एक बार फिर ‘हिमालय दिवस’ आ गया है। इस अवसर पर एक बार फिर हिमालयी राज्यों समेत केन्द्र सरकार द्वारा हिमालयी सरोकारों को लेकर घड़ियाली आँसू बहाने, कभी पूरी न होने वाली घोषणाएं, कुछ इनाम-इकराम बाँटने, भाषण, सेमिनार आदि नाटकों सहित वह सबकुछ किया जायेगा, जिसका अमूमन हिमालयी पारिस्थितिकी, पर्यावरण, जल-जंगल-जमीन-जन तथा हिमालयी सभ्यताओं तथा संस्कृतियों से कोई धरातलीय सम्बंध नहीं होता।
थोड़ा पृष्ठभूमि में चलते हैं–भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में हिमालय के विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ जैसा एक निकाय बनाने का वादा किया था और प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी ने भी इस दिशा में दृढ़ता दिखाई थी। वह पहला अवसर था जब हिमालय सम्बंधी सभी प्रकार के सरोकारों को लेकर केन्द्र सरकार इतना गंभीर नजर आई। उन्होंने हिमालय क्षेत्र के अध्ययन के लिए विशेष टास्क फोर्स के गठन की घोषणा पहले ही कर दी थी और फिर अपनी भूटान यात्रा में उन्होंने वहाँ हिमालय केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव यह कहते हुए रखा कि हिमालय इस संपूर्ण क्षेत्र की साझी विरासत ही नहीं, यहाँ की सभ्यता, संस्कृति और जीवन का मुख्य आधार भी है। ग्लोबल वार्मिंग हो या पर्यावरण सम्बंधी अन्य संकट, इनका सर्वाधिक दुष्प्रभाव हिमालय पर पड़ता है। इन मुसीबतों से बचने के लिए सभी पड़ोसी देशों को समेकित प्रयास करने होंगे। जिसका लाभ भविष्य में पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र को मिलेगा। मोदी के इस विचार की भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ही नहीं, राजा जिग्मे खेसर वांगचुक ने भी काफी सराहना की थी।
भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने भी हिमालय के संरक्षण को, खास तौर से उत्तराखण्ड में गत वर्ष हुए जल-प्रलय के बाद, तत्काल कदम उठाने की जरूरत पर बल देते हुए मीडियाकर्मियों से कहा था कि ‘हिमालय का अस्तित्व उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल, भूटान और नेपाल के लिए अलग नहीं है बल्कि एक है। इस संपूर्ण क्षेत्र की एक भौगोलिक एवं पर्यावरणीय प्रणाली है। इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। हमें हिमालय की सुरक्षा के लिए एक सुदृढ़ व्यवस्था बनाने की जरूरत है और संसद द्वारा हर साल इसके लिए धन का आवंटन किया जाना चाहिए। हमें ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ जैसा एक समर्पित निकाय गठित करना चाहिए जो हिमालय में विकास सम्बंधी गतिविधियों और पर्यावरण संरक्षण के कामों की निगरानी करेगा। साथ ही यहाँ किस प्रकार की तकनीक प्रयोग में लायी जाये, किस तरह के मकान और सड़कें बनाई जायें, इसका सुझाव भी देगा।’
उधर, केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी ने भी राज्यों के उच्च शिक्षा सचिवों के साथ बैठक में केन्द्र सरकार द्वारा जल्दी ही हिमालय सम्बंधी अध्ययन के लिए उत्तराखण्ड में अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा करते हुए कहा था कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से भारी नुकसान झेल रहे हिमालय को लेकर दीर्घकालिक तैयारी के तौर पर सरकार ने इस विवि. को शुरू करने की योजना बना ली है। इसमें श्रेष्ठतम अध्यापकों की नियुक्ति के लिए भारत ही नहीं बल्कि विदेशों से भी विशेषज्ञों को शामिल किया जायेेगा और यहाँ न केवल पर्याप्त संख्या में हिमालय सम्बंधी विषयों के जानकार तैयार होंगे, बल्कि यहाँ उच्च स्तरीय शोध भी हो सकेगा। अभी इस तरह का कोई संस्थान देश में नहीं है। इसी के तहत केन्द्र सरकार हिमालयी तकनीक पर केन्द्रीय विवि. खोलने के साथ ही ‘हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन’ व ‘हिमालयन सस्टेनेबलिटी फंड’ भी शुरू करेगी।
यह था हिमालयी सरोकारों को लेकर मोदी सरकार के सत्तासीन होने के कुछ ही अंतराल के बाद का एक परिदृश्य। लेकिन थोड़े ही दिनों के भीतर सरकार ने कहा कि ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ जैसे किसी निकाय का गठन नहीं किया जायेगा। मुरली मनोहर जोशी को भाजपा ने राजपथ से बहिष्कृत करके नेपथ्य में धकेल राजनीति की भूलभुलैया में भटने को विवश कर दिया है। स्मृति जुबिन ईरानी की जुबानी उत्तराखण्ड में अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा अपनी यात्रा के किस पड़ाव तक पहुँची है, यह किसी को नहीं मालूम।
बहरहाल, गत वर्ष उत्तराखण्ड के केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के बाद अब कश्मीर में आई अभूतपूर्व बाढ़ ने एक बार फिर इस श्हिमालयी सत्यश् से रूबरू करा दिया है कि संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी तथा पर्यावरणीय असंतुलन का सीधा दुष्प्रभाव यहाँ के जल, जंगल, जमीन और जन-जीवन पर स्वाभाविक रूप से पड़ता है। इसके कमजोर होने से यहाँ साल-दर-साल जिस व्यापक स्तर पर विकराल प्राकृतिक आपदाओं से जन-धन की भारी हानि हो रही है, उससे साफ चेतावनी मिल रही है कि हिमालय संरक्षण के बिना इस क्षेत्र में ‘जीवन’ की कल्पना करना एक तरह से असंभव है। यदि विगत वर्षों में हमने संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण असंतुलन व ग्लोबल वार्मिग के स्पष्ट दिखाई दिये दुष्परिणामों की प्राकृतिक चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो आज हिमालय की इन विभीषिकाओं से बचा जा सकता था।
हिमालय क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप से निरंतर बढ़ रहे तीव्र पर्यावरणीय असंतुलन के कारण न सिर्फ हिमालयी ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघल रहे हैं, बल्कि यहाँ की अनेक वनस्पतियों तथा वन्य जीवों की प्रजातियां भी विलुप्त होती जा रही हैं। देश के योजनाकारों ने अब तक हिमालयी क्षेत्र के लिए विकास की जैसी योजनाएं बनाईं उनसे यहाँ विकास तो नहीं हुआ, अलबत्ता यहाँ के समग्र पर्यावरण को रौंद डाला गया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है चेरापूंजी, जहाँ अभी दो-तीन दशक पहले तक दुनिया में सर्वाधिक वर्षा होती थीय परंतु अब वहाँ सूखा पड़ने लगा है। पूरे हिमालयी क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगातार बढ़ती जा रही प्राकृतिक आपदाओं की विनाशलीला व्यापकता और विकरालता में हर साल नये-नये कीर्तिमान बनाती जा रही है। देश के योजनाकारों द्वारा की गई गलतियों तथा हवाई आकलनों का खमियाजा अब हिमालयी अंचलों के निवासियों को भुगतने पड़ रहे हैं। अतः यहाँ के जन-जीवन को सलाना बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए हिमालय को समग्रता में बचाया जाना बेहद जरूरी है।
उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षों में जिस तेजी से पलायन हुआ, उससे यहाँ के सैकड़ों गाँव निर्जन हो गये हैं। इस दुरूह समस्या के मूल में पहाड़ी क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, यातायात, संचार, चिकित्सा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से सम्बंधित सटीक नियोजन की कमी रही। पलायन का दूसरा महत्वपूर्ण और समूचे राष्ट्र के लिए संवेदनशील पक्ष है उत्तराखण्ड में नेपाल व चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे देश के सीमांत क्षेत्रों में अनेक गाँवों का जनशून्य हो जाना। खंडहरों के कब्रिस्तान बन चुके इन वीरान गाँवों में फिर से बहार लौटाने तथा सामरिक सुरक्षा को मजबूती देने के लिए भी हिमालय को लेकर दीर्घकालिक योजना बेहद जरूरी है। यदि हिमालयी सरोकारों के प्रति केंद्र सरकार कोई सकारात्मक पहल करे तो वास्तव में यह भोर की सुखद हवा के झौंके की तरह धरातल पर उतर कर भूल सुधार का उदाहरण बन सकती है और पलायन से निर्जन हो चुके यहाँ के गाँवों में फिर से रौनक लौटने के साथ ही सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा भी बेहतर ढंग से संभव हो सकेगी।
अब जबकि प्रधानमंत्री ने योजना आयोग को समाप्त कर चीन की तर्ज पर दीर्घकालिक योजनाऐं बनाने वाली किसी नई व्यवस्था की घोषणा की है, यह आशा की जानी चाहिए कि देश की आर्थिकी, पर्यावरण, जलवायु, सुरक्षा आदि के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए योजनाऐं बनाने तथा उनके क्रियान्वयन पर विशेष ध्यान दिया जायेगा। यदि वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय को लेकर कोई गंभीर धरातली प्रयास हुए तो राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर रहे उत्तराखण्ड सहित अन्य हिमालयी राज्यों के पर्वतीय क्षेत्रों में भी उम्मीद की नई आशा का संचार हो सकता है। यदि सचमुच में हिमालय पर राष्ट्रीय मिशन और हिमालय सस्टेनेबलिटी फंड शुरू किया जाये तो जलवायु परिवर्तन व प्रदूषण की वजह से हिमालय को हो रहे भारी नुकसान से बचा जा सकेगा। यह निश्चित तौर पर उत्तराखण्ड, हिमाचल व जम्मू-कश्मीर जैसे उत्तर हिमालयी क्षेत्र हों या असम, मेघालय, अरुणाचल व नागालैंड आदि जैसे पूर्वोत्तर के राज्य, सबके लिए केंद्र की इस तरह की पहल आशा की नई किरण से कम नहीं हो सकती।
यहाँ उल्लेखनीय है कि संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण असंतुलन व ग्लोबल वार्मिग के दुष्परिणाम विगत वर्षों में ही स्पष्ट दिखने लगे थे। इस सम्बंध में यदि केवल उत्तराखण्ड का ही उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। जहाँ औसतन 12 से 15 सेमी. सालाना की दर से ऊपर की ओर सिकुड़ते जा रहे हिमालयी ग्लेशियरों से निकलने वाली गंगा तथा यमुना जैसी सदानीरा नदियां होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश क्षेत्रों में पेयजल के लिए मचने वाला हाहाकार प्रतिवर्ष गहराता जा रहा है क्योंकि यहाँ के प्राकृतिक जलस्रोत लगातार सूखते जा रहे हैं और पीने के पानी की कमी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 1,100 मिली मीटर बारिश होती है और यदि जलस्रोतों के संवर्धन के लिए यहाँ रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली विकसित की जाती तो आज पेयजल की इतनी मारामारी न होती। समस्या से बेखबर सरकारी तंत्र वर्षा-जल का राज्य में समुचित उपयोग करने की ठोस प्रणाली अब तक विकसित नहीं कर पाया है। जब सरकारी स्तर पर वर्षा के पानी को रिचार्ज करने की ईमानदारी से कोशिशें ही नहीं की गईं तो धरातल पर उसके सुखद नतीजे कैसे आते। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड भी मानता है कि यदि उत्तराखण्ड में बारिश के पानी का 20 फीसद हिस्सा ही इस्तेमाल कर लिया जाये तो राज्य में पेयजल संकट जैसी कोई स्थिति ही पैदा न हो, परन्तु रेन वाटर हार्वेटिंग की दिशा में राज्य में अब तक के प्रयास नगण्य ही हैं।
अतः कहा जा सकता है कि हिमालय तथा हिमालयी सरोकारों की उपेक्षा के दुष्परिणाम आज भले ही केवल यहाँ के निवासियों को भोगने पड़ रहे हैं परन्तु वह दिन दूर नहीं जब सारा भारत इन्हें झेलने को विवश होगा। समग्रता में हिमालय संरक्षण को लेकर जितना अधिक विलंब होगा, उसका प्रतिशोध उतना ही व्यापक, विनाशकारी तथा दूरगामी परिणाम देने वाला होगा, इसमें कोई संशय नहीं। हिमालय के प्रतिशोध से बचाव हेतु ईमानदार तथा सशक्त प्रयास करने के बजाय कोरा ‘हिमालय दिवस’ मनाने के नाटक से आखीरकार किसी का भी भला होने वाला नहीं है, यह हमें जितना जल्दी समझ आ जाये उतना ही अच्छा होगा।
श्यामसिंह रावत
मो-9410517799