अभिषेक पाराशर-
हिंदी में चाहे वह टीवी मीडिया हो या डिजिटल मीडिया, युद्ध जैसी स्थिति में उसे हिस्टिरिया का दौरा पड़ जाता है और ये तो हद है कि कुछ चैनल हर मामले में उन्हीं कुछ गिने चुने एंकर्स को बिठा देते हैं. क्या दीवालियापन है भाई?
प्रतिभा का इतना अकाल है क्या? वहीं सवाल, जो प्राइम टाइम के फालतू बहस में पूछे जाते हैं और वहीं अंदाज. बेहूदा रिपोर्टिंग की इंतहा हो गई है यार. कोफ्त होती है देखकर. ऐसा लगता है कि कोई व्यवस्था नहीं है, कोई संपादकीय निर्णय नहीं है. बस चूंकि ये दो चेहरे मुझे पसंद हैं, इसलिए हर मामले में एंकरिंग इनसे ही कराई जाएगी. चाहे वह गोबर ही क्यों न कर दें!
अभी कुछ दिनों पहले ही मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इसी वजह से मशहूर एंकर को फटकार लगाई थी और ऐसे कई मामले हैं, जहां विशेषज्ञता के अभाव की वजह से आप न तो ढंग से सवाल पूछ पाते हैं, न ही विशेषज्ञता का लाभ उठा पाते हैं और सब कुछ बस हूं हां फू फां तक रह जाता है. हिंदी भाषी दर्शकों की स्थिति बहुत दयनीय है भाई.
अमृत तिवारी-
मैं पिछले तीन चार दिन से CNN aur France TV ko देख रहा हूं. इनकी रिपोर्टिंग और anchoring तमाम रिसोर्सेज के बीच बड़ी ही रेशनल है. फोबिया जैसा बिलकुल नहीं है. ऑथेंटिक और जमीनी आंकलन है.
लेकिन, गलती से भारतीय चैनल देखा तो लगा की अब युद्ध भारत के पिछवाड़े में घुस जायेगा. ज्ञान के नाम पर एंकर और vo PKG बेहूदा कहानियों की तरह हैं…
मनीष चंद्र मिश्रा-
मैं aljazeera फॉलो कर रहा हूं। थोड़ी देर एबीपी के फेसबुक पेज पर गया था। शर्मनाक स्थिति है भारतीय मीडिया की। लानत है…