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सियासत

ईरान से रार रखे अमेरिका तेल भण्डार पर टपकाए लार!

अमेरिका सदैव ही ईरान के प्रति साजिश रचता रहा है। अमेरिका ने एक दफे बड़ी साजिश रच कर ईरान को युद्ध की आग में ढकेलने का पूरा खाका तैयार किया। इसमें इराक को मोहरा बनाने की योजना बनाई गई। लेकिन ईराक साधारण रूप से ईरान से युद्ध करने दिशा में आने वाला नहीं था।

अमेरिका ने ईरान के विरुद्ध इराक को कई बार उकसाने का प्रयास किया परन्तु अमेरिका असफल रहा। बाद में अमेरिका ने एक बड़ी योजना बनाई जिसमें एक अखबार का इस्तेमाल किया। अखबार के लेख को आधार बनाते हुए अमेरिका ने इराक को उकसाना आरम्भ कर दिया। अमेरिका इराक को यह समझाने में कामयाब रहा कि ईरान उस पर भी कब्जा कर लेगा और अपने क्षेत्र का विस्तार कर लेगा। उस समय ईरान में क्रांति का बिगुल बज चुका था।

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अमेरिका की चाल ईराक नहीं समझ पाया और अमेरिका के बहकावे में आकर उसने स्वयं ही ईरान पर आक्रमण कर दिया। ईरान इस बात से पूर्ण रूप से अन्भिज्ञ था कि इराक के द्वारा ईरान पर आक्रमण किया जा सकता है। ईरान तो अपने देश की क्रान्ति में लगा हुआ था। परन्तु अमेरिका के बहकावे में आकर इराक ने ईरान पर आक्रमण कर दिया और युद्ध आरम्भ कर दिया। इससे पहले दोनों देश ईरान और इराक आपस में मित्र देश थे।

दिनांक 16 जुलाई 1979 को अमेरिका के प्रतिष्ठित अख़बार में योजनाबद्ध रूप से एक खबर छापी गई जिसमें यह लिखा गया कि ईरान-इराक के बार्डर पर एक स्थान है जिसका नाम शत-अल-अरब है वहाँ अधिक मात्रा में तेल का भण्डार मौजूद है। दोनों देशों को उस तेल से फायदा होने की संभावना है। अमेरिकी अखबार ने इस खबर का स्रोत अंतरिक्ष में मौजूद सैटेलाइट से मिली जानकारी को आधार बनाकर छापा जबकि यह खबर पूरी तरह से गलत और फर्जी थी।

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सेटेलाईट के द्वारा किसी भी तरह की कोई तस्वीर अथवा सूचना नहीं दी गई थी। लेकिन सेटेलाईट को आधार बनाकर जिस तरह से इस षड़यन्त्र को रचा गया वह सफल रहा। क्योंकि इस खबर पर इराक को पूरी तरह से विश्वास हो गया। इस खबर को सत्य मानने का एक प्रमुख कारण यह था कि दोनों देशों के पास आधुनिक तकनीकि का अभाव था। दोनों देश आधुनिक तकनीकि से वंचित थे। जागरूकता के अभाव के कारण इराक ने तेल भण्डार पर कब्जा करने के लिए जल्दबाजी करते हुए ईरान पर आक्रमण कर दिया। ईरान ऐसा नहीं करना चाहता था क्योंकि ईरान इराक को अपना मित्र देश समझता था। लेकिन अमेरिका ने जिस स्थान को तेल के भण्डार का आधार बनाया वह ईरान के कब्जे में था और ईरान का ही क्षेत्र था। लेकिन उसकी सीमा इराक से लगी हुई थी।

अमेरिका ने इसी का भरपूर फायदा उठाया और इराक ईरान को लड़वा दिया। सद्दाम ने ईरान के उस स्थान पर कब्जा करने की ठानी। सद्दाम ने अमेरिका के कहने पर ईरान की क्रान्ति का फायदा उठाने की कोशिश की और उस स्थान पर कब्ज़ा करने की रणनीति अपनाई। सद्दाम ने ईरान के खुजस्तान के लोगों को भड़काना शुरू कर दिया कि यहां अरब नागरिकों का निवास अधिक मात्रा में हैं ऐसे में यह क्षेत्र सऊदी अरब का होना चाहिए न कि ईरान का इस पर अधिकार होना चाहिए। फिर यह युद्ध लगभग 8 साल तक चला, जो इतिहास का एक लंबा युद्ध माना जाता है। इसमें दोनों देशों के लाखों लोगों की जान चली गई। इस युद्ध के शुरुआत में कुछ देशों ने अपने व्यापारिक हित के लिए दर्शक बनकर आनन्द लिया।

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ईरान के साथ अमेरिका की दुश्मनी का बीज 1953 में पड़ा जब अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट करवा दिया। निर्वाचित प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को गद्दी से हटाकर अमरीका ने एक अपना काठ का पुतला बैठा दिया था जिसका नाम शाह रज़ा पहलवी था। सीआईए ने ईरान के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को सत्ता से बेदख़ल क्यों करवाया था, इसकी मुख्य वजह थी ईरान का किसी के दबाव में कार्य न करना। संभवतः ईरान की माटी में असर है कि वह किसी के भी दबाव में कार्य नहीं करना चाहता।

ईरानी प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक खुले विचार वाले नेता थे। वह तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे। लेकिन अमेरिका ईरान के सभी तेल के स्रोतों पर अपना सीधा दखल चाहता था। अमेरिका और ईरान की दुश्मनी का मुख्य कारण यही था कि अमेरिका को साक्षात भगवान न स्वीकार्य करना। इससे अमेरिका खिन्न हो गया।

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यह पहला मौका था जब अमेरिका ने शांति के दौर में किसी विदेशी नेता को अपदस्थ किया था। इस घटना के बाद इस तरह से तख़्तापलट अमेरिका की विदेश नीति का हिस्सा बन गया। 1953 में ईरान में अमेरिका ने जिस तरह से तख्तापलट किया उसी का नतीजा था कि 1979 को ईरान में क्रांति ने जन्म लिया। 1979 की क्रांति के बाद आयतुल्लाह ख़ुमैनी तुर्की, इराक़ और पेरिस में निर्वासित जीवन जी रहे थे। ख़ुमैनी, शाह पहलवी के नेतृत्व में ईरान के पश्चिमीकरण और अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता के लिए उन्हें निशाने पर लेते थे।

आख़िरकर 16 जनवरी 1979 को ईरानी शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। आयतुल्लाह ख़ुमैनी निर्वासन से लौटे तो तेहरान में उनके स्वागत के लिए भारी भीड़ उमड़ी। ऐसे लग रहा था पूरा ईरान सड़क पर उतरकर खुमैनी का स्वागत कर रहा है। शाह पहेलवी के द्वारा ईरान छोड़कर भागने के कारण अमेरिका ईरान को बर्बाद करना चाहता था। इसीलिए उसने इराक को मोहरा बनाया। सद्दाम ने 22 सितंबर 1980 को ईरान पर हमला कर दिया। इराक ने इस युद्ध की शुरुआत हवाई हमले के रूप में की थी। शुरुआत में इराक खुजस्तान के अधिकांश भागों को अपने अधिकार में ले लिया था।

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इराक को अरब निवासियों के समर्थन की भी उम्मीद थी जबकि ऐसा नहीं हुआ। इराकी सेना ने ईरान के अंदर घुसकर कई स्थानों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था। ईरान के कमज़ोर होने की प्रमुख वजह उसकी क्रांति थी। ईरानी क्रांति के दौरान उनकी सेना लगभग बिखर चुकी थी। ऐसे में इराक को अगले दो सालों तक इसका भरपूर फायदा मिला। अयातुल्ला खुमैनी ने सद्दाम हुसैन को मात देने के लिए ईरान की जनता का विश्वास जीता। ईरान की आबादी इराक के अपेक्षाकृत ज्यादा थी। सद्दाम के पास अमेरिका का दिया हुआ बड़ी मात्रा में हथियार मौजूद था तो वहीं खुमैनी के पास ईरान की जनता का मात्र विश्वास।

खुमैनी ने ईरान के युवा वर्गों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित किया। अब ईरान की एक बड़ी सेना तैयार हो चुकी थी। वह इराकी सेना को पीछे धकेलने के लिए लगातार कोशिशें करने लगी। जब ईरान इस युद्ध में बड़ी मजबूती के साथ सद्दाम की सेना पर भारी पड़ने लगा तब अमेरिका के इशारे पर 20 जून 1982 को सद्दाम ने युद्ध विराम की मांग की। अब तक अमेरिका ईरान के सामने खुलकर नहीं आया था। उसके बाद सद्दाम ने ईरान के उन सभी स्थानों को वापस भी देने को कहा जिन पर उसका अधिकार हो गया था मगर, खुमैनी ने इस युद्ध विराम की मांग को ठुकरा दिया। अंत में सद्दाम को ईरान से अपनी सेना खुद वापस बुलानी पड़ी। इस युद्ध में इराक ने कैमिकल गैस का इस्तेमाल किया था। इस भीषण अटैक में ईरान को बहुत नुकसान हुआ था।

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ईरान के भारी पड़ने पर अमेरिका ने तमाम देशों को साथ जोड़कर युद्ध विराम के लिए दबाव डालना आरम्भ कर दिया। फिर जुलाई 1988 में यह युद्ध समाप्त हो गया। इस युद्ध का अंत बहुत भयानक हुआ। दोनों देशों के अनुमानित 20 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी थीं, जिसमें सेना के साथ बड़ी तादाद में नागरिक भी शामिल हैं। लाखों लोग घायल हो गए थे। कईयों को पलायन भी करना पड़ा था। कुल मिलकर यह इतिहास में एक भयानक युद्ध के रूप में याद किया जाता है। इस पूरी तबाही कारण एक मात्र देश था, वह था अमेरिका।

अमेरिका अपने निजी स्वार्थ के कारण ईरान पहुँचा और वहाँ जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार को गिराकर अपना मुखौटा बैठा देता है और ईरान पर परोक्ष रूप से अमेरिका शासन करने लगता है। जब ईरान की जनता इस मुखौटे को नहीं स्वीकार्य करती और आंदोलन पर उतर आती है तो अमेरिकी मुखौटा शाह पहेलवी ईरान से भाग खड़ा होता है। जब अमेरिका का मुखौटा ईरान से भाग खड़ा होता है तब अमेरिका एक नई साज़िश को जन्म देता है और सद्दाम के पीछे खड़े होकर ईरान पर हमला कर देता है। यही अमेरिका जब देखता है कि सद्दाम अब मुखौटा रूपी कार्य नहीं करता तो यही अमेरिका सद्दाम के ऊपर मुकदमा चलाकर सद्दाम को भी फाँसी के फंदे पर चढ़ा देता है।

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अतः इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए एक बात स्पष्ट हो जाती है कि अमेरिका की नीति क्या है…? अमेरिका कि नीति यह है कि विश्व के समूचे तेल भण्डार पर उसका ही कब्जा होना चाहिए। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि कुवैत, इराक, सऊदी अरब तथा सीरिया जैसे तमाम तेल भण्डारों पर अमेरिका का सीधा दखल है। सत्य यह है कि अमेरिका अपनी नीति के तहत पूरे विश्व को अपना गुलाम बनाना चाहता है। अमेरिकी नीति से पूरे विश्व को बड़ा खतरा है। अमेरिका किसी भी देश को कभी भी अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करने की योजना पर कार्य कर सकता है। इसलिए समूचे विश्व को अमेरिका की नीति से सावधान रहने की आवश्यकता है।

वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीति विश्लेषक सज्जाद हैदर की रिपोर्ट.

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