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उत्तर प्रदेश

यूपी में राज्य सूचना आयुक्त की कुर्सी की दौड़ में कौन-कौन पत्रकार और अफसर शामिल थे, पढ़ें उनका नाम

लखनऊ : जनसूचना अधिकार अधिनिमय (आरटीआई) ने जहां आम आदमी को राहत दी है,वहीं कई लोग सरकार से जानकारी हासिल करने के लिये इसे मजबूत हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। आरटीआई का पालन हो।जनता को मांगी गई सूचनाएं समय पर मिलें इसकी जिममेदारी तमाम सरकारी और अर्धसरकारी विभागों में  जनसूचना अधिकारियों के कंधों पर है। अगर कोई अधिकारी सूचना देने में आनाकानी करता है तो राज्य सूचना आयुक्तों का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सूचना आयुक्त जानकारी न देने वाले अधिकारी को तलब कर सकता है और जरूरत पड़े तो जुर्माना भी लगा सकता है। यही वजह है सूचना आयुक्तों का पद काफी महत्वपूर्ण हो गया है।

<p>लखनऊ : जनसूचना अधिकार अधिनिमय (आरटीआई) ने जहां आम आदमी को राहत दी है,वहीं कई लोग सरकार से जानकारी हासिल करने के लिये इसे मजबूत हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। आरटीआई का पालन हो।जनता को मांगी गई सूचनाएं समय पर मिलें इसकी जिममेदारी तमाम सरकारी और अर्धसरकारी विभागों में  जनसूचना अधिकारियों के कंधों पर है। अगर कोई अधिकारी सूचना देने में आनाकानी करता है तो राज्य सूचना आयुक्तों का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सूचना आयुक्त जानकारी न देने वाले अधिकारी को तलब कर सकता है और जरूरत पड़े तो जुर्माना भी लगा सकता है। यही वजह है सूचना आयुक्तों का पद काफी महत्वपूर्ण हो गया है।</p>

लखनऊ : जनसूचना अधिकार अधिनिमय (आरटीआई) ने जहां आम आदमी को राहत दी है,वहीं कई लोग सरकार से जानकारी हासिल करने के लिये इसे मजबूत हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। आरटीआई का पालन हो।जनता को मांगी गई सूचनाएं समय पर मिलें इसकी जिममेदारी तमाम सरकारी और अर्धसरकारी विभागों में  जनसूचना अधिकारियों के कंधों पर है। अगर कोई अधिकारी सूचना देने में आनाकानी करता है तो राज्य सूचना आयुक्तों का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सूचना आयुक्त जानकारी न देने वाले अधिकारी को तलब कर सकता है और जरूरत पड़े तो जुर्माना भी लगा सकता है। यही वजह है सूचना आयुक्तों का पद काफी महत्वपूर्ण हो गया है।

जब पद महत्वपूर्ण है तो इसके लिये दावेदारी भी खूब होती है। राज्य सूचना आयुक्त का पद पूरी तरह से गैर राजनैतिक होने की वजह से उत्तर प्रदेश के पत्रकारों, अधिवक्ताओं, रिटायर्डमेंट की दहलीज पर खड़े आईएएस/पीसीएस अफसरों, विद्वान न्यायधीशों, न्यायिक अधिकारियों, समाजसेवियों में सूचना आयुक्त बनने का क्रेज लगातार बढ़ता जा रहा है। खासकर,पत्रकारों और न्याय के क्षेत्र से जुड़े लोगों की सूचना आयुक्त के पद पर विशेष रूचि देखने को मिल रही है। हाल में जब आठ सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिये आवेदन मांगे गये तो सबसे अधिक आवेदन पत्रकारों और अधिवक्ताओं के ही आये।

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बात सरकारी सेवा में कार्यरत् अधिकारियों की कि जाये तो इन्हें 60 साल मेें रिटायर्डमेंट और उसके बाद 65 वर्ष तक सूचना आयुक्त की कुर्सी काफी रास आती है। सूचना आयुक्तों के अधिकार, मोटा वेतन,सुख-सुविधाएं,लाल बत्ती  गाड़ी, राज्य के मुख्य सचिव के बराबर का दर्जा कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते कोई भी इस पद की ओर खिंचा चला आता हैं। भारत सरकार द्वारा सूचना आयुक्त बनने के लिये जो मापदंड तय किये गये हैं वह तो इस पद पर बैठने के लिये मायने रखता ही है, इसके अलावा सत्ता पक्ष (नेताओं) के आशीर्वाद की भी काफी आवश्यकता पड़ती है। यही वजह है सूचना आयुक्त बनने के मोह में फंसे कई दिग्गज आवेदक लखनऊ से लेकर दिल्ली तक राज दरबारों में दंडवत करते दिख जाते हैं।

एक अदद पद के लिये सिफारिशों का लम्बा दौर चलता है। कहा जाता है कि कुछ माह पूर्व आठ सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान एक पत्रकार की सिफारिश तो राष्ट्रपति भवन तक से की आई थी।यह और बात है कि उक्त पत्रकार महोदय को सफलता नहीं मिल पाई। सूत्र बताते हैं कि राजभवन से भी एक नाम आगे बढ़ाया गया था।इस नाम पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की अध्यक्षता वाली कमेटी ने मोहर नहीं लगाई। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में राजभवन की भूमिका भी कम मायने नहीं रखती है।इस बात का अहसास अबकी से राजभवन ने अखिलेश सरकार को सलीके से करा दिया। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा सूचना आयुक्तों के लिये संस्तुत नामों में अधिकांश नाम एक ही क्षेत्र(पत्रकार)के होने का हवाला देते हुए सरकार से पूछा भी कि अधिनिमय में वर्णित  कई क्षेत्रों  से किसी भी अभ्यार्थी का नाम सूचना आयुक्त के लिये संस्तुत नहीं किया गया है। राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का संज्ञान में लेते हुए कहा कि राज्य सरकार की सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की सिफारिश कोर्ट के आदेश के अनुरूप प्रतीत नहीं होते हैं। परंतु अखिलेश सरकार ने नहीं माना की सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को अनदेखा किया गया है।इस बात का खुलासा आरटीआई से मिली जानकारी से हुआ।

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खैर, बात सरकारी पक्ष की कि जाये तो किसी भी सरकार की यही मंशा रहती है कि मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त की कुर्सी पर ऐसे चेहरों को बैठाया जाये जो उनके प्रति वफादार हों।ताकि सरकार के लिये कोई खास मुश्किल न खड़ी हो। इसी लिये गत दिनों मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सपा के वफादार और मुलायम सिंह की गुड लिस्ट में शामिल एक नौकरशाह की बिना सोचे समझे ताजपोशी कर दी गई। सूचना आयुक्तों का पद ‘एक अनार सौ बीमार’ जैसा है।सैकड़ों आवेदन में से आठ-दस नाम तय करना आसान नहीं होत है। इसी वजह से  कई बार मामला अदालत तक पहुंच जाता है।

यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि राजनीति के मैदान में जो भी पत्रकार, अधिवक्ता, नौकरशाह, पुलिस अधिकारी, न्यायपालिका  से जुड़े विद्वान थोड़ा-बहुत दखल रखते हैं उनके लिये सूचना आयुक्त का पद हासिल करना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन जाता है। कोई स्वयं इस कुर्सी पर बैठाना चाहता है तो कोई दूसरे के लिये एक मुख्य सूचना आयुक्त और 11 सूचना आयुक्तों नियुक्ति करने की कमान जिस कमेटी के हाथ में है उसके मुखिया मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अलावा उनकी कैबिनेट के एक और मंत्री अहमद हसन तथा नेता विपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य हैं। इस कमेटी की सिफारिश पर ही राज्यपाल सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करते हैं।अबकी भी ऐसा ही हुआ। सूचना आयुक्त की नियुक्ति में एक पद को छोड़कर सभी पर सत्ता पक्ष की चली।एक पद पर नेता विपक्ष बसपा के स्वामी प्रसाद मौर्या की पंसद का ख्याल रखा गया।

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बात शुरूआती दौर की कि जाये तो तब इस पद पर नियुक्ति के लिये कुछ दर्जन ही आवेदन आया करते थे, लेकिन समय के साथ आवेदनों का आंकड़ा सैकड़ों में पहुंच गया। इसी बार आठ सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के लिये 649 आवेदन आये। यह तब था जबकि आवेदन पत्र के साथ दो हजार रूपये का ड्राफ्ट भी मांगा गया था। आवेदन शुल्क से ही सरकार के खजाने में 12,88,000 रुपया आ गया। जिन सौ से अधिक पत्रकारों ने आवेदन किया उसमें प्रमुख रूप से लखनऊ से राम दत्त त्रिपाठी, न्यूज एक्सप्रेस के प्रभारी डा0योगेश मिश्रा, शिवशंकर गोस्वामी, डा0नवीन कुमार, एपी दीवाना, समाचार संपादक आकाशवाणी उमाशंकर दुबे, टाइम्स आफ इंडिया के अरविंद सिंह बिष्ट, विजय शंकर शर्मा, सैय्यद हैदर अब्बास रिजवी, रजा रिजवी,चन्द्र किशोर शर्मा, मधु सूदन मणि त्रिपाठी, प्रभात रंजन दीन, अनुपमा मिश्रा, अब्दुल नसीर नासिर, अमिताभ त्रिवेदी, बसंत श्रीवास्तव, अरविंद शुक्ला, अभिलाष भट्ट, आलोक कुमार मिश्रा, राधे कृष्ण, रमेश चन्द्र, नरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, सुरेश यादव, संजय भटनागर, नीरज मिश्र,आलोक गुप्ता,विजय कांत दीक्षित, मुदित माथुर, शरद मिश्रा, स्वदेश कुमार, चन्द्र प्रकाश गुप्ता, मनोज चौधरी, शिखा शुक्ला, जमीर नकवी, दिलीप सिंह, अवधेश द्वीवेदी, मोहित दुबे, लोकेश त्रिपाठी, अखिलेश सक्सेना, अमित कुमार सिंह, दिल्ली से राजकेश्वर सिंह, अनुपम यादव, श्यामबाला राय, नोयडा से गजेन्द्र यादव, कानपुर के शिव शरण त्रिपाठी,कुलदीप सक्सेना, फतेहगढ़ से ओम किरण, गाजियाबाद से पंकज कुमार,पीलीभीत से रिशी राम श्रीवास्तव, मुरादाबाद से एम मुस्तगीन, मेरठ से मौहम्मद सलीम सैफी, वाराणसी से नवेंदु प्रकाश सिंह जैसे कई बड़े नाम शामिल थे। मुख्यमंत्री की अध्यक्षा वाली समिति ने इसमें से पत्रकार अरविंद सिंह बिष्ट, सैय्यद हैदर अब्बास रिजवी, स्वदेश कुमार, विजय शंकर शर्मा, राजकेश्वर सिंह और गजेन्द्र यादव के नाम पर सहमति जताई।

इसी प्रकार न्याय क्षेत्र से जुड़े लोगों के सूचना आयुक्त बनने की ख्वाहिश पर गौर किया जाये तो करीब ऐसे करीब दो दर्जन नाम सामने आये जो जिला जज के पद से रिटायर्ड हो चुके हैं या फिर होने वाले हैं।इसमें जो नाम प्रमुख हैं उसमें लखनऊ के राम प्रताप मिश्रा,उमेश चन्द्र,देवेन्द्र नाथ अग्रवाल,ओम प्रकाश सिन्हा,अलख नारायण, आगरा के सुनील कुमार गुप्ता और बृजेन्द्र मोहन सिन्हा,कानपुर के लक्ष्मी शंकर साहू,मेरठ के अशोक कुमार अग्रवाल,वाराणसी के श्याम बिहारी पांडेय,इलाहाबाद के प्रभु जी,नोयडा के राजीव कुमार त्रिपाठी,फैजाबाद के जय-जय राम पांडेय,मथुरा के राम औतार कौशिक,बस्ती के लियाकत अली,बुलंदशहर के जिला जज रियासत हुसैन  प्रमुख थे,लेकिन इनमें से किसी का चयन नहीं हुआ। बात अधिवक्ताओं की कि जाये तो दो सौ से अधिक वकीलों ने आवेदन किया।इसमें प्रतापगढ़ के विनोद कुमार,अलीगढ़ के सुभाष बाबू,सीतापुर के पंकज श्रीवास्तव,प्रतापगढ़ के शमीम खान,फैजाबाद के मो0 अतहर शम्सी,आबाद अहमद खाॅ,लखनऊ के शशि कांत,संजय राय,सचिन विश्वकर्मा,देवी बक्श सिंह चैहान,बसपा के एक कद्दावर नेता के करीबी एडवोकेट पारस नाथ गुप्ता,राकेश कुमार यादव,राम उग्रह शुक्ला,मो0 फुरकान,प्रमोद यादव,कमाल यूसुफ फातमी,बरेली के राजेश यादव,जौनपुर के अशोक सिंह, खीरी के रफी अहमद किदवई,इलाहाबाद के देवानंद त्रिपाठी,राजेश कुमार,प्रदीप मिश्रा,झांसी के प्रमोद कुमार,औरेया से राजेन्द्र सिंह भदौरिया आदि में से सिर्फ पारस नाथ गुप्ता,हाफिज उस्मान ही सूचना आयुक्त बन पाये।

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पत्रकारों और न्याय के क्षेत्र से जुड़े लोगों के बाद सबसे अधिक नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों में सूचना आयुक्त के पद को लेकर उतावलापन देखा गया। रिटायर्ड आईएएस डा0 आर सी श्रीवास्तव,अरूण कुमार बिट्, प्रेम नारायण, राजेन्द्र कुमार तिवारी, अजय अग्रवाल, अजय कुमार उपाध्याय, शिव कुमार अंजोर, आरएन सिंह, अतुल कुमार, मधुसूदन रायजादा, रेखा गुप्ता, शशिकांत शर्मा, तारकेश्वर नाथ सिंह, अनीता चटर्जी, जेपी शर्मा, टीपी पाठक,अशोक द्वीक्षित, अरविंद कुमार द्विवेदी, आईएएस चक्रपाणि, सुशील कुमार (कमिश्नर बस्ती), आईजी अमिताभ ठाकुर, रिटायर्ड आईपीएस अमरीश चन्द्र शर्मा,अतुल, राम भरोसे, चन्द्र पाल शर्मा,मुमताज अहमद आदि का नाम आवेदकों की लिस्ट में प्रमुख था। इसमें से कोई भी सूचना आयुक्त नहीं बन सका।

यह सच्च है कि जन सूचना अधिकार अधिनियम-2005(आरटीआई) ने जनता को बहुत ताकत प्रदान की है।इसमे माध्यम से सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों की मनमानी पर काफी हद तक रोक लगी है इसके साथ-साथ सरकारी काम में पारर्दिशता भी आई है,लेकिन अफसोस की बात यह है कि करीब दस वर्षो के बाद भी आरटीआई के माध्यम से सरकारी फाइलों की जानकारी हासिल करने में  जनता को  पसीना आ जाता है।कभी-कभी तो यह जानलेवा भी साबित हो जाता है।जन सूचना अधिकारी  जानकारी देने में हिलाहवाली करते हैं तो कई बार ऐसा भी होता है जिसके बारे में जानकारी मांगी जाती है उसके बारे में जानकारी देने की बजाये जिसके बारे में जानकारी मांगी जा रही है उसे ही एलर्ट कर दिया जाता है। 

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30 जून 2014 से खाली चल रहा मुख्य सूचना आयुक्त का पद हाल मेें ही आईएएस जावेद उस्मानी की नियुक्ति से भरा गया।हालांकि अभी वह कार्यभार न तो ग्रहण कर पाये हैं न उम्मीद है कि मार्च से पहले ग्रहण कर पायेंगे। उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद के चेयरमैन और कभी मुलायम सिंह यादव के काफी करीबी रहे जावेद उस्मानी को सपा के प्रति वफादारी का ईनाम मुख्य सूचना आयुक्त बना कर दिया गया।ऐसा करते समय यह भी नहीं सोचा गया कि उनका मार्च 2015 तक का कार्यकाल बाकी है।उस्मानी ने वीआरएस लेने का मन बना लिया था लेकिन एक पेंच फंसा होने के चलते उस्मानी मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यभार नहीं ग्रहण कर पा रहे हैं। दरअसल, उस्मानी का मार्च 2015 में रिटायडमेंट था।उन्होंनें मुख्य सूचना आयुक्त बनने के चक्कर में वीआरएस लेने का फैसला कर लिया,परंतु उनकी क्लीयरेंस फाइल पर केन्द्र की तरफ से अड़ंगा डाल दिया गया।हुआ यूं कि उस्मानी ने 2011 में स्टडी लीव पर जाते समय केन्द्र सरकार को एक बांड भरकर दिया था कि यदि वह 22 मार्च 2015 से पहले सरकारी नौकरी छोड़ंेगे तो वह 25 लाख रूपये सरकार को वापस कर देंगे।समस्या यह है कि या तो 22 मार्च तक उस्मानी इंतजार करें या फिर 25 लाख रूपया जाम कर दें।उस्मानी ने तीसरा विकल्प चुना और केन्द्र से यह रकम माफ करने के लिये कहा है,लेकिन केन्द्र ने इस पर फिलहाल कोई फैसला नहीं लिया है।यही वजह है मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर नियुक्ति के बाद भी यह पद खाली पड़ा है जिसके चलते आरटीआई का काम प्रभावित हो रहा है,लेकिन अखिलेश सरकार पर शायद इसका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ रहा है क्योंकि उनकी नजर में काम से अधिक वफादारी का मोल होता है।वर्तमान में सबसे वरिष्ठ सूचना आयुक्त होने के कारण श्रीमती खदीजातुल कुबेरा मुख्य सूचना आयुक्त का कार्य देख रहीं हैं।

लखनऊ से संजय कुमार सक्सेना की रिपोर्ट.

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