अखबारी दुनिया चरम विरोधाभासों की दुनिया है। ये विरोधाभास भी ऐसे हैं जिनमें कोई सामंजस्य या संतुलन आसानी से नहीं बनता। ये दुनिया ऐसी कतई नहीं है जिसे किसी सरलीकृत सूत्र से समझा जा सके। कोई भी बात कहने-बताने के लिए कई तरह के किंतु-परंतु का इस्तेमाल करना पड़ता है। किसी भी मीडियाकर्मी की पर्सनेलिटी में ऐसे दो चित्र होते हैं जो हमेशा एक-दूसरे से न केवल टकराते हैं, वरन उन्हें खारिज भी करते हैं।
पहला चित्र वो है जिसे बाहर की दुनिया देखती है-जिससे हर कोई भय खाता है, उसे दुनिया का ताकतवर प्राणी माना जाता है और हर कोई उससे बचकर निकलता है। उसका दूसरा चित्र वो है जो अखबार के भीतर दिखाई देता हैं-हमेशा डरा हुआ, तनावग्रस्त, बिखरी हुई कड़िया जोड़ता हुआ और सायास विमन्र दिखता हुआ। हर किसी को ऐसा होना ही पड़ता है, जो होना नहीं चाहते, उनकी नियती टूटकर बिखर जाना है। अब, सोचिये कितना मुश्किल होता होगा इस संतुलन को साध पाना। एक तरफ आप किसी मंत्री, अफसर या बदमाश को उसकी हैसियत याद दिलाते रहते हैं और दूसरी तरफ अपने संपादक या ऐसे ही किसी इंचार्जनुमा बॉस की सतत फटकार खाते रहते हैं।
बाहरी लोगों के लिए इस बात पर यकीन करना भी मुश्किल होगा कि औसतन हर दूसरा संपादक अपने मातहतों से गाली-गलौच की भाषा में बात करता है। जो थोड़े शालीन हैं, वे मनोवैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करते हैं। एक रोचक घटना का जिक्र करता हूं। (आज यह घटना मुझे रोचक लगती है, लेकिन जिस दिन हुई थी उस दिन मैंने खुद को बेहद अपमानित, पीड़ित, प्रताड़ित महसूस किया था।) अमर उजाला में करीब चार साल ऐसे बीते जब वहां शशि शेखर जी समूह संपादक थे। भले ही मैं जिलों में रिपोर्टिंग कर रहा था, लेकिन मै अखबारों के मुख्यालयों के चक्कर खूब लगाता था। मेरा अवचेतन मुझे यह बताता रहता था कि अगर एक बार मुख्यधारा से कट गए तो फिर नौकरी नहीं बच पाएगी और एक बार चली गई तो फिर दूसरी मिलना संभव नहीं होगा। आदतन ऐसे ही चक्कर काटते रहने के कारण मैं शशि शेखर जी के पूर्ववर्ती राजेश रपरिया जी के निकट था। शशि जी आए तो राजेश रपरिया जी का जाना तय हो गया।
शशि जी ने ज्वाइन करने के बाद अमर उजाला के सभी प्रमुख केंद्रों के रिपोर्टरों से मीटिंग्स का दौर शुरू किया। कई चरणों की मीटिंग के दौरान मेरी उनसे एक बार मेरठ, एक बार रुड़की और दो बार हरिद्वार में सीधी मुलाकात हुई। तभी पता चला कि उनके सामने कोई बात कहना या नया विचार रखना खतरे से खाली नहीं है। उनकी शैली यह है कि वे जो कहें, आप उसे न केवल स्वीकार करें, वरन उसे श्रेष्ठ विचार या पहल बताने का उद्घोष भी करें। शशि जी का भय मुझ पर इस कदर तारी हो गया कि मैंने अमर उजाला छोड़ने के लिए हाथ-पांव मारने शुरु कर दिए। ये 2002 की बात है। अमर उजाला में मेरे सीनियर रहे कुशल कोठियाल जी ने दैनिक जागरण ज्वाइन कर लिया था। उन दिनों दैनिक जागरण देहरादून में अशोक पांडेय जी संपादक हुआ करते थे। मैंने कोठियाल जी के जरिये पांडेय जी से बात की तो उन्होंने सकारात्मक संकेत दिए और एप्लीकेशन भेजने को कहा।
एप्लीकेशन भेजने के एक सप्ताह बाद अचानक प्रताप सोमवंशी जी का फोन आया कि शशि जी हरिद्वार आ रहे हैं, उनसे जाकर मिलो। मैं मन बनाकर गया था कि आज शायद नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। शशि जी अपने एक दोस्त के साथ आए थे। सुबह का वक्त था, उन्होंने मेरे लिए भी नाश्ता लाने को कहा।
फिर अचानक बोले-कितना पढ़े-लिखे हो ?
मैंने अपनी कागजी-योग्यता दोहराई।
उन्होंने एक लंबी सांस ली और बोले-अखबार छोड़कर क्या करोगे ?
मैंने कहा-टीचिंग में जाने की तैयारी कर रहा हूं।
शशि जी बोले, ऐसा तो नहीं किसी और अखबार में जा रहे हो ?
मैं, समझ गया कि शशि जी को सब पता है। मैंने कहा- अमर उजाला छोड़ रहा हूं, दैनिक जागरण में अप्लाई किया है।
मैं, उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था। दम साधकर बैठा हुआ था। एकदम निश्वास!
उन्होंने एक कागज निकाला और बोले- यही एप्लीकेशन भेजी थी जागरण में?
मैंने, सहमति में सिर हिलाया।
उन्होंने कहा- तुम्हें दिक्कत क्या है?
मैंने, दिक्कत गिनाई और उन्होंने हर एक का समाधान बताया। जो उन्होंने कहा, वो सब अगले छह महीने में पूरा हुआ, लेकिन उनका डर मेरे मन से कभी नहीं गया। मेरा डर इसलिए भी बढ़ गया जो आदमी दैनिक जागरण में भेजी गई मेरी एप्लीकेशन लिए बैठा हो, उसके हाथ कितने लंबे होंगे! मैंने दैनिक जागरण के संपादक अशोक पांडेय जी को शिकायत की कि एप्लीकेशन शशि जी के पास कैसे चली गई। वे मुस्करा दिए, कोई जवाब नहीं दिया, इतना जरूर कहा कि जागरण में तुम्हें नौकरी मिल जाएगी, जब चाहो, आ जाओ। लेकिन, इस एप्लीकेशन-कांड के बाद मेरी हिम्मत नहीं हुई दैनिक जागरण जाने के बारे में सोचने की।
शशि जी की मौजूदगी कभी आश्वस्ति का अहसास नहीं दिलाती थी। सार्वजनिक बैठकों में वे मुझे दुखी आत्मा कहते और मैं उस दिन की प्रत्याशा में दिन बिताता जब शशि जी के बाध्यकारी साये से आजाद हो जाउंगा और एक दिन हो भी गया, जिसका मैं अपनी पहली पोस्ट में जिक्र कर चुका हूं। हिन्दुस्तान ज्वाइन करने के बाद मुझे अपने सिकुड़े हुए पंख खोलने का सबसे अनुकूल अवसर मिला। मैं, इसका पहला श्रेय अविकल थपलियाल जी को देता हैं, जिन्हें हिन्दुस्तान का रास्ता दिखाया। दिनेश जुयाल जी के संपादकत्व में हिन्दुस्तान, देहरादून की टीम ने अपराजेय ताकत के साथ काम शुरु किया और कुछ ही समय में हम लोग उत्तराखंड में छा गए। रिपोर्टर होने का सुख पहली बार महसूस किया। मनीष ओली, अजीत राठी और मेरे नाम की बाइलाइन खबरों वाले होर्डिंग पूरे प्रदेश में लगे थे। लेकिन, ये सुख जल्द ही फिर परेशानी में तब्दील होने जा रहा था।
हिन्दुस्तान में आंतरिक उठापटक के क्रम में समूह-संपादक मृणाल पांडेय जी ने इस्तीफा दिया और फिर शशि जी समूह-संपादक बनकर आ गए। आप अंदाज लगा सकते हैं कि इस खबर को सुनकर मेरी क्या स्थिति हुई होगी! थोड़ी-सी राहत इस बात की थी कि दिनेश जी देहरादून में संपादक थे। ज्चाइनिंग के कुछ दिन बाद शशि जी का देहरादून दौरा तय हुआ। अखबार के साथी मुझ से पूछ रहे थे कि शशि जी के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहेगा ? मैं, अपनी झेंप मिटाने के लिए यही कह रहा था कि बहुत बढ़िया अनुभव रहेगा। मैंने उनके साथ काम किया है, वे मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, काम को बड़ा सम्मान देते हैं। शशि जी दून आए और डेस्क, सिटी रिपोर्टिंग, स्टेट ब्यूरो की मीटिंग ली। स्टेट ब्यूरो की मीटिंग में शशि जी के अलावा अविकल थपलियाल जी, अजीत राठी, मनीष ओली, मैं और दिनेश जुयाल जी मौजूद थे। आरंभ में परिचय का दौर शुरू हुआ। पहले अविकल जी, फिर अजित राठी, मनीष और………मैं, उम्मीद कर रहा था कि मेरा नंबर आने पर शशि जी कहेंगे कि अच्छा तो तुम यहां भी पकड़ में आ गए या ऐसा ही कुछ और………लेकिन, उन्होंने कुछ नहीं कहा। मेरा नंबर आने पर बोले, आप….?
मैं, सन्न था और अपना नाम बता रहा था। शशि जी ने मुझे पहचानने से मना कर दिया था। और खुद का परिचय कराने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था। मैं, काफी दिनों तक अखबार में दोस्तों के उपहास का पात्र बना रहा, क्योंकि मैं शशि जी से परिचय का दावा कर रहा था और वे मुझसे पूछ रहे थे कि आप…..?
…जारी…
सुशील उपाध्याय ने उपरोक्त संस्मरण फेसबुक पर लिखा है. सुशील ने लंबे समय तक कई अखबारों में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद अब शिक्षण का क्षेत्र अपना लिया है. वे इन दिनों सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में हरिद्वार के उत्तराखंड संस्कृत यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं. सुशील से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इसके पहले का पार्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए शीर्षकों पर क्लिक करें.
प्रताप सोमवंशी ने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा- जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें (किस्से अखबारों के : पार्ट-चार)
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मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)
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मीडिया का कामचोर आदमी भी सरकारी संस्था के सबसे कर्मठ व्यक्ति से अधिक काम करता है (किस्से अखबारों के – पार्ट दो)
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सूर्यकांत द्विवेदी संपादक के तौर पर मेरे साथ ऐसा बर्ताव करेंगे, ये समझ से परे था (किस्से अखबारों के – पार्ट एक)