प्रवीण झा-
यूरोप ने एक सदी में इतने युद्ध देख लिए कि इसने स्वयं को अजीब सपाट तरह से लचीला बना लिया है। सांस्कृतिक रूप से दुनिया का सबसे बिखरा हुआ महादेश एक अलहदा रूप ले लेता है। शहर में आए यूक्रेन के शरणार्थियों के लिए एक यूक्रेनियाई मित्र पुराने कपड़े, खिलौने इकट्ठे कर रही थी। हम भी दे आए। वह अपनी माँ और दादी को पोलैंड से ले आयी है। मेरे नगर ने 178 शरणार्थी का कोटा रखा है, तीस आ गए हैं। इसी तरह कुल एक लाख का ज़िम्मा नॉर्वे के कंधे पर है। अन्य देशों ने भी बाँट रखे हैं।
इस मध्य फिनलैंड ने कहा है कि वह नाटो में नहीं है, तो उनकी अपनी सेना तैयारी में है। आखिर उनकी रूस से बहुत लंबी सीमा है। उन्होंने नॉर्वे से कहा है कि वह स्कैंडिनेविया की रक्षा के लिए उन्हें भी ट्रेन कर देगी, नाटो के भरोसे न रहें।
इन खबरों के बीच एक क़िस्सा पढ़ा। द्वितीय विश्वयुद के बाद जब जर्मनी नेस्तनाबूद हो गया, तो वहाँ के लोगों पर यह ज़िम्मेदारी आयी कि इसे वापस खड़ा किया जाए। अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग सड़क-निर्माण से लेकर मलबे साफ़ करने में लग गए। स्त्री-पुरुष सभी। उनकी समस्या थी कि उनके पास बहुत छोटे बच्चों के लिए न वक्त था, न सुविधाएँ। जो बच्चे काम कर सकते थे, रख लिए गए। छोटे बच्चे दूसरे देशों में भेज दिए।
एक चार साल की जर्मन लड़की, जो युद्ध से पहले सम्पन्न घर से थी, उसे नॉर्वे के युगल ने पाला। जर्मनी में स्थिति सुधरने के बाद भी उसके माता-पिता लेने नहीं आए। तीस साल बाद उसके पति ने कहा कि चलो! तुम्हारी माँ से मिल कर आते हैं (पिता मर चुके थे)। वह गयी, माँ ने स्वागत किया, एक बड़ी बहन मिली। अखबार में रियूनियन की मुस्कुराती तस्वीर छपी। उसने पूछा कि आप कभी मिलने क्यों नहीं आयी?
उनकी माँ ने कहा- उस वक्त देश को वापस खड़ा करना ज़रूरी था, तो हम सबने यह क़ुर्बानी दी। वहीं तुम्हें जिन लोगों ने पाला, मैं उनका अधिकार भी नहीं छीनना चाहती थी। तुम नॉर्वे में बड़ी हुई, वहीं की हो गयी। आज तुम मिलने आयी हो, अच्छा लगा। लेकिन, मेरे आँसू कब के सूख गए, मोह कब का टूट गया। पत्थर बन गयी। युद्ध न हुआ होता, तो मैं भी शायद इंसान ही रहती।
लेखक नार्वे में मेडिकल फ़ील्ड से जुड़े हैं.