Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

आंवले का पेड़

ग्रामीण माहौल शायद भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम पोषक है। गांवों में होली खेलते और रंगों में सराबोर होते लोग खुश होते हैं, वे शर्मिंदा नहीं होते। उनकी जिंदगी की साधारण खुशियां उनकी पूंजी हैं। हम शहरवासियों के लिए जो गंवारूपन है, गांव में वह उत्सव है। बात तब की है जब मैं बहुत छोटा था। बचपन की धुंधली यादें कुरेदने पर याद आता है कि हमारी माताएं एक त्योहार मनाती थीं, जिसे शायद “आंवला नवमी” भी कहा जाता था। परंपरा के अनुसार उस वर्ष भी आंवला नवमी का यह त्योहार मनाने के लिए कस्बे की सारी औरतें खाना पकाने का सामान लेकर कस्बे से बाहर चली गयीं। कस्बे से बाहर सड़क के किनारे कुछ आंवले के पेड़ थे। सभी ने वहीं अड्डा जमाया और खाना पकाया तथा खाया।

हम बच्चों के लिए तो यह एक पिकनिक थी। हर साल आटा व बर्तन आदि लेकर हमारी माताएं कस्बे से बाहर उन आंवले के पेड़ों के नीचे जा विराजतीं, हम बच्चे खेलते, पेड़ों पर चढ़ते-उतरते व तरह-तरह की शरारतें करते। खाना-पीना होता और घर वापिस आ जाते। हर दूसरे त्योहार की तरह यह क्रम भी शाश्वत था।

आंवले के पेड़ों तले बैठकर भी हम वही सब खाते थे, जो हम प्रतिदिन खाया करते थे। बालसुलभ जिज्ञासावश मैंने मां से पूछा कि यदि हमने खाना ही खाना है तो इतना तामझाम लेकर घर से इतनी दूर आने की क्या आवश्यकता है? मेरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि एक बार जब प्रयाग में लगे कुंभ के मेले के प्रबंध का निरीक्षण करने निकले तत्कालीन प्रयाग नरेश अपने रथ पर मेला घूम रहे थे तो उनके साथ उनकी युवा पुत्री भी थी। राजकुमारी ने एक जगह एक सन्यासी को देखा, जिनके चेहरे पर अलौकिक तेज था। न जाने क्या हुआ कि राजकुमारी उन सन्यासी बाबा पर मोहित हो गयी और उनस शादी की जिद पकड़ बैठी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

राजा ने समझाने की बहुत कोशिश की पर वह ठहरी राजकुमारी, जिद क्यों छोड़ती? अंतत: राजा को ही हार माननी पड़ी। अब समस्या थी सन्यासी बाबा को मनाने की। अत: राजा ने उनसे अपनी पुत्री की इच्छा बताकर अपना जामाता बनने का अनुरोध किया। राजकुमारी की जिद देखकर अंतत: बाबा ने भी सन्यासी चोला छोड़कर गृहस्थ आश्रम में आने की बात मान ली। परंतु वर एवं वधु की उम्र में बहुत अंतर था। राजकुमारी की खिलती जवानी और प्रौढ़ सन्यासी का कोई मेल नहीं था। अत: शादी से पहले उन्होंने चालीस दिन आंवलों का सेवन किया। आंवलों के सेवन से उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गया और वे राजकुमारी को अपनाने के काबिल हो गये। उन सन्यासी बाबा ने दुनिया को आंवले के इस अनोखे गुण से परिचित कराया, इसलिए हम लोग हर वर्ष यह त्योहार मनाते हैं।

सच कहूं तो मां की यह कहानी सुनने के बाद उस त्योहार में मेरी रुचि ही समाप्त हो गयी। बच्चा होने के बावजूद मैं यह बात पचा नहीं पाया कि कोई ऋषि यदि आंवले खाकर दोबारा जवान हो गया तो हम आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खायें।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आखिर इस तरह हम अपना क्या भला कर सकते हैं? मुझे वह त्योहार, बेमानी लगने लगा। इससे मेरा किशोर मन विद्रोही हो गया और मैं परंपराओं का अनादर करने लगा। परिणामस्वरूप बचपन में जब घरों में सोफा नहीं होता था और खाना जमीन पर या चारपाई पर बैठ कर खाया जाता था, और कभी खाना खाते समय मेरी मां मुझे “अन्न देवता” को अपने से ऊँचे आसन पर रखने को कहतीं तो मैं अवज्ञापूर्ण ढंग से स्वयं ऊँचे पीढ़े पर बैठ जाता और खाने की थाली नीचे जमीन पर रख लेता। अपनी उस आदत की सजा मुझे इस रूप में मिली है कि आज मैं चाहकर भी अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं रख पाता और मुझे झुक कर खड़े होने और बैठने की आदत हो गयी है।

कुछ बड़ा होने पर जब मैंने मजाक उड़ाने के स्वर में यह बात अपने एक चाचा जी को बताई तो उन्होंने मुझे इस प्रथा का महत्व समझाते हुए बताया कि आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर खाना खाने की प्रथा की वजह से ही हम आंवले जैसे गुणकारी और पौष्टिक फल देने वाले पेड़ को सुरक्षित रख सकेंगे। उनकी इस व्याख्या ने मुझे मेरी गलती का भान कराया। आज हम सूर्य को जल देने अथवा चुटिया रखने जैसी प्रथाओं का सम्मान इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि हमें इनके साथ जुड़ी वैज्ञानिक मान्यताओं की जानकारी नहीं है और हमने इनका तर्क जानने का प्रयास नहीं किया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कई बार हम तर्कशील होने या विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण रखने के गुमान में यह भूल जाते हैं कि हो सकता है कि हम किसी चीज को समग्रता में न देख पा रहे हों। अक्सर हम यह मान लेते हैं कि किसी बात के बस दो ही पहलू हो सकते हैं जबकि वस्तुत: मानवीय व्यवहार की तरह जिंदगी की शेष चीजें भी उतनी ही जटिल और बहुआयामी एवं कभी-कभार विरोधाभासी होती हैं, इसलिए पहले हमें सत्य को उसकी समग्रता में समझने की आवश्यकता होती है।

यह सच है कि बहुत सी प्रथाएं अब प्रासंगिक नहीं रह गयी हैं। हमें निश्चय ही उन्हें बदल देना चाहिए पर यदि सोने पर मिट्टी चढ़ जाए तो उसका इलाज यह है कि हम सोने पर से उस गंदगी को हटाएं न कि सोना उठाकर घर से बाहर फेंक दें। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी संस्कृति से भागने के बजाए उसका तथ्यपरक विश्लेषण करें और उसकी अच्छी बातों को समझें और अपनाएं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

प्रगतिशील होना अच्छा है। परिवर्तन शाश्वत धर्म है, पर हम प्रगतिशीलता के नाम पर संकुचित दृष्टिकोण का पोषण न करें और परिवर्तन के नाम पर अपनी विशिष्ट थाती से दूर जाकर अपनी गौरवशाली विरासत से स्वयं को वंचित न कर लें। आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर खाना भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम अपनी संस्कृति से जुड़े रहें। पर हमें यहीं तक सीमित नहीं रहना है।

यह समय की मांग है कि हम सब अपनी इस जिम्मेदारी को समझें और भारतीय संस्कृति का सभी पहलुओं से विश्लेषण करें। इस देश के जागरूक नागरिकों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इसे एक परियोजना मानकर इस पर कार्य आरंभ करें ताकि हम अपने पुरखों की महान विरासत से वंचित होने से बच जाएं। अपनी विरासत को समझने की प्रक्रिया में हम कई ऐसी बातें जान पायेंगे जिनसे हमारा ज्ञान बढ़ेगा और हम स्वस्थ जीवन जी सकेंगे, जो हमारे लिए लाभप्रद होगा और अंतत: हमारी सफलता का कारण बनेगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement