क्या होगा… इसलिए घर से बाहर निकलने के बारे में गंभीरता से सोचने लगा.
संयोग से उसी समय नोएडा के सेक्टर तीस स्थित चाइल्ड पीजीआई में ढाई सौ बेड का नया नया कोविड वार्ड शुरू होने का एक विस्तृत वाट्सअप संदेश मेरे पास आया. इस मैसेज को नोएडा के पुलिस कमिश्नर आलोक सिंह जी को फारवर्ड कराते हुए उनसे यहां भर्ती कराने का अनुरोध किया. उन्होंने फौरन वहां मेरा नाम नोट करा दिया और तत्काल पहुंचने के लिए कहा. नया नया खुला था इसलिए बेड खाली होंगे, ये मेरे दिमाग में चल रहा था.
चाइल्ड पीजीआई में कोविड वार्ड शुरू होने का मैसेज नोएडा के पूर्व सीएमओ डाक्टर अजय अग्रवाल जी को भी भेजा और उचित देखरेख हेतु एक बार वहां बात कर लेने के लिए अनुरोध किया. उनने अस्पताल के डायरेक्टर गुप्ता जी के परिचित होने का हवाला देते हुए मुझे समुझित इलाज हेतु आश्वस्त किया.
नोएडा में रहने वाले अपने गांव के एक पंडीजी मित्र अतुल को फोन किया. अस्पताल में भर्ती होने जाना है. कार चाहिए. उनने फौरन अपने घर के एक बालक को कार समेत भेज दिया.
चाइल्ड पीजीआई के मेन गेट पर पहुंचा तो वहां नाम बताते ही डाक्टर्स ने ‘डायरेक्टर साहब का पेशेंट’ कहते हुए सीधे फोर्थ फ्लोर पर जाने के लिए कह दिया.
मैं लिफ्ट से चौथे फ्लोर पर जाकर दाएं बाएं झांकते निहारते सीधे रिसेप्शन पहुंच गया. वहां बैठे एक शख्स ने जोर से पूछा- कोविड पेशेंट हो?
मैंने कहा- हां
वो चिल्लाया- यहां कहां सीधे चले आए मुंह उठाकर इनफेक्शन फैलाने, चलो पीछे.
मैंने पूछा- किधर पीछे?
उसने और तेज चिल्लाते हुए कहा- जिधर से आए हो लिफ्ट के पास उधर ही खड़े रहो.
मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन क्या किया जा सकता है. मैं लिफ्ट के पास खड़ा सोचता रहा. मुझे उस रिसेप्शन वाले शख्स पर गुस्सा आ रहा था. वह एक पेशेंट से अच्छे तरीके से भी अपनी बात कह सकता था. लेकिन नंगों-भूखों और चोट्टों के इस देश में किसी से सदाशयता की उम्मीद रखना बेकार है. यहां अच्छी चीजें सिर्फ किताबों-धर्मग्रंथों में मिलती है. जमीन पर ज्यादातर राक्षस, चोर, उचक्के, हरामी, धूर्त, स्वार्थी, अधम लोग मनुष्य का रूप धर टहलते मिलते हैं.
लगभग पंद्रह बीस मिनट बाद एक शख्स दूर खड़े हो मेरा नाम वगैरह पूछ कर रजिस्टर में लिखने लगा. फिर वो अपने पीछे आने को बोला.
एक कमरे की तरफ इशारा कर अंदर घुस जाने को कहा.
रुम नंबर 8.
आठ मेरा लकी नंबर है. जन्मांक आठ है. आठवें फ्लोर पर नोएडा में किराए का फ्लैट है. वैसे आठ अंक का गठन गजब का है. दो शून्य एक दूसरे से गुंथे हुए और ये जुड़ाव बना देता है इन्हें 8 बना देता है.
‘रूम तो लकी मिला है गुरु, मामला फिट्ट रहेगा!’ दिल खुश रखने के लिए बुदबुदाया.
अंदर एक बेड पर पेशेंट लेटा था. आक्सीजन लगा हुआ था उसे. मैं दूसरे खाली बेड पर बैठ गया. सामान वगैरह रखने के बाद मास्क-टोपी पहने-पहने ही सेल्फी लेने की तैयारी करने लगा.
हम दो मरीज रूम नंबर 8 में थे. मेरे साथ वाला इक्कीस बाइस साल का नौजवान था. उसके बाप पोस्ट मास्टर. पुत्र मोह में पिता का हाल साक्षात वहां देखा. बेटे को यदा कदा आक्सीजन की जरूरत पड़ जाए. लड़का ज्यादातर शांत रहता. बोलते रहते तो सिर्फ और सिर्फ उसके बाप. खाने पीने के लिए मनुहार करते रहते. पर लड़का भाव न देता. मैंने लड़के से जबरन दोस्ती की. बाप थक जाता तो मैं जुटता और खाने के लिए तर्कों के साथ प्रेरित करता. फिर वह खा लेता. उसे तार्किक रूप से समझाना पड़ता तो वह समझ जाता. बाद में उसके पिता मुझसे ही कहते कि इसे समझाओ. पिता उसके लगातार बोलते रहते, लगातार बातें करते रहते, फोन पर अपने आफिस वालों से या घर वालों से.. छोटी छोटी चीजों का विस्तार से डिस्कशन करते रहते. मुझे उनकी इस फोनबाजी से दिक्कत होती. मैं शांति चाहता. उनको एक बार मन कड़ा करके कह दिया- बात करना हो तो बाहर जाइए, यहां मुझे दिक्कत हो रही है. जब वो बात करने बाहर चले जाते तो वहां डाक्टर या मेडिकल स्टाफ झिड़क देता- ”अंदर जाओ, कोरोना फैलाकर हम सबको संक्रमित करोगे क्या… बाहर आना एलाउ नहीं है…”
ऐसे में वो फिर अंदर आ जाते.
मेरी खांसी बढ़ रही थी. आक्सीजन लेवल फ्लक्चुएट कर रहा था. कभी अट्ठासी तो कभी 93. आधा घंटा बेड मिलने में लगा. बेड मिलने के कई घंटे बाद तक कोई पूछने न आया. एक नर्स पर भड़का तो वो भी भड़क पर बोली- यहां कल से ही ये सब कोविड वार्ड बना है. सब कुछ अस्त-व्यस्त है. कुछ गंभीर पेशेंट हैं. सब उन्हें देख रहे हैं. अभी आप अच्छे हो. थोड़ा वेट कर लो.
खाक अच्छा हूं. अच्छा होता तो यहां आता. तो क्या यहां डाक्टर तभी मुझे देखने आएंगे जब मैं खराब हो जाऊंगा… ये क्या बात हुई… चोट्टे साले…
इन ससुरों से बहस कौन करे!
पूरे चौबीस घंटे बाद अगले रोज डाक्टर आया. दूर खड़ा रहा. मुझसे पूछा कि क्या दिक्कत है. मैंने बताया तेज फीवर आता है, बुखार नहीं जाता है… सात दिन हो गए…. प्लीज आप लोग ब्लड टेस्ट करा के चेक कराइए कि क्या दिक्कत है…
उसके एक सहयोगी ने आक्सीमीटर लगाकर आक्सीजन लेवल चेक किया और ठीक है ठीक है कहते हुए दोनों निकल लिए. मैंने उनसे फिर अनुरोध किया कि ब्लड टेस्ट करवा दीजिए.
भर्ती होने के दूसरे दिन दोपहर में अस्पताल की तरफ से दवा वितरण किया गया. मेरा बुखार डोलो650 से भी कम न होता था लेकिन ये साले अस्पताल वाले 500एमजी का पैरासेटमाल दिए. मैंने कहा कि इससे बुखार नहीं उतरेगा. वो सब बोले- हमको यही दिया गया है बांटने के लिए.
एक दो विटामिन की गोलियां और एक खांसी सिरप. लो कर लो करोना का इलाज. बस, हो गया इनफेक्शन का ट्रीटमेंट.
खांसी बढ़ने और सीने में जकड़न तेज होने से मैं बेहाल होने लगा था. आक्सीजन लेवल चेक किया तो 88 था. मैंने चिल्लाकर नर्स को बुलाया और कहा कि आक्सीजन लगाओ. मेरा लेवल बहुत गिर रहा है.
एक वार्ड ब्वाय ने चेक किया तो आक्सीजन लेवल बढ़ा हुआ आया, 93. उसने कहा कि अभी ठीक है.
मैंने कहा कैसे ठीक है, अभी चेक किया था तो 88 था. वो बोला- अभी देखो 93 है न. पेट के बल लेट जाओ. कोई दिक्कत नहीं है तुम्हें. आक्सीजन की जरूरत नहीं है अभी.
मैं बड़बड़ाया- इन ससुरों से कौन बहस करे.
फिर रुआंसा हो गया. सब बेकार है. कोई किसी काम का नहीं. सोर्स-सिफारिश भी इन सफेदकोट यमराजों के यहां बेकार है. यहां साक्षात नरक है. बाहर यहां की तस्वीर कागजों में अच्छी अच्छी दिखाई जाती होगी. पर ये चोट्टे समुचित दवा तक नहीं दे रहे हैं. सारा पैसा पी जाएंगे मिलकर. डाक्टर से लेकर डायरेक्टर तक चोर हैं. इतने बड़े सरकारी अस्पताल में देखो एक पंखा तक नहीं लगा रखा है कमरे में. नर्स बोली कि घर से मंगवा लो पंखा, लगवा देंगे. बताइए इन माकानाकासाका सालों को. घर से पंखा मंगवाएंगे तो ये लगवाएंगे साले दलिद्दर हरामखोर.
हाय रे आक्सीजन, दीदार तो हुआ पर मिलन कब होगा….
मेरा पड़ोसी नौजवान आराम से आक्सीजन खींच रहा था. इधर मैं आक्सीजन लेने के लिए इतने प्रयासों से यहां आया था लेकिन ये साले मुझे ही आक्सीजन नहीं दे रहे हैं. हाय रे आक्सीजन. तेरे चक्कर में यहां आया. तेरे लिए देश भर में मारामारी है पर तू है कि मेरे पास है पर मुझे नसीब नहीं. काश कुछ देर के लिए ही सही, मुझे भी मिल जाए, मुझे पता तो चल जाए कि ये आक्सीजन पीने पर कैसा फील होता है… पर ये साले तुझसे मिलन ही नहीं करा रहे हैं… बस दीदार ही कर पा रहा हूं… जबसे आया हूं केवल आक्सीजन देख रहा हूं… मेरा पड़ोसी आक्सीजन पीता जा रहा है… मुझे कब मिलेगा भइया… जिस आक्सीजन के लिए भागकर यहां आया वही मुझसे क्यों दूर भाग रही है… ये क्या चक्कर है ऐ मेरे खुदा! ये साले मार ही डालेंगे क्या मुझे बिना आक्सीजन दिए!!!
सरकारी अस्पताल होने का जितना दुख मिल सकता था, वो सब यहां मिल रहा था. पीने के लिए पानी लेने हेतु जग लेकर गेट पर जाकर रखना पड़ता और वे लोग दूर खड़े होकर उसमें पानी डालते. मतलब पीने का नार्मल पानी ही इतना मुश्किल से मिलता कि इनसे गर्म पानी और भाप की अपेक्षा करना बेमतलब था. एक बार बोला तो साफ साफ मना कर दिया- यहां गर्म पानी की कोई व्यवस्था नहीं है!
खांसी जब आती तो सीना हिल जाता. बलगम भी निकलने लगा. खांसी आते तो लगातार आती. बंद होने का नाम ही न लेती. खांसी आते ही वाशरूम भागना पड़ता ताकि वहीं थूकथाक सकें.
अस्पताल में न आक्सीजन मिला, न गर्म पानी और न भाप. बुखार का कारण पता करने के लिए ब्लड टेस्ट भी न किया इन ससुरों ने. मुझे कोफ्त होने लगी. मैंने आलोक जी अजय जी को फोन-मैसेज कर यहां की दुर्व्यवस्था के बारे में बताया और ब्लड टेस्ट कराने का अनुरोध किया.
थोड़ी ही देर में एक फोन आता है. ये फोन अस्पताल के कोविड वार्ड के लिए बने डाक्टर कक्ष से था. बंदा हड़काने लगा. कहां कहां फोन करते हो बाहर. जो जरूरत हुआ करे यहीं बता दिया करो. बाहर कहने से कुछ नहीं होगा. यहां बोलो यहां बताओ. जो कुछ होना है यहीं से होगा. बाहर वाला तो केवल फोन कर देगा. होगा तो यहीं से. इसलिए फोन यहीं करो. बाइपास न करो. समझे.
मैं चुप सुनता रहा.
इस साले से कौन कहे कि यहां आदमी नहीं, राक्षस टहलते हैं. इनसे कहना न कहना सब बेकार है. जिनके पास 650 एमजी पैरासेटमाल के बुखार उतारने के टैबलेट न हो, जो गरम पानी नहीं दे सकते, जो पंखा नहीं लगा सकते, जो किस मरीज को क्या दिक्कत है ये पता करके इलाज नहीं कर सकते वो क्या मेरा कहना सुनेंगे… और फिर कितनी बार तो कहा ब्लड टेस्ट कराने के लिए… किसने सुन लिया?
देर तक मैं बड़बड़ाता रहा.
थोड़ी देर बाद एक बंदा आया. ब्लड ले गया. मैंने पूछा कब तक रिपोर्ट आएगी. उसने कोई जवाब न दिया. मुझे लग गया कि ये ब्लड बस फार्मल्टी करने के नाम पर ले गया है. कोई रिपोर्ट विपोर्ट न मिलेगी. मेरा खून खामखा बेकार गया.
हुआ भी यही. कोई ब्लड टेस्ट रिपोर्ट न आई.
मेरा पड़ोसी रवि आक्सीजन खींच खींच कर सही होने लगा था. वो अब घर जाने के लिए बोलने लगा. मुझे भी लगा कि यहां से निकल लो. खांसी फेफड़े की रक्षा के लिए गरम पानी भाप जरूरी है. यहां तो कुछ मिलने से रहा. मर गए तो यूं ही सिलकर जला आएंगे ये अस्पताल वाले. घर चल कर बचने का कुछ प्रयास नए सिरे से कर लेते हैं. इस कैदखाने में तो आदमी यूं ही मर जाएगा.
रूम नंबर आठ के हम दोनों पेशेंट्स ने डाक्टरों और मेडिकल स्टाफ से डिस्चार्ज करने के लिए बोल दिया.
पर वहां कोई काम होता कहां है वक्त से. उन लोगों ने कहा कि डाक्टर आएंगे तो होगा. अभी शांत लेटे रहो.
उन्हें कोई मतलब न था कि कौन मरीज क्या कह रहा है. हम लोगों ने पूरे दिन जो भी स्टाफ जिस भी मकसद से आए, उनसे एक ही बात कहते कि डिस्चार्ज करो नहीं तो हम लोग लिफ्ट पकड़ कर भाग लेंगे.
हर तरफ हल्ला हो गया कि रूम नंबर आठ वाले भागने के लिए कह रहे हैं, इनका डिस्चार्ज स्लिप बनाओ.
पर इधर मैं उधेड़बुन में पड़ा रहा. अगर यहां से गया और वाकई आक्सीजन लेवल ज्यादा गिर गया तो फिर कहां जाऊंगा? यहां कम से कम ये गारंटी तो है आक्सीजन है और मुश्किल वक्त में आक्सीजन सपोर्ट मिल जाएगा…
मैंने फिर सोचा कि मैं न जाऊंगा… यहीं रहूंगा… लेकिन खांसी और सीने में जकड़न की स्थिति देख भाप व गरम पानी की जरूरत महसूस होने लगी जो यहां मिल नहीं रहा था…
बुरी तरह कनफ्यूज था…. यहीं रहूं या घर चलूं… यहीं रहूं या घर चलूं…. यहीं रहूं या घर चलूं…
तीसरा आप्शन भी कोई हो सकता है क्या….
थोड़ी देर बाद सोचते सोचते फोन उठाया और शासन, प्रशासन, मीडिया, मेडिसीन के कई उच्च पदस्थ लोगों को फोन करना शुरू किया…
…जारी….
इसके पहले वाला पार्ट पढ़ें-
यशवंत की कोरोना डायरी (1) : साले ये कहीं जिंदा ही न मुझे सिल दें!
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