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मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।

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देहरादून में ज्यादातर रिपोर्टर अपनी मीटिंग्स के बाद प्रेस क्लब की राह पकड़ लेते थे। प्रेस क्लब में ज्यादातर सूचनाएं मिल जाती थी और दोपहर में क्लब की कैंटीन में दाल-भात खाने के बाद रिपोर्टर अपनी बीट में सूत्रों को टटोल लेते थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि कोई भी अधिकारी, मंत्री-संतरी सुबह-सुबह पत्रकारों का मुंह देखना नहीं चाहता। इसलिए पत्रकारों के लिए दोपहर बाद का वक्त ही सही होता था। मैं अपने साथी पत्रकारों के साथ प्रेस क्लब में था, तभी जितेंद्र अंथवाल का फोन आया और वो बताते रो पड़ा कि भुवनेश जखमोला की मौत हो गई है। कहां, कैसे, कब… मैं सन्न था और कुछ कहने-समझने की स्थिति में नहीं था।

इसके बाद तय हुआ कि कुछ पत्रकार ऋषिकेश जाएंगे और कुछ अमर उजाला कार्यालय जाकर संपादक से बात करेंगे। उस दिन भुवनेश एक दूसरे रिपोर्टर के साथ रायवाला में किसी घटना की रिपोर्टिंग के लिए जा रहा था। पीछे से किसी ट्रक ने टक्कर मार दी और मौके पर ही उसकी मौत हो गई। उस वक्त भुवनेश की शादी को दो साल भी नहीं हुए थे और उसकी पत्नी मधु कुछ महीने बाद मां बनने वाली थी। भुवनेश चला गया और अपने पीछे ऐसे सवाल छोड़ गया जिनका कोई सीधा उत्तर आज भी किसी के पास नहीं है। भुवनेश के अंतिम संस्कार के बाद जब हम लोग अमर उजाला पहुंचे तो उम्मीद कर रहे थे कि संस्थान की ओर से किसी मुआवजे की घोषणा होगा और भुवनेश की पत्नी को कंपनी में नौकरी दी जाएगी। लेकिन, वहां कुछ दूसरी सूचनाएं हमारा इंतजार कर रही थी। हम लोगों को बताया गया कि भुवनेश अमर उजाला का कर्मचारी नहीं था, वह शौकिया तौर पर काम कर रहा था, उसका काम भी अंशकालिक था, इसलिए अमर उजाला का उससे कोई वास्ता नहीं है! और न ही उस दिन वह किसी घटना की कवरेज के लिए एसाइन किया गया था।

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इससे भी बड़ी दुखद बात यह थी कि अमर उजाला ने भुवनेश की मौत पर जो खबर छापी, उसमें उसे एक पत्रकार बताया गया था, कहीं दूर तक इस बात का उल्लेख नहीं था कि उसका अमर उजाला से कोई रिश्ता था। जबकि, नंगा सच यही था कि रिपोर्टिंग के लिए जाते वक्त मारा गया था। हम लोग गुस्से में भरे बैठे थे। जितेंद्र अंथवाल, विपिन बनियाल, सुधाकर भट्ट, देवेंद्र नेगी और मैंने संपादक से मिलकर स्थिति साफ करने को कहा। संपादक एलएन शीतल जी ने कहा-आप लोग अपना काम करो, कंपनी नहीं मानती कि भुवनेश उनका कर्मचारी था। हम पांचों ठगे हुए-से खड़े थे, मैंने पर्सनल लेवल पर शीतल जी से कहा-सर, आप सच में कुछ नहीं कर पाएंगे। शीतल जी ने कहा-कर सकता तो तुम्हारी इतनी ना सुनता। हम लोग समझ गए थे कि दिल्ली-मेरठ के निर्देश यही थे कि भुवनेश से अमर उजाला का कोई रिश्ता नहीं था। मामला यही खत्म नहीं हुआ। जितेंद्र अंथवाल और विपिन बनियाल की पहल पर यह कोशिश शुरु हुई कि सभी कर्मचारी एक दिन का वेतन एकत्र करके भुवनेश की पत्नी की मदद करेंगे। लेकिन, इससे भी इनकार कर दिया गया। तत्कालीन महाप्रबंधक अनिल शर्मा ने कहा कि जब तक उच्च स्तर से आदेश नहीं होंगे, वे एक दिन का वेतन काटकर इकट्ठा करने का आदेश नहीं देंगे। जबकि, कर्मचारी लिखित में देने को तैयार था कि हमारा एक दिन का वेतन काटकर भुवनेश के परिवार को दिया जाए। पूर्व में हमेशा ऐसा होता आया था। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं हुआ।
हम सभी इस कदर आहत थे कि यदि हमारे पास कोई विकल्प होता तो हम उसी दिन अमर उजाला छोड़ देते। लेकिन, विकल्प नहीं था इसलिए मरघट के सन्नाटे जैसे माहौल में काम करते रहे। बाद में प्रेस क्लब के कुछ पदाधिकारियों ने और अमर उजाला के कुछ साथियों ने थोड़ी-सी राशि जुटाकर भुवनेश के परिवार को दी। इस मामले में प्रेस क्लब ने संवदेशील भूमिका निभाई, जबकि उस वक्त भुवनेश प्रेस क्लनब का सदस्य नहीं था, लेकिन तब भी उसके परिवार को आर्थिक मदद दिलाई गई।

मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था। जब 1994 में मैंने ज्वाइन किया था तो अमर उजाला एक परिवार था। उस वक्त हिंदी बेल्ट के क्षेत्रीय अखबारों में अकेला ऐसा अखबार था जो अपने कर्मचारियों की किसी भी हद तक जाकर मदद करता था। तब, किसी के पे-रोल पर होने या अंशकालिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। ऐसे तमाम किस्से थे, जब संस्थान ने किसी भी नियम से परे जाकर अपने लोगों की मदद की थी। एक घटना का साक्षी मैं भी हूं। 1996 में अमर उजाला मुजफ्फरनगर ऑफिस में राकेश नाम चपरासी था। उसे 1200 रुपये वेतन मिलता था। राकेश की मां गंभीर रूप से बीमार थी। मुजफ्फरनगर के तत्कालीन इंचार्ज जितेंद्र दीक्षित जी ने इस बारे में अतुल माहेश्वरी जी से बात की। उन दिनों किसी भी इंजार्ज का सीधे अतुल जी से बात करना सामान्य प्रैक्टिस थी, वे खुद भी सीधे ही बात करते थे, निजी तौर लिखे पत्रों का जवाब भी खुद ही देते थे। अतुल जी ने एकाउंट्स को निर्देश दे दिए कि राकेश की मां की ईलाज के खर्च का भुगतान अमर उजाला करेगा। उस एक साल में राकेश की मां पर 18-20 हजार रुपये खर्च हुए, सारा पैसा अमर उजाला ने दिया।

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उस कर्मचारी की मां के लिए पैसा दिया जो केवल 1200 रुपये महीना पाता था ओर वो पे-रोल पर भी नहीं था। ये मदद किसी नियम का मोहताज नहीं थी। लोग कम पैसे में काम करके भी परेशान नहीं थे, क्योंकि उन्हें पता था कि संकट के वक्त अमर उजाला साथ देगा। लेकिन, भुवनेश तक आते-आते अमर उजाला एक परिवार की बजाय एक कंपनी बन गया था। निजी रिश्ते प्रोफेशनल हो गए थे। कोई मरता है तो मरे इससे कंपनी को कोई लेना-देना नहीं था। मेरे लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। हर चीज को मैं अपने संदर्भ में समझने की कोशिश करता था। कल अगर मेरे साथ ऐसा हुआ तो…? इस तो का जवाब नहीं मिल पाया, क्योंकि मैं जिंदा हूं और उस दुनिया को छोड़कर आगे निकल आया। जब अमर उजाला में नौकरी शुरू की थी तो एक बड़े परिवार का हिस्सा बनने का सुख भी अनुभव किया था, लेकिन मेरठ से देहरादून के बीच के 11-12 साल के अंतराल में हर कोई एकाकी हो गया था, कंपनी-राज किसी के साथ नहीं था। कंपनी-राज में आपके स्किल के बदले पैसा दिया जाता था और रिश्ता खत्म हो जाता था। मैं न केवल यकीन के साथ, वरन दावे के साथ इस बात को कहता हूं कि अतीत बहुत आश्वस्तकारी था और वर्तमान परेशान करने वाला हो गया था।

भ्रम है, जब तक टिका रहे अच्छा है!

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अगर आपके पास फाइनेंशियल बैकअप है तो फिर पत्रकारिता जैसा कोई दूसरा पेशा नहीं हो सकता। यकीनन, इस पेशे की तुलना किसी दूसरे पेशे से करना मुश्किल है। जो ताकत, हैसियत और निर्णायक स्थिति यह पेशा देता है, किसी दूसरे पेशे में उसकी कल्पना भी मुश्किल है। यह बात अलग है कि इस ताकत का उपयोग आप खुद के लिए करना चाहते हैं या दूसरों के लिए। पर, जब भी इस ताकत का दूसरों के लिए उपयोग करेंगे तो इसके परिणाम चमत्कारिक होंगे और जब इसका उपयोग खुद के लिए करेंगे तो जवाब देना भारी पड़ जाएगा। खासतौर से यदि पत्रकार सरकार और सिस्टम से लाभ लेने लगे तो उसे दुर्दिन देखने ही पड़ते हैं-कभी नौकरी गंवाकर तो कभी प्रतिष्ठा दंाव पर लगाकर। सच यही है कि सरकार कोई भी रियायत या सुविधा मुफ्त में नहीं देती और पत्रकार खुद को कितना भी समझदार क्यों न समझें, नौकरशाह और राजनेताओं का गठजोड़ उनसे कहीं अधिक शातिर और मारक होता है। ऐसे तमाम किस्से हैं जिनसे पता चलता किस प्रकार पत्रकारों को नाथा गया।
पत्रकारों द्वारा सूचना विभाग से गाड़ी की सुविधा लेना सामान्य प्रैक्टिस में है। सूचना विभाग को पता होता है कि पत्रकार निजी उपयोग के लिए गाड़ी ले रहे हैं और पत्रकारों को तो पता होता ही है कि वे किसी कवरेज के लिए नहीं, वरन निजी यात्राओं के लिए फ्री में गाड़ी ले रहे हैं। जबकि, सूचना के कागजों में यही दर्ज होता है कि अमुक पत्रकार को, अमुक तिथि में कवरेज के लिए गाड़ी मुहैया कराई गई। कई बार खुद को याद भी नहीं रहता कि कब गाड़ी ली थी, लेकिन सिस्टम याद दिला देता है। साल 2013 में उत्तराखंड के सूचना विभाग ने एडवांस-डिसक्लोजर के तहत उन पत्रकारों की सूची जारी कर दी जिन्होंने बीते सालों में फ्री फंड में टैक्सी ली थी। कुछ पत्रकार तो ऐसे थे जिन्हें एक साल के भीतर टैक्सी के लिए 20 से 30 हजार तक का भुगतान किया गया था। कुछ ऐसे भी जिन्होंने तीन-चार के भीतर एक लाख तक का भुगतान टैक्सी के लिए कराया था।

इस सूची में छोटे-बड़े, दागी-धुले हुए, सभी तरह के पत्रकार शामिल थे। कुछ ऐसे थे, जो कई साल से मौज करते आ रहे थे। एक बार इसी तरह एक सरकारी विभाग से मैंने भी फ्री में गाड़ी ली थी। तब, परिवार के साथ अल्मोड़ा-नैनीताल गया था। हालांकि, उस विभाग ने कभी उन पत्रकारों की सूची जारी नहीं की, जो ऐसे लाभ उठाते रहे हैं। कभी वो विभाग सूची जारी करेगा तो गाड़ी की सेवा पाने वालों में मेरा नाम भी होगा। जिस दिन सूचना विभाग ने सूची जारी की, पत्रकारों के चेहरे उतरे हुए थे, लेकिन वे कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि एडवांस डिसक्लोजर एक कानूनसम्मत और अनिवार्य प्रक्रिया है। ये भविष्य के लिए एक उदाहरण भी था।

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दूसरा किस्सा भी ऐसा ही मजेदार है। मदन कौशिक उत्तराखंड में शिक्षा मंत्री थे। साल 2008 की बात है, तबादलों का सीजन चल रहा था। उत्तराखंड में शिक्षकों के तबादले पत्रकारों के लिए भी परीक्षा लेकर आते रहे हैं। कोई न कोई ऐसा परिचित, रिश्तेदार, दोस्त निकल ही आएगा जो बरसों से तबादले लिए भटक रहा है और आपके पास मदद के लिए आ पहुंचा है। आमतौर पर एक-दो तबादले पत्रकारों की सिफारिश पर हो भी जाते हैं। सत्ता और सिस्टम यही समझता है कि तबादले की सिफारिश के पीछे आपने कोई दक्षिणा प्राप्त की होगी, मलाई खाने का थोड़ा हक आपका भी बनता है, इसलिए एक-दो तबादला कर दिया जाए। मदन कौशिक ने पत्रकारों की सिफारिशों को पूरी तवज्जो दी और सीनियर, जूनियर श्रेणी में बांटकर पत्रकारों की क्रमशः दो और एक तबादला सिफारिश पर अमल किया गया। लेकिन, एक चालाकी की गई। उन सभी तबादलों के सामने इस बात का उल्लेख कर दिया गया कि कौन-सा तबादला किस पत्रकार की सिफारिश पर किया गया है। ये तमाम बातें सरकारी कागजों का हिस्सा बन गई। धीरे-धीरे करके सभी पत्रकारों को पता चल गया कि किसकी सिफारिश पर कौन-सा तबादला हुआ है। ये भी पता चल गया कि किन लोगों ने अपने परिजनों और किन्होंने गैरों के तबादले कराए थे। इसके बाद मदन कौशिक और पत्रकारांे के बीच खिंचवा का दौर चला, लेकिन एक मंत्री के तौर पर मदन कौशिक पत्रकारों की नस दबाए बैठे थे। ऐसे में, ईमानदारी के सवाल पर पत्रकारों के सामने खिसयाने के अलावा कुछ रह नहीं जाता है। इस तरह की चीजें वक्त के साथ समझ में आने लगती हैं और जिन्होंने बचकर रहना होता है वे भी बचे भी रहते हैं। लेकिन, कई बार कोई छोटी-सी चूक भी बरसों तक पीछा करती है।

बाहरी दुनिया में पत्रकारों के बारे में आम धारणा यही है कि ये लोग बहुत पैसा कमाते हैं, जहां भी हाथ रखते हैं वहां पैसों की बारिश होने लगती है। पर, सच्चाई इसके उलट होती है। अमर उजाला में मेरे एक सीनियर साथी थे, उमेश जोशी। सारी जिंदगी ईमानदारी से पत्रकारिता की। अमर उजाला से मिले वेतन से जैसे-तैसे परिवार चलता था। एक दिन अचानक नर्व संबंधी परेशानी हुई और उनके हाथों-पैरों ने काम करना बंद कर दिया। कुछ महीने जौलीग्रांट मेडिकल कॉलेज में भर्ती रहे। पत्रकार मित्रों ने थोड़ी-बहुत मदद, लेकिन इससे ने तो उनकी सेहत सुधर सकी और न ही परिवार चल सका। करीब दो साल तक ऐसे ही बुरे दिनों के बाद उमेश जोशी अपनी यात्रा पूरी कर गए। परिवार में पीछे तीन बच्चों की पढ़ाई और दो वक्त की रोटी का संकट आ गया। जोशी जी के परिवार ने बहुत बुरे दिन देखे। मुझ जैसे तमाम लोगों को अचानक ही अपने भविष्य का सच बेहद नंगे रूप में सामने दिखने लगा था।

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मेरे जैसे जो भी पत्रकार मेन स्ट्रीम मीडिया में लंबे समय तक रिपोर्टिंग में रहे हैं, उनके बारे में भी यही भ्रम रहता है कि इन्होंने काफी माल बटोरा हुआ है। लेकिन, सच्चाई सामने आती है तो यशपाल की पर्दा कहानी यथार्थ में घटित होती दिखती है। बाकी पत्रकारों के साथ मैं भी संदिग्धों की सूची में रहा हूं। आम धारणा के लिहाज से ऐसा स्वाभाविक भी है। जबकि, मेरे द्वारा बटोरे गए माल की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि साल 2013 में उत्तराखंड सरकार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें हरेक सरकारी कर्मचारी को अपनी संपत्ति की घोषणा करनी थी और इस बारे में शपथ-पत्र देना था। मेरे पुराने पत्रकार दोस्त और मौजूदा शिक्षक साथी उस शपथ-पत्र को लेकर उत्सुक थे, जिसमें मैं अपनी संपत्ति बताने वाला था। मैंने शपथ पत्र दिया-मेरे नाम कोई संपत्ति नहीं है, पत्नी, बच्चों के नाम भी नहीं है। मेरे भाई, उसकी पत्नी या बच्चे के नाम भी कोई चल-अचल संपत्ति नहीं है। कार नहीं है, किसी कंपनी का कोई शेयर नहीं हैं, किसी भी तरह का कोई निवेश नहीं किया हुआ है। दस हजार रूपये की एक एनएससी और पत्नी को अपने परिवार से मिले 20 ग्राम सोने के जेवर ही कुल जमा पूंजी हैं। दो बैंकों में खाते हैं, उनमें कुल जमा राशि 1300 रुपये है। गांव में एक पैतृक मकान है, जिसकी कीमत करीब दो लाख रुपये होगी। और हां, दोस्तों से हाथ उधार लिया गया 70 हजार का कर्ज भी है। उत्सुक लोगों की आंखे फटी हुई थी, क्योंकि जो भ्रम था वो सच्चाई के रूप में सामने आ गया था। कुल मिलाकर आर्थिक रूप से मैं भूखा-नंगा था, बहुत सारे आर्थिक-गड्ढे मेरे आगे-पीछे मौजूद थे। इस गुरबत की कहानी में कोई अतिश्योक्ति नहीं है और दो तिहाई पत्रकारों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। अनुकूलता इसी बात में है कि भ्रम जब तक बना रहे, अच्छा है!

…जारी…

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सुशील उपाध्याय ने उपरोक्त संस्मरण फेसबुक पर लिखा है. सुशील ने लंबे समय तक कई अखबारों में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद अब शिक्षण का क्षेत्र अपना लिया है. वे इन दिनों सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में हरिद्वार के उत्तराखंड संस्कृत यूनिवर्सिटी में कार्यरत हैं. सुशील से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इसके पहले का पार्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए शीर्षकों पर क्लिक करें.

सूर्यकांत द्विवेदी संपादक के तौर पर मेरे साथ ऐसा बर्ताव करेंगे, ये समझ से परे था (किस्से अखबारों के – पार्ट एक)

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मीडिया का कामचोर आदमी भी सरकारी संस्था के सबसे कर्मठ व्यक्ति से अधिक काम करता है (किस्से अखबारों के – पार्ट दो)

 

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