लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की इतनी करारी पराजय के बाद मध्यप्रदेश में स्वाभाविक तौर पर लोगों की नजरें इन सवालों के उत्तर पर टिक गई हैं कि क्या कमलनाथ मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की पहल करेंगे? क्या प्रदेश के मंत्रीगण पद छोड़कर नैतिकता दिखाएंगे? मुख्यमंत्री बदला तो नया कौन होगा? मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार की उम्र अब कितने दिन और? कांग्रेस और सरकार को समर्थन दे रहे विधायकों में भगदड़ मचने में अभी और कितना वक्त लगेगा?
सरकार गिरी तो सरकार में इसबार भाजपा का नेतृत्व पुनः शिवराज सिंह चौहान ही करेंगे कि अमित शाह की तर्ज पर बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय को तरक्की मिलेगी? अगले चौबीस घंटे बहस के केंद्र में यही मुद्दे होंगे। लेकिन शुरुआत करते हैं ऐसे नतीजे क्यों से..!
नतीजों पर नजर डालें तो आजादी के बाद हुए किसी भी चुनाव में मध्यप्रदेश में कांग्रेस को इतनी विकट और शर्मनाक पराजय नहीं झेलनी पड़ी। छिंदवाड़ा से नकुलनाथ ने पिता कमलनाथ की नाक न रखी होती तो प्रदेश से लोकसभा में कांग्रेस का कोई नामलेवा न होता।
प्रदेश में कांग्रेस के सभी क्षत्रप हार गए लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार ने देश को चौंकाया। साठ के दशक से प्रदेश और केंद्र की राजनीति में सक्रिय ग्वालियर का सिंधिया परिवार इससे पहले तक अजेयरहा। राजमाता सिंधिया ने चुनावी राजनीति की शुरूआत की तो कांग्रेस से थी लेकिन 67 में प्रदेश सरकार का सत्ता पलट करने के बाद से वे जनसंघ और प्रकारांतर में भाजपा की स्टालवार्ट बनी रहीं।
माधवराव सिंधिया के विजयरथ को अटलबिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज भी नहीं रोक पाए। नरसिंह राव ने जब कांग्रेस की टिकट से वंचित कर दिया था तब ऐसे गाढे वक्त में भी वे अपनी क्षेत्रीय पार्टी विकास कांग्रेस के पताके के नीचे जीत गए। बड़े सिंधिया हारे तो सिर्फ अपनी मौत से। ज्योतिरादित्य को इस चुनाव में अपने चुनावी भविष्य का अनुमान लग चुका था इसलिए आखिरी चरण का प्रचार अभियान छोड़कर तबीयत हरी करने अमेरिका चले गए।
लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर खामोश समंदर के भीतर ‘अरिहंत पनडुब्बी’ से छोड़ी जाने वाली विध्वंसक टारपीडो की तरह चली। मध्यप्रदेश क्या देश के बड़े-बड़े क्षत्रपों की नौकाएं डूब गई और वे डूबते उतराते भौचक हैं। भोपाल में दिग्विजय सिंह बनाम साध्वी प्रज्ञा का मुकाबला देश नहीं दुनिया भर की मीडिया के लिए कौतूहल का विषय था।
दिग्विजय सिंह का हारना उसी दिन से शुरू हो गया था जब उनके समर्थन में साधुओं ने लाल मिर्च के हवन का टोटका किया। फिर अमित शाह के समानांतर दिग्विजय सिंह जब साधुओं की भगवा मंडली के साथ भोपाल की गलियों में निकले तो उनका यह कृत्य मुझ जैसे सतही समझ वाले पत्रकार को भी डूबते को तिनके का सहारा सा लगा।
दिग्विजय की नैतिक ताकत जो थी वह गुफा मंदिर जैसे कई धर्मस्थलों में समा गई। वे मुसलमानों की नजर में भी संदेही हो गए। न राम के हो पाए और न रहीम के रह गए। अलबत्ता भोपाल से उनकी उम्मीदवारी को जिन ज्योतिरादित्य और कमलनाथ की साजिश प्रचारित किया गया वे भी चुनावी खेल मैदान में धूलधूसरित हो गए, दिग्गी समर्थकों के लिए यह मन बहलाने की बात हो सकती है।
मुख्यमंत्री रहने के बाद जिन मुश्किलों में उनके बेटे नकुलनाथ छिंदवाड़ा से लगभग 34 हजार मतों और वे खुद विधानसभा उपचुनाव 22 हजार मतों से जीते तो यह किसी हार से कम दर्दनाक नहीं। मध्यप्रदेश के वोटरों ने क्षत्रपों की वंशवादी राजनीति पर पूर्णविराम लगा दिया। अर्जुन सिंह जो कभी राष्ट्रीय नेतृत्व के विकल्प माने जाते थे उनके पुत्र अजय सिंह राहुल सीधी से एक गृहणी रीति पाठक से इतने करारे मतों से हारे कि अब उन्हें यह कहने का हौंसला ही नहीं बचा कि ईवीएम के जरिए उन्हें फिर हरा दिया गया।
रीती पाठक पिछले बार से भी अधिक वोटों से जीतीं। चुरहट से चंद्रप्रताप तिवारी के पौत्र शरदेंदु के मुकाबले अच्छे खासे मतों से विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी अजय सिंह समर्थक मानने को तैय्यार नहीं थे कि राहुल भैय्या चुनाव हार चुके हैं।
तब समर्थकों ने प्रचारित किया था कि छह विधायक उनके लिए त्याग पत्र लिए खड़े हैं। विधानसभा की हार के बाद भी अजय सिंह जनादेश के प्रति विनयवत् नहीँ हुए। रीती पाठक सीधी में ऐसी घेरी गई जैसे चक्रव्यूह में अभिमन्यु। भाजपा के कई विधायक और नेता भी छुपे और खुले तौर पर दूसरे पाले पर खड़े थे। यहां रीती की ओर से अंतिम समय तक मोर्चा सँभाला राजेंद्र शुक्ल ने।
पता नहीं क्यों विंध्य की राजनीतिक तासीर लोग नहीं समझ पाते। सन् 52 में कांग्रेस की प्रचंड आँधी और नेहरू के तिलस्म को सीधी के सादे लोगों ने नकार कर सभी सीटें सोशलिस्ट की झोली में डाल दीं थी। तब सीधी और शहडोल लोकसभा की डुअल कांस्टीटुएंसी थी, कांग्रेस दोनों में हारी। और फिर ये वही विंध्य है जहाँ बहुजन समाज पार्टी के गुमनाम से उम्मीदवारों ने ‘कुँवर’ अर्जुन सिंह और ‘श्रीयुत’ श्रीनिवास तिवारी की चुनावी राजनीति को फायनल टच दिया। इसके बाद से दोनों नेता उबर नहीं पाए।
इस बार वोटरों ने ‘चुरहट’ और ‘अमहिया’ घराने के राजनीतिक वंशधरों को भी घर बैठा दिया। रीवा से तिवारी के पौत्र सिद्धार्थ उम्मीदवार थे। मध्यप्रदेश के वोटरों ने जिस तरह दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के क्षत्रपों को निमोनिया से कँपा दिया था उसी तरह इस मई के लोकसभा चुनाव में जो बचे थे उनकी भी लू उतार दी। कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव, रामनिवास रावत, मीनाक्षी नटराजन, विवेक तन्खा सभी अपने-अपने इलाके में खेत रहे।
दरअसल पूरे चुनाव में मुकाबला प्रत्याशियों के बीच नहीं बल्कि मौन और मुखर मतदाताओं के बीच था। मुखर वोटर सोशल मीडिया में मोदी का मजाक बना रहे थे। और कांग्रेस-कम्युनिस्ट पतन के बाद बेरोजगार हुए बौद्धिक इसका माहौल बना रहे थे। मोदी के खिलाफ पूरी कमान रिजेक्टेड बौद्धिकों, विदेशी चंदे से एनजीओ चलाने वाले एक्टविस्टों ने सँभाल रखी थी। प्रियंका के श्रीमुख से दिनकर की कविताएं झर रहीं थी तो राहुल की वाणी से जावेद अख्तर जैसे कलाकारों से मिली टिप्स।
चौकीदार चोर है..जुमले के साथ राहुल गांधी जनता के बीच रामलीला के मसखरे से बनकर रह गए। शुरूआती दिनों में जरूर राफेल विवाद जनता को चौकाने वाला था। लेकिन पार्लियामेंट और सुप्रीम कोर्ट से भ्रम का जाला साफ कर दिए जाने के बाद जनता समझने लगी कि चौकीदार चोर है का नारा सिर्फ़ मसखरी के सिवाय और कुछ नहीं। आखिरी चरण आते-आते तक इस जुमले का रिवर्स एफेक्ट होना शुरू हुआ कांग्रेस को उसका ही अस्त्र रिबाउंड होकर हताहत कर गया।
इस चुनाव के बीच मैं जबलपुर, भोपाल, इंदौर की सड़कों में ओला, ऊबर कैब और किराए के बाइक राइडरों के साथ घूमा। इनके ड्राइवर उस कामनमैन का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां इंडिया नहीं भारत की आत्मा बसती है। लगभग सभी मोदी के विकास के फार्मूले से ज्यादा इस बात से अभिभूत दिखे कि मोदी भारत के यह पहले महान नेता है जिन्होंने आम लोगों को भी स्वाभिमान से जीना सिखाया। विश्व में देश की धाक जमाई।
सबकी जुबान पर कश्मीर के आतंक और पाकिस्तान को सबक सिखाने की बातें गौरवपूर्ण तरीके से निकलीं। मतलब शहरी मतदाताओं को राष्ट्रवाद भा गया। ग्रामीण मतदाताओं तक पैठ बनाने का फार्मूला भाजपा ने कांग्रेस से ही चुराया था। जिस मनरेगा ने यूपीए टू को लौटाया था उसी में भाजपा ने अपनी सफलता के सूत्र खोज लिए। गरीब वर्ग के लिए प्रधानमंत्री आवास, उज्ज्वला, और आयुष्मान जैसी योजनाओं ने मोदी को हतमिताई बना दिया।
अपने मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने धैर्य से काम नहीं लिया। सत्ता मिलने के बाद उसके मंत्री नेताओं का आचरण ऐसा था जैसे कि भुखमरों को मिठाई की थाल मिल गई हो। ‘बदलापुर पालटिक्स’ ने नजरों से गिराया। पोस्टल वैलेट से निकले वोटो ने यह बताया कि अधिकारी, कर्मचारी गाजरघास नहीं है कि जब भी मन पड़े फावड़े लेकर पिल पड़िए। तबादलों की झड़ी और पोस्टिंग के सौदों ने कमलनाथ सरकार पर गहरा दाग लगाया। सत्तादल के लोग पूरे चुनाव में अधिकारी कर्मचारी वर्ग को धमकाते से दिखे। छह महीने की सरकार में धैर्य कम, अनाड़ी पन ज्यादा दिखा।
और अब आखिरी में शुरुआती सवालों के मेरे अनुमानित उत्तर। कमलनाथ जी साख वाले मुख्यमंत्री हैं। उनमें कारपोरेटी ठसक है, लिहाजा वे अपनी छवि बचाने के लिए नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे सकते हैं। लेकिन यह इस्तीफा राजभवन नहीं बल्कि 10 जनपथ को देंगे। सब मंत्री एक जैसे फेल्योर साबित हुए, लिहाजा अब इस्तीफे का कोई अर्थ नहीं, जो आलाकमान कहेगा वही शिरोधार्य।
मंत्रीपद से वंचित कांग्रेस और उसके समर्थक विधायकों में भगदड़ मचेगी, लेकिन कम से कम पखवाड़े भर का वक्त लगेगा। गोट फिट होने और सौदेबाज़ी तय होने के बाद यह शुरू होगा। कमलनाथ सरकार फिलहाल किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है। उबरने में चौबीस से अड़तालीस घंटे लगेंगे, और हाँ ईवीएम का रोना अब शायद ही कोई रोए। कमलनाथ सरकार उमर पूरी नहीं कर पाएगी यह तो सुनिश्चित है। अब रही भाजपा की बात तो शिवराजसिंह चौहान संभवतः केंद्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
मध्यप्रदेश में कैलाश विजयवर्गीय उसी तरह स्थापित होंगे जैसे की पिछले चुनाव में यूपी फतह के बाद केंद्र में अमित शाह।
और अंत में
इस चुनाव में गालियां भाजपा को नहीं आरएसएस को मिलीं, सो आप चाहें तो इस देशव्यापी जीत का तीन चौथाई क्रेडिट उसे दे सकते हैं..।
लेखक जयराम शुक्ल मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- 8225812813