‘सरबजीत’: एक अच्छे विषय पर बुरी फिल्म

Sushil Upadhyay : ज्यादातर अखबारों ने फिल्म ‘सरबजीत’ को पांच में से तीन स्टार दिए हैं। कल मेरे पास खाली वक्त था, फिल्म देख आया। इस फिल्म के बारे में कुछ बातों को लेकर जजमेंटल होने का मन कर रहा है। आखिर इस फिल्म को क्यों देखा जाए? खराब पंजाबी के लिए! बुरी उर्दू जबान के लिए! जो लोग पंजाबी नहीं जानते, उन्हें भी पता है कि ‘न’ को ‘ण’ में तब्दील करने से पंजाबी नहीं बन जाती। पाकिस्ताण, हिन्दुस्ताण, हमणे….जैसे शब्दों को बोलते हुए ऐश्वर्या राय निहायत नकली लगती हैं। उनकी तुलना में रणदीप और ऋचा के संवाद ज्यादा सधे हुए और भाषा का टोन पंजाबियों वाला हैं। ऐश्वर्या के ज्यादातर संवाद उपदेश की तरह लगते हैं। वे सरबजीत की बहन दलबीर के तौर पर किसी भी रूप में प्रभावी नहीं हैं।

जो लोग एनडीटीवी पर रवीश कुमार के मुरीद हैं, उन्हें एक बार राज्यसभा टीवी पर आरफा खानम शेरवानी को भी देखना चाहिए

Sushil Upadhyay : राज्यसभा टीवी, केरल, आरफा और हिंदी… कल रात साढ़े आठ बजे राज्यसभा टीवी पर आरफा खानम शेरवानी का कार्यक्रम देखकर मन खुश हो गया। जो लोग एनडीटीवी पर रवीश कुमार के मुरीद हैं, उन्हें एक बार राज्यसभा टीवी पर आरफा खानम शेरवानी को भी देखना चाहिए। खासतौर से, उनकी भाषा को। वे अपनी प्रस्तुति में रवीश कुमार की तुलना में ज्यादा संतुलित, शालीन और बौद्धिक नजर आती हैं। कल वे केरल में थीं, वहां से चुनावी मुहिम पर शो प्रस्तुत कर रही थीं। उनके पैनल के नाम देखकर एक पल के लिए मुझे लगा कि शायद आज का शो अंग्रेजी में होगा। पैनल में सीपीएम के वी. शिवदासन, आरएसएस के डॅा. के.सी. अजय कुमार, ईटीवी के प्रमोद राघवन, पत्रकार गिलवेस्टर असारी और केरल से प्रकाशित कांग्रेस के दैनिक अखबार के संपादक (जिनका नाम याद नहीं रहा) शामिल थे।

वामपंथी पत्रकारों की तगड़ी घेरेबंदी से भाजपाई सीएम खंडूड़ी को भागना पड़ गया था! (किस्से अखबारों के : पार्ट छह)

मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।

अप्लीकेशन भेजा दैनिक जागरण को, पहुंची शशि शेखर के पास (किस्से अखबारों के : पार्ट पांच)

अखबारी दुनिया चरम विरोधाभासों की दुनिया है। ये विरोधाभास भी ऐसे हैं जिनमें कोई सामंजस्य या संतुलन आसानी से नहीं बनता। ये दुनिया ऐसी कतई नहीं है जिसे किसी सरलीकृत सूत्र से समझा जा सके। कोई भी बात कहने-बताने के लिए कई तरह के किंतु-परंतु का इस्तेमाल करना पड़ता है। किसी भी मीडियाकर्मी की पर्सनेलिटी में ऐसे दो चित्र होते हैं जो हमेशा एक-दूसरे से न केवल टकराते हैं, वरन उन्हें खारिज भी करते हैं।

नेपाल भूकंप कवरेज : फुटेज दूसरों की और दावा एक्सक्लूसिव का

 

Sushil Upadhyay : नेपाल के भूकंप से दक्षिण एशिया अैर हिमालयी क्षेत्र में एक बार फिर गहरी चिंता का भाव पैदा हुआ है। भूकंप के बाद से मीडिया, खासतौर हिंदी टीवी चैनल जो कुछ और जिस अंदाज में परोस रहे हैं, उससे आम लोगों की चिंता में लगातार इजाफा हुआ है। तमाम बड़े, नामी और प्रसिद्ध चैनलों पर खबरों और भूकंप-विश्लेषण का एक खास पैटर्न नजर आ रहा है। इस पैटर्न की तुलना बड़ी आसानी से किसी फिल्म के साथ की जा सकती है। हरेक बुलेटिन या विश्लेषण में एक्टिंग, बैकब्राउंड म्यूजिक, प्रायोजक, स्टेज, ड्रामा और वर्चुअल एक्शन तक नजर आ रहा है। इन दिनों बुलेटिनों के साथ जो पार्श्व-संगीत सुनाई पड़ रहा है, वह पश्चिम की दुखांत फिल्मों से उठाया गया है।

हरिद्वार का सच : इतने सारे बड़े बड़े अरबपति खरबपति बाबा और ठोस काम एक भी नहीं… भगवा पहन कर बस हवा हवाई!

(सुशील उपाध्याय)

Sushil Upadhyay : मेरे ऐबी-मन की बेचैनी सुनिए…. मैं धर्मनगरी हरिद्वार में रहता हूं, लेकिन मेरे विचार इस शहर के चरित्र से भिन्न हैं। कोशिश करके देख ली, कोई जुड़ाव नहीं बन पाता। ये आचार्यों, धर्माचार्यों, शंकराचार्यों, परमाध्यक्षों, महंतों, श्रीमहंतों, मंडलेश्वरों, महामंडलेश्वरों, आचार्य महामंडलेश्वरों, मठाचार्यों, स्वामियों, महाराजों, संतों, श्रीसंतों, बाबाओं, नागाओं, उदासीनों, विरक्तों, साधुओं की नगरी है। आप चाहें तो इस सूची में भिखारियों को भी जोड़ सकते हैं। हर आठवें-पंद्रहवें दिन यह शहर किसी न किसी धार्मिक मेले, ठेले, सत्संग, धर्मोत्सव, जन्मोत्सव, वार्षिकोत्सव, अवतरण-दिवस और संत-महाप्रयाण का साक्षी बनता रहता है। सुबह-सवेरे शंख-ध्वनि, घंटे-घडि़यालों और यज्ञ-हवियों की धूम से एक ऐसा माहौल बनता है कि मेरे जैसा सांसारी अपनी अपात्रता पर जार-जार रोता है।

प्रताप सोमवंशी ने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा- जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें (किस्से अखबारों के : पार्ट-चार)

(सुशील उपाध्याय)


 

मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।

मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।