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31 जनवरी के अखबारों का रिव्यू : टाइम्स ऑफ इंडिया की यह खबर हेमंत सोरेन को बदनाम करने के लिए नहीं है तो और क्या है?

संजय कुमार सिंह

‘झारखंड के मुख्यमंत्री दिल्ली में नहीं, रांची में मिले’ सात में से पांच अखबारों की सबसे बड़ी ‘खबर’ है!

आज मेरे सात में से पांच अखबारों में हेमंत सोरेन रांची में मिले – ‘खबर’ लीड है। इंडियन एक्सप्रेस में चंडीगढ़ मेयर चुनाव में भाजपा की जीत की खबर लीड है। द टेलीग्राफ में भाजपा नेता की हत्या के आरोप में केरल में पीएफआई के 15 लोगों को मौत की सजा लीड है। यहां हेमंत सोरेन रांची में मिले – खबर पहले पन्ने पर नहीं है। बाकी अखबारों में हेमंत की खबर लीड है, चंडीगढ़ की खबर भी पहले पन्ने पर है। दोनों खबरों के मामले में द टेलीग्राफ अपवाद है लेकिन वह कोलकाता का अखबार है। रांची उसके लिए चंडीगढ़ की तरह है। वैसे भी चंडीगढ़ में भाजपा की विशेष राजनीति या कुल 36 वोट में एक ही समूह के आठ वोट अमान्य कर दिये जाने का उदाहरण शायद ही कहीं मिले और गिनती में अंतर साफ होने के बावजूद भाजपा की जीत बेशक असामान्य है और उसके सत्ता में होने के कारण बड़ी खबर है। इसके अलावा, आज इमरान खान को दस साल की सजा, भारतीय नौसेना द्वारा समुद्री लुटेरों को पकड़ना और पाकिस्तानी नाविकों को बचाने जैसी खबरों के साथ, सांसदों का निलंबन वापस लेने और हेमंत सोरेन की पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी (नवोदय टाइम्स) जैसी खबरें भी थीं।

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इसके बावजूद दिल्ली के अखबारों में झारखंड के मुख्यमंत्री, हेमंत सोरेन के कथित तौर पर लापता या फरार होने की खबर से ज्यादा महत्व उनके रांची में ‘मिलने’ की खबर को दिया गया है। झारखंड के मुख्यमंत्री को रांची में ही होना था, दिल्ली में उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश (सरकारी खर्चे पर) संसाधनों की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। बेशक यह सब करके खबर बनाई गई और यह केंद्र में बैठी भाजपा सरकार द्वारा विपक्षी नेताओं को बदनाम करने का भाग लगती है। तथ्य यह भी है कि राहुल गांधी की न्याय यात्रा झारखंड पहुंचने वाली है और वहां कई दिनों की लंबी यात्रा है। दूसरी ओर यह भी याद कर लिया जाना चाहिये कि छत्तीसगढ़ में चुनाव थे तो ईडी का कार्यक्षेत्र भी वही हो गया था। अब अगर झारखंड के मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करना ही हो तो दिल्ली में घेरना क्यों जरूरी था और क्या जल्दी थी?

जल्दी पर याद आया कि पूर्व गृह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को गिरफ्तार किया गया था तो सुरक्षा कर्मी गेट खुलने का इंतजार नहीं कर पाये और दीवार फांद कर घुस गये थे। आम अपराधी के ठिकाने से भागने का डर हो तो इस तरह कूदने की जल्दबाजी समझ में आती है पर यहां ऐसा कुछ नहीं था। तथ्य यह है कि पी चिदंबरम 105 दिन जेल में रहे और उस मामले में क्या हुआ अभी तक पता नहीं है। 78 साल के चिदंबरम के खिलाफ मामला 2007 का है, सितंबर 2019 तक उनके खिलाफ आरोपों की कोई रिपोर्ट दाखिल नहीं हुई थी और 105 दिन जेल में रहने के बाद वे 4 दिसंबर 2019 को रिहा हुए। उसके बाद चार साल से ज्यादा हो गये मामले की जांच पूरी नहीं हुई। बदनामी और ‘सजा’ हो चुकी है। अब इस मामले में चिदंबरम तो कहेंगे नहीं कि मेरे खिलाफ कार्रवाई करो पर सरकार की तब की जल्दबाजी का क्या हुआ और क्यों नहीं माना जाये कि सरकार का मकसद पी चिदंबरम और उनके समर्थकों को डराना-धमकाना और बदनाम करना था। और संभव है कि यही मनीष सिसोदिया के साथ किया जा रहा हो तथा हेमंत के मामले में मकसद यही हो। लालू याव भी जेल रह आये पर उनसे पूछताछ जारी है क्योंकि वे चिदंबरम से ज्यादा सक्रिय या नुकसानदेह हैं। इस बारे में संबंधित लोग तो नहीं पूछेंगे। पूछना मीडिया को ही है।

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खबर यही नहीं है कि हेमंत सोरेन रांची में मिले खबर यह भी है कि हेमंत बिस्व सरमा को भारत का सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री कहे जाने के मामले में या कहने वाले के खिलाफ कार्रवाई शुरू होने की खबर नहीं है। सभी चोरों का नाम मोदी क्यों होता है, पूछने पर एफआईआर होती है, अधिकतम सजा हो चुकी है लेकिन सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री कहने पर किसी तरफ से कोई कार्रवाई नहीं होना भी खबर नहीं है? पी चिदंबरम के खिलाफ आईएनएक्स मामले का क्या हुआ तथा गमले में गोभी लगाकर कमाने के प्रचार का सत्य क्या है –खबर नहीं है? कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की गारंटी खुलेआम बेईमानी की गांरटी है। कम से कम इस मामले में तो बेईमानी हो ही रही है कि जांच किसकी होगी और कब होगी। जांच के नाम पर मीडिया में लीक और उनका प्रचार तथा जमानत मिलने के बाद मामला ठंडे बस्ते में चले जाने की राजनीति और साजिश तो साफ दिख रही है। फिर भी मीडिया लोगों को बदनाम करने में ईडी – सीबीआई के सहयोग पर सवाल उठाने की बजाय ताली बजा रहा है। यही नहीं, खबरों की प्रस्तुति ऐसी है कि कई सवालों के जवाब नहीं मिलते या पहले की सूचना के मुकाबले नए सवाल खड़े करते हैं और उनका जवाब नहीं मिलता है।

उदाहरण के लिए, टाइम्स ऑफ इंडिया ने कल (30 जनवरी) को हेमंत के लापता होने की खबर के साथ ही बताया था कि उन्होंने ईमेल से सूचना दी है कि वे 31 जनवरी को (आज) मिल सकते हैं। ऐसे में वे लापता कहां थे और अखबार ने ही खबर दी थी कि ई मेल में उन्होंने ईडी से कहा था कि वे दोपहर बाद रांची में अपने घर पर एक बजे पूछताछ के लिए उपलब्ध होंगे। तो यह आज लीड कैसे है? यही नहीं, सोरेन ने लिखा था और टाइम्स ऑफ इंडिया ने ही छापा था 31 जनवरी को या उससे पहले बयान (पूछताछ करने) लेने पर ईडी का जोर उसपर संदेह पैदा करता है और राजनीतिक एजंडा से प्रेरित लगता है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने ही पहले खबर दी थी कि 20 जनवरी को उनसे पूछताछ में अप्रासंगिक सवाल पूछे गये थे और इनका संबंध चुनाव आयोग में दाखिल शपथ पत्र में मौजूद अशुद्धताओं से हैं। ऐसे में 30 जनवरी को वे मुख्यमंत्री रहते हुए फरार या लापता क्यों और कैसे हो सकते थे? कुल मिलाकर यह राई को पहाड़ बनाने का मामला लगता है।

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यही नहीं, केंद्र सरकार के इशारे पर ईडी उन्हें परेशान और बदनाम करने में लगा लगता है। ऐसे में मुख्यमंत्री के अधिकारों की बात कौन करेगा? टाइम्स ऑफ इंडिया अगर एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को परेशान करने के संभावित मामले में निष्पक्ष नहीं रह सकता है तो आम आदमी के मामले में उससे क्या उम्मीद की जाये। इसके बावजूद टाइम्स ऑफ इंडिया ने आज फिर तमाम अखबारों की तरह सोरेन के रांची में मिलने की खबर को लीड बनाया है जबकि, जैसा मैंने पहले लिखा है यह कल की छपी खबर है। फिर भी लीड बनाने के संपादकीय विवेक को मैं चुनौती नहीं दे रहा हूं पर मेरा सवाल कल, आज और पहले छपी खबरों के संदर्भ में आज छपी सूचनाओं से है। अखबार ने कल लिखा था कि ईडी ने दिल्ली सीमा पर चौकसी, पड़ोसी राज्यों को सतर्क करने जैसे काम किये थे। फिर भी सोरन सड़क मार्ग से 1300 किलोमीटर दूर रांची पहुंच गये। यह कैसे हुआ होगा और सतर्क पुलिस किस काम की? एक मुख्यमंत्री को अगर नहीं रोका या ढूंढ़ा जा सका तो आम आदमी या अपराधी के मामले में क्या होगा – यह सब खबर नहीं है?

इसके बावजूद आज सूचना है कि उनके घर में 36 लाख मिले (कल मिले थे खबर आज है) बीएमडब्ल्यू कार जब्त की। खबर बताती है कि यह कथित रूप से कोलकाता की एक शेल कंपनी की है। जाहिर है खबर पुष्ट नहीं है। इससे न तो गाड़ी के स्वामित्व की पुष्टि का पता चलता है और न शेल कंपनी के शेल कंपनी होने का। और संबंधित शेल कंपनी अगर चल रही है उसकी संपत्ति है तो लाखों शेल कंपनियां बद करने के दावे के संदर्भ में इस तथ्य को कैसे देखा जाये। खबर कहती है कि नकद सोरेन के कमरे में मिला इसलिए उनका है पर जब वे थे ही नहीं तो क्यों मान लिया जाये कि कमरे में मिला है। क्या टाइम्स ऑफ इंडिया गवाह है और नहीं है तो बंद हो चुकी शेल कंपनी, उसके 36 लाख रुपये नकद, डिजिटल लेन-देन के इतने प्रचार के बावजूद, एक ऐसे व्यक्ति के घर होना जिसके खिलाफ जांच चल रही है और ईडी वालों पर दूसरे राज्यों में रिश्वत लेने के आरोप हैं, उनकी गिरफ्तारी के मामले हैं, ऐसी एक सरकार को हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रयास की खबर है तब आपकी खबर को पूर्ण माना जाये?

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ठीक है कि जो छपा है सब खबर है और प्रस्तुति संपादकीय विवेक व आजादी का मामला है लेकिन उसपर सवाल तो हैं और जवाब कौन देगा। सवाल टाइम्स ऑफ इंडिया से है क्योंकि सरकार अगर किसी को परेशान कर रही है तो सरकार से सवाल करने की हैसियत टाइम्स ऑफ इंडिया की होनी चाहिये, उसका यह काम भी है और वह अपना काम करता नहीं दिख रहा है। दूसरी ओर सरकार ऐसी नहीं है कि उसकी कुछ बुराइयां माफ कर दी जाये, उसे तानाशाही के अधिकार दे दिये जाएं। अखबार सरकार के खिलाफ अपना काम न करे, पर सरकार कि चापलूसी भी तो न करे। अगर टाइम्स ऑफ इंडिया विज्ञापनों का कारोबार ही करता है तब भी। विज्ञापनों के साथ जो खबरें (या विज्ञापन भी) हैं उससे संबंधित तथ्यों पर तो सवाल किये ही जा सकते हैं। जवाब यह नहीं हो सकता है कि सबने किया है। सबने किया है तो सवाल सबसे है। खासतौर से इसलिए कि मल्लिकार्जुन खरगे ने जब कहा कि मोदी जीत गये तो फिर चुनाव नहीं होंगे – खबर पहले पन्ने पर नहीं छपी है और उसी दिन चंडीगढ़ हो जाता है।

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