प्रयागराज की वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका मीनू रानी दुबे के निधन से इस प्रदेश में महिला पत्रकारों के एक युग का अंत तो गया. मीनू ने उस समय पत्रकारिता में कदम रखा था जब प्रयागराज में एक भी महिला पत्रकार नहीं थी. उनका इस पेशे में आना एक कौतूहल से काम नहीं था.
उन्होंने 1982 में तत्कालीन महिला मैगज़ीन मनोरमा में बतौर उप संपादक काम शुरू किया और बाद में वह इसकी सहयोगी संपादक बनीं. मैं इससे पहले 1979 से देशदूत (दैनिक अख़बार) के लिए खेल की न्यूज़ कवर करने लगा था. उस समय एलएलबी तृतीय वर्ष का छात्र था. डॉ राम नरेश त्रिपाठी इस अख़बार के चीफ रिपोर्टर थे. देशदूत स्व. नरेंद्र मोहन के चचेरे भाई वीरेंद्र कुमार का था. कुछ ही महीनों बाद दोनों में हिस्सेदारी का समझौता हुआ और देशदूत दैनिक जागरण हो गया. उसी साल अगस्त में तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास ने जागरण का लोकार्पण किया. यहाँ मुझे स्पोर्ट्स के अलावा डेस्क पर भी काम करने को कहा गया. इसी दौरान मेरा मीनू रानी से परिचय हुआ.
उल्लेखनीय है कि गत चार मई को त्रिपोलिया (प्रयागराज) स्थित घर पर गिरने से गंभीर रूप से घायल होने के कारण मीनू रानी का निधन हो गया था. मीनू रानी बहुत प्रतिभावान थीं. उन्हें सामयिक तथा रुचिकर व पठनीय विषयों की गहरी समझ थी और मैगज़ीन के दो अंक बाद वाले अंक में क्या-क्या सामग्री जा सकती है, वह पहले से ही तैयारी में जुट जाती थीं. डेस्क पर काम करने के साथ ही वह फील्ड में जाकर महिला सन्दर्भ पर रिपोर्टिंग भी करती थीं और शुद्ध रूप से रचनात्मक रिपोर्टिंग में ही प्रतिमान स्थापित किया. मनोरमा उस समय देश की नंबर वन महिला मैगज़ीन हुआ करती थी और दक्षिणी राज्यों में भी हिंदी भाषी परिवारों में वह पढ़ी जाती थी. उसकी लोकप्रियता के बराबर कोई अन्य मैगज़ीन नहीं पहुँच पायी.
प्रयागराज के सभी नामी साहित्यकारों महादेवी वर्मा, उपेंद्र नाथ अश्क, डॉ राम कुमार वर्मा, जगदीश गुप्त, अमर कांत आदि उन्हें बहुत स्नेह देते थे. शहर के पत्रकारों के हर आयोजन और कार्यक्रम में मीनू रानी अनिवार्य रूप से की उपस्थित रहती थीं. उन्होंने इतने आलेख, इंटरव्यू, प्रसंग, संस्मरण लिखे जिनकी कोई संख्या उपलब्ध नहीं है. उन्होंने कभी पत्रकारों से सामान्य चर्चा में भी इसका कभी उल्लेख नहीं किया. हो सकता है इसलिए कि ऐसा कहने से अहंकार का भाव लक्षित होता.
मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की साहित्यिक गतिविधियों में उन्हें भाग लेते देखता था. डेलीगेसी की मैगज़ीन में उनके लेख छपा करते थे. छात्र-छात्रों की गोष्ठियों में उन्हें विचार रखने के लिया बुलाया जाता था. मुझसे अक्सर वह यूनिवर्सिटी में ही इन सबकी चर्चा करती थीं. एक बार यूनिवर्सिटी की सेंट्रल लाइब्रेरी हाल में उन्होंने कोई मैगज़ीन अपने गाँधी झोले से निकाली और मुझे पन्ने पलटकर दिखाते हुए बोली, देखिये इंद्र कांत जी मेरा लेख छपा है. मैंने सरसरी तौर पर देखा और उन्हें बधाई दी तो वह खुश हो गयीं.
प्रबंधन की आपसी लड़ाई के कारण मनोरमा मैगज़ीन बंद हो गयी तो वह स्वतंत्र रूप से अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख देती रहीं. 1980 के आस पास प्रयागराज में उनके अलावा कोई महिला पत्रकार नहीं थी. हाँ लेखिकाएं कई थीं. बाद में नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका अख़बार में संध्या सिंघल, सुनीता द्विवेदी (सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी की पत्नी और सुप्रीम कोर्ट के जज स्व एसएन द्विवेदी की पुत्रवधू और हाई कोर्ट के जस्टिस धवन की बहन) आयीं. सुनीता द्विवेदी डेस्क के अलावा रिपोर्टिंग का भी काम कर लेती थीं और उनके लेख भी छपते थे. अब चैनलों की बाढ़ आने के बाद महिला पत्रकारों की भी बाढ़ आ गयी है. इनमें स्क्रिप्ट पढ़ते हुए एंकरिंग की तो क्षमता दिखती है लेकिन लेखन में नहीं, क्योंकि वैचारिक शून्यता है.
पांच छह साल से गुमनाम थीं
इधर पांच-छह साल से वह गुमनाम जैसी हो गयी थीं. पत्रकारों से उनकी मुलाकात नहीं होती थी और अपने को घर तक सीमित कर लिया था. एक साल पहले मेरी उनकी मुलाकात इलहाबाद ब्लॉक वर्क्स (प्रिंटिंग प्रेस ) में हुई थी, मेरा वहां के मैनेजिंग डायरेक्टर मनोज मित्तल से 40 साल पुराना सम्बन्ध है. वह मनोज के पास बैठी थीं. मुझे देखती ही पूछी…अरे ..इंद्र कांत जी आप यहाँ कैसे.?..
मनोज ने कहा कि भाई साहब तो हमेशा यहाँ आते रहते हैं..वह बताई कि वह भी यहाँ अक्सर आती हें. मैंने एक बात देखी जिससे मैं कुछ क्षण विचलित भी हुआ..मीनू रानी बहुत कमजोर हो गयी थीं और चेहरे पर चिंतन और चमक गायब थी. मैंने पूछा…मीनू जी आप इतनी कमजोर क्यों हो गयी? स्वास्थ्य को क्या गया है? वह पल भर खामोश रहीं, फिर रोने लगीं और पल्लू से आंसू पोछते हुए kaha, मै ठीक भी हूँ और नहीं भी. मैंने कहा, हुआ क्या है? वह बोली, कुछ नहीं. फिर पूछा, आप कुछ बताएं, हो सकता है मै कुछ मदद कर सकूँ. …बोलीं..नहीं नहीं सब ठीक है. आप अपना हाल बताएं , स्वास्थ्य कैसा है?
कुछ देर बाद वह सामान्य हुईं. मनोज से कुछ देर बात हुई फिर मैं मीनू रानी को अपना ख्याल रखने की बात कहकर चला गया. उनके शारीरिक हालत को देख मुझे लगा कि कुछ न कुछ प्रॉब्लम है जरूर. इस मुलाकात के दो महीने बाद अपने एक लेख के बारे में कुछ जानकारी लेने के लिए उन्हें फ़ोन किया तो वह उत्साह के साथ बात करती रहीं, खुश मिजाज लग रही थीं और पूरी जानकारी दीं. लगभग आधा घंटे तक मेरी उनकी बात हुई. उसके बाद फिर बात नहीं हो सकी.
एक लेखिका और पत्रकार के रूप में मीनू रानी जितना रचनात्मक योगदान समाज को दे सकती थीं, उतना उन्होंने दिया. वह अपने पीछे आदर्श और सकारात्मक पत्रकारिता ऐसा अध्याय छोड़ गयी, जो भविष्य में किसी अन्य महिला पत्रकार के वश की बात नहीं जो इसे दोहरा सके.
लेखक इंद्र कांत मिश्र प्रयागराज के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 7376283395 के जरिए किया जा सकता है.