(सुशील उपाध्याय)
मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।
अयोध्या मंदिर आंदोलन के दौर में दक्षिणपंथी पत्रकारों की बड़ी संख्या मीडिया में आ गई थी और अखबारों का चरित्र बदलने का दौर आरंभ हो गया था। इसमें सरकारें भी भूमिका निभा रही थी। कांग्रेस सरकारें आमतौर से पत्रकारों को उनकी दुनिया में जीने के लिए छोड़कर रखती थी, लेकिन भाजपा का जोर उनके नियमन पर था। भाजपा इस काम को कर भी सकती थी, खासतौर से उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में। उत्तराखंड में भाजपा के सत्ता में आने पर भुवनचंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने तो उनके मीडिया सलाहकारों ने परोक्ष मीडिया नियमन पर जोर दिया। इसके लिए अचानक ही एक आधार भी मिल गया। पायनियर के पत्रकार प्रशांत राही को माआवादी गतिविधियों में शामिल होने के शक में गिरफ्तार किया गया और सरकारी तंत्र को यह प्रचार करने का अवसर प्राप्त हो गया कि माओवादी मीडिया में घुस आए हैं।
उस समय उत्तराखंड के पत्रकारों में यह आम चर्चा थी कि सरकार उन लोगों के बारे में छिपे तौर पर पड़ताल करा रही है जो किसी वामपंथी संगठन से जुड़े हैं या जुड़े हुए थे। किसी की पहचान के मामले में खबरों तक को आधार बनाया जाने लगा। उन दिनों अमर उजाला में अरविंद शेखर ने एक ब्रेकिंग-स्टोरी की जो ऑल एडिशन छपी थी। ये स्टोरी अतिवादी कम्युनिस्ट संगठनों के एकीकरण के जरिए अखिल भारतीय पार्टी बनाने को लेकर थी। तब एमसीसी के साथ दो अन्य संगठनों का विलय हुआ था। इस खबर के छपने के बाद अरविंद शेखर को काफी समय तक निशाने पर रखा गया। असल में सत्ता में बैठे लोग मीडियाकर्मी की लिखने की आजादी, विचार की आजादी को किसी पार्टी या दल विशेष के लिए कार्य करने के तौर पर परिभाषित कर रहे थे।
उन्हीं दिनों डीएवी पीजी कॉलेज में एक मामला हुआ। वामपंथी छात्र संगठनों ने मोर्चा बनाकर अभाविप के खिलाफ चुनाव लड़ा, चूंकि कॉलेज के प्राचार्य भाजपा के सक्रिय नेता थे इसलिए वे इस स्थिति से सहज नहीं थे। कॉलेज में छात्र राजनीति का संघर्ष वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच तय हो गया। उन दिनों जो खबरें छपी, उन्हें लेकर भाजपा के लोग सहज नहीं थे। अमर उजाला के तत्कालीन संपादक प्रताप सोमवंशी जी तक इस बारे में शिकायत पहुंची और उन्होंने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा कि जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें। जबकि, प्रताप सोमवंशी जी खुद प्रगतिशील विचार से जुड़े रहे थे। असल में, ये पूरा वक्त संतुलन के संघर्ष का वक्त था। अयोध्या आंदोलन के पहले तक अमर उजाला के भीतर कोई बड़ा दक्षिणपंथी समूह नहीं था, लेकिन इसके बाद के दस सालों में विचार का संतुलन गायब हुआ और दक्षिणपंथी झुकाव साफ-साफ दिखने लगा था। मालिकों ने अपने संपादकों के जरिये सरकारों से सीधे रिश्ते बना लिए थे और उत्तराखंड में अखबारों को बिजनेस देने वाली सबसे बड़ी संस्था भी सरकार ही थी, इसलिए सरकार के संकेतों के अनुरूप ही ज्यादातर चीजें तय हो रही थी।
धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ गई थी जब अखबार के पूरे चरित्र पर इस बात का फर्क पड़ना भी बंद हो गया था कि अखबार का संपादक कौन है। दूसरे अखबारों के साथ-साथ अमर उजाला भी एक प्रॉडक्ट बनने की ओर आगे बढ़ चला था। जैसा कि कुछ बरस पहले नवभारत टाम्इस के मालिक समीर जैन ने अपने अखबार को प्रॉक्डट घोषित किया था, उसी राह पर सब चल पड़े थे। लेकिन, इस बंद दुनिया के बाहर पत्रकारों की एक और दुनिया थी जो किसी मालिक की मोहताज नहीं थी और जिसका कोई सरकार नियमन नहीं कर सकती थी। इसका नजारा प्रशांत राही की गिरफ्तारी के कुछ समय बाद हुई मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी की प्रेस वार्ता में देखने को मिला। सरकार की उपलब्धियां गिनाने के लिए बुलाई गई इस पत्रकार वार्ता में पूरे प्रदेश के दिग्गज पत्रकार जमा थे। मुख्यमंत्री आवास में पत्रकार वार्ता शुरु हुई।
राजीव लोचन शाह ने सवाल दागा कि सरकार ने प्रदेश में किन किबातों को प्रतिबंधित किया है, खासतौर से वामपंथ से जुड़ी किताबों को लेकर। ताकि, पत्रकारों को पता चल सके कि उन्हें अपनी निजी लाइब्रेरी में कौन-सी किताबें रखनी हैं और कौन-सी नष्ट कर देनी हैं! मौके पर मौजूद मुख्य सचिव और डीजीपी ने ऐसी किसी सूची से इनकार किया। इसके बाद राजीव नयन बहुगुणा और जयसिंह रावत ने मोर्चा संभाल लिया। उनके साथ राजू गुसाईं और दूसरे प्रगतिशील पत्रकार भी जुड़ गए। कुछ ही देर में पत्रकार वार्ता का सिराजा बिखर गया और मुख्यमंत्री उठकर चले गए। उन दिनों प्रो. देवेंद्र भसीन सरकार की ओर से मीडिया को संभाल रहे थे, लेकिन विचार का मुद्दा का इतना बड़ा साबित हुआ कि प्रो. भसीन भी कुछ नहीं कर सके।
पत्रकार मोटे तौर पर दो गुटों पर बंट गए थे। एक वे जिन्हें सरकार संदिग्ध मान रही थी ओर दूसरे वे जो वक्त की नजाकत भांपते हुए सरकार के साथ हो लिए थे। सरकार के साथ खड़े होने वालों की संख्या काफी बड़ी थी। इनमें कुछ ऐसे नाम भी थे जो पूर्व में प्रगतिशील विचारों के वाहक माने जाते रहे थे। इस घटना के बाद पत्रकारों, खासतौर से नए पत्रकारों को इस बात का संबल जरूर मिला कि उनके पीछे सीनियर पत्रकार भी खड़े हैं। यूं भी विचार को सामने रखकर जब बात करते हैं तो उत्तराखंड काफी आगे खड़ा नजर आता है। भले ही राज्य में भाजपा की दो-दो सरकारें और चार-चार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लेकिन प्रदेश की पत्रकारिता में विचार का सवाल अपने स्थान पर मजबूती के साथ जिंदा रहा।
भाजपा की सरकारों के दौर में पत्रकारों के लिहाज से सबसे मुश्किल दौर वही था जब खंडूड़ी मुख्यमंत्री थे, रमेश पोखरियाल निशंक के आने के बाद एक हद तक स्थितियां बदली क्योंकि निशंक निजी पसंद-नापसंद के आधार पर व्यक्तियों का चयन करते थे, सापेक्षिक तौर पर वे उदार भी थे। ऐसा ही एक किस्सा अमर उजाला में मेरे इंटरव्यू के साथ भी जुड़ा हुआ है। उन दिनों राधेश्याम शुक्ल जी अमर उजाला मेरठ में संपादकीय पृष्ठ के इंचार्ज थे। वे घोर ब्राह्मणवादी और पुराने विचारों के वाहक थे। मैं उनके कक्ष में इंटरव्यू के लिए हाजिर हुआ, मुझे उनके वैचारिक धरातल के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। उस साल उत्तर कोरिया के राष्ट्र-प्रमुख किम इल सुंग की मौत हुई थी और कम्युनिस्ट पार्टी उनके बेटे किम इल जोंग को उत्तराधिकारी घोषित किया था। मुझ से पहला सवाल इसी बारे में पूछा गया। मेरे उत्तर से शुक्ल जी खिन्न हुए और मुझे पांच मिनट में ही चलता कर दिया। शुक्ल जी ने मुझे रिजेक्ट कर दिया था, लेकिन वक्त कुछ और करने जा रहा था।
फर्जी इंटरव्यू बाइलाइन और असली……
अगर आप ये सोचते हैं कि रिपोर्टर हमेशा ताजी खबर परोसते हैं तो आपका सोचना गलत है। खबरों की दुनिया में कई तरह के फर्जीवाड़े हैं। ऐसा नहीं है कि रिपोर्टर इरादतन या साजिशन खबरों में फर्जीवाड़ा करते हैं, असल में हर रोज ताजी खबर लाने का दबाव इतना अधिक होता है कि पुराने मामलों को कुछ अंतराल के बाद नए छौंक के साथ प्रस्तुत किया जाना मजबूरी बन जाता है। कई बार किसी नामी हस्ती से बातचीत और साक्षात्कार में पुरानी सामग्री को लपेट लिया जाता है। हिंदी अखबारों में हरेक रिपोर्टर से यह उम्मीद की जाती है वह अपनी बीट की दैनिंदन गतिविधियों, कार्यक्रमों के अलावा ऐसी खबर भी निकालकर लाएगा जो दूसरे अखबारों के किसी रिपोर्टर के पास न हो। ऐसे लोगों के इंटरव्यू भी कर लेगा जो आसानी से संभव न हों। ऐसा हर रोज संभव नहीं होता, लेकिन जब कोई ऐसा नहीं कर पाता तो कुछ समय बाद उसकी गिनती नाकारा रिपोर्टरों में होेने लगती है। नामी लोगों के छोटी जगहों पर आगमन के वक्त आमतौर से खबरों, साक्षात्कारों में काफी गोलमाल किया जाता है। पाठक को इस गोलमाल के बारे में कभी पता नहीं चलता।
मेरे पत्रकारीय-कर्म के दौरान भी ऐसे कई वाकये हैं, तब मैंने अपने संपादकों के साथ पाठकों को भी ठगा। वैसे, इसे ठगना भी नहीं कह सकते, जो कुछ मैंने खबर के तौर पर परोसा था वो सब कुछ पुराना था, केवल पैकेजिंग नई थी। साल 1999 में रुड़की आईआईटी के दीक्षांत समारोह में डा. एपीजे अब्दुल कलाम मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे। उस वक्त भारत परमाणु परीक्षण कर चुका था। डा. कलाम पूरे देश में हीरो बन चुके थे। वे प्रधानमंत्री के रक्षा सलाहकार भी थे। पोखरण परमाणु विस्फोट के बाद हर पत्रकार उनके इंटरव्यू के लिए लालायित रहता था, मेरे जैसे अदने पत्रकार के लिए तो उनके इंटरव्यू के बारे में सोचना भी प्रायः असंभव ही था। दीक्षांत समारोह के बाद डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने छात्रों से मिलने का निर्णय लिया। दीक्षांत भवन के पास बने पांडाल में उन्हें ले जाया गया, मैं भी धीरे से साथ हो लिया। छात्रों से संवाद शुरु हुआ। मैंने भी हिम्मत की-सर पोखरन वाज रियली फॉर पीस ? वे बोले, व्हाट डू यू थिंक अबाउट महाभारता ? अचानक उन्हें लगा कि मैं यूनिवर्सिटी का छात्र नहीं हूं। उन्हें मेरे अंग्रेजी के अज्ञान के कारण ऐसा लगा होगा। मैं चुप रहा, खिसियानी से हंसी हंस दी। उन्होंने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन कुछ ही देर सुरक्षा वाले और आईआईटी के अधिकारी मुझे पांडाल से बाहर कर चुके थे। मेरा काम हो गया था।
ऑफिस आकर मैंने डा. एपीजे अब्दुल कलाम के पूर्व में छपे इंटरव्यू इंटरनेट पर देखे, कुछ इधर से उठाया, कुछ उधर से और जो जवाब डा. कलाम ने दिया था वो अपने पास था ही, एक बढ़िया स्टोरी बन गई और पहले पेज पर नाम के साथ तन भी गई। पर, मन का चोर कभी-कभार परेशान करता रहा। मन के इस चोर से वर्ष 2004 में मुक्ति मिली। उस साल देहरादून में राष्ट्रीय नेहरू बाल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया गया था। डा. एपीजे अब्दुल कलाम इस कान्फ्रेंस में मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे। तब वे देश के राष्ट्रपति थे। मैं निर्धारित समय से पहले ही कवरेज स्थल पर पहुंच गया था। मेरे एक अधिकारी मित्र ने बताया था कि डा. कलाम राज्यों के पांडालों पर जाकर वहां के शिक्षकों छात्र-छात्राओं से बात करेंगे। मैं, झारखंड के पांडाल के किनारे पर जाकर खड़ा हो गया। मैंने, झारखंड के शिक्षकों को इस बात के लिए मना लिया कि वे मुझे अंदर की तरफ खड़ा होने दें ताकि मैं भी डा. कलाम से रूबरू हो सकूं। शिक्षकों ने मुझे इस उम्मीद में अंदर खड़ा कर लिया कि जब डा. कलाम अंग्रेजी में बच्चों से बात करें तो शायद मैं उनकी मदद कर सकूंगा। डा. कलाम आए, सभी से परिचय हुआ। अचानक डा. कलाम बच्चों से बात करने लगे और मैं हक्काबक्का रह गया। वजह, ये थी कि वे अच्छी-भली हिंदी में बात कर रहे थे। जबकि, इससे पहले उन्होंने सार्वजनिक जगहों पर शायद ही कभी हिंदी बोली हो। मैंने भी एक-दो साल पूछ लिए, उन्हांेने मेरे जिले और स्कूल का नाम पूछा तो इस बार मैंने सच बताया कि मैं शिक्षक नहीं, पत्रकार हूं।
आपसे बात करने की उम्मीद में शिक्षकों-छात्रों के साथ खड़ा हो गया। वे मुस्कुराये और मुझे अपने साथ ले लिया। हम लोग पूरा पांडाल साथ घूमे। उस दिन मैंने खुद को काफी बड़ा आदमी महसूस किया। मुझे लगा मेरा सीना इतना फूल गया है कि मेरी शर्ट फट जाएगी, मैंने अपने आकार को इतना बड़ा महसूस किया कि मेरे मरियल स्कूटर की सीट छोटी दिखने लगी। खैर, पूरे आवेग के साथ मैं अमर उजाला कार्यालय पहुंचा। संपादक प्रताप सोमवंशी जी को पूरा किस्सा बताया, उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना मुझे सुना। मैंने, पहले पेज के लिए दो स्टोरी की। एक टॉप-बॉक्स और दूसरी बॉटम। इस रिपोर्टिंग के लिए प्रतात जी मेरे साथी रिपोर्टरों हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रमोद कुमार को भेजना चाह रहे थे, लेकिन मेरी बीट का मामला होने के चलते उन्होंने मुझे कवरेज के लिए जाने दिया। मैंने, अपनी तरफ से बेहतरीन कवरेज की थी, लेकिन अगले दिन अखबार देखकर मन बुझ गया। मेरी किसी भी स्टोरी पर बाइलाइन नहीं दी गई थी। उस दिन सोचता रहा जिस फर्जी दिन ढंग से स्टोरी की थी, तब पहले पेज पर ऑल-एडिशन बाइलाइन मिली थी और जब ईमानदारी से काम किया तो संपादक ने नाम तक नहीं जाने दिया।
ऐसी घटनाएं पत्रकारों के साथ अक्सर होती रहती हैं। इन तथाकथित फर्जीवाड़े के पीछे नाम पाने और पहचान हासिल करने का दबाव भी रहता है। मैंने, ऐसा ही फर्जीवाड़ा एक बार दलाईलामा के साक्षात्कार को लेकर भी किया। वे भी एक समारोह में आईआईटी रुड़की आए थे। उनके व्याख्यान के बाद सभी श्रोताओं-दर्शकों को सवाल पूछने की अनुमति दी गई। पत्रकारों में से राष्ट्रीय सहारा के मुकेश यादव और मैंने सवाल पूछे। लेकिन, उन्होंने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। मेरा सवाल ये था कि जब चीन ने तिब्बत को सब कुछ दिया है तो वे चीन का विरोध क्यों करते हैं ? अलबत्ता, मुकेश यादव के सवाल का लंबा उत्तर दिया, मुकेश का सवाल दलाई लामा के पुनर्जन्म को लेकर था। कुछ प्रोफेसरों और छात्रों ने भी सवाल किए। मैंने, सारे उत्तरों को प्रश्न-उत्तर के रूप में संयोजित किया और अपने नाम से छपने भी भेज दिया। उस छपे हुए इंटरव्यू को आज भी देखता हूं तो अजीब-सा ग्लानि का भाव होता है। लेकिन, उस समारोह का एक सुखद अनुभव भी याद है। जैसे ही दलाई लामा मंच से नीचे उतरे तो मैं उनके गुजरने के रास्ते में खड़ा हो गया। अचानक मैंने उनका नाम लेकर पुकारा-महामहिम दलाई लामा। वे ठिठके और मैंने हाथ बढ़ाया और उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। वे मेरा हाथ पकड़े रहे और दूसरे लोगों से बात करते रहे, मैंने इतना स्नेहिल, सुदीप्त, तेजस्वी-ओजस्वी चेहरा इससे पहले नहीं देखा था। कभी दलाई लामा से इस तरह मिल पाने की बात तो कल्पनातीत थी। मैं, इस घटना के 15 साल बाद भी दलाई लामा के उस स्पर्श को प्रायः वैसा ही महसूस करता हूं। बाद के सालों में ऐसी और भी घटनाएं हुईं।
सुशील उपाध्याय ने उपरोक्त संस्मरण फेसबुक पर लिखा है. सुशील ने लंबे समय तक कई अखबारों में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद अब शिक्षण का क्षेत्र अपना लिया है. वे इन दिनों सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में हरिद्वार के उत्तराखंड संस्कृत यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं. सुशील से संपर्क gurujisushil@gmail.com के जरिए कर सकते हैं. इसके पहले का पार्ट पढ़ने के लिए इस शीर्षक पर क्लिक करें….