-अनूप गुप्ता-
लखनऊ
अरबों की योजना में करोड़ों की दलाली! : लगभग एक दशक पूर्व कांग्रेस के कार्यकाल में केन्द्र सरकार ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ यानि एन.आर.एच.एम. की आधारशिला रखती है। योजना का उद्देश्य ग्रामीण अंचल के उन निम्न तबके के लोगों की सेहत सुधारना था जो निजी अस्पतालों में मोटी रकम देकर अपना इलाज करवाने में असमर्थ हैं। मनमोहन सरकार के कार्यकाल में योजना के प्रचार-प्रसार के लिए करोड़ों रुपए भी सरकारी खजाने से खाली हो जाते हैं। योजना तैयार होने के बाद बकायदा देश के विभिन्न राज्यों को भारी-भरकम बजट भी आवंटित हो जाता है। उत्तर-प्रदेश भी उन्हीं राज्यों में से एक था। गुणवत्तापरक दवाओं की आपूर्ति और सरकारी अस्पतालों के अपग्रेडेशन के लिए टेण्डर आवंटित किए जाते हैं। सम्बन्धित विभाग को प्राप्त टेण्डरों पर विचार-विमर्श चल ही रहा था कि इसी बीच गाजियाबाद की एक दवा निर्माता कम्पनी सरजीक्वाइन का प्रतिनिधि गिरीश मलिक नामक व्यक्ति सामने आता है।
गिरीश मलिक दवा कम्पनी का प्रतिनिधि होने के साथ-साथ दलाली (लाइजनिंग) का भी काम करता है। गिरीश मलिक अपनी कम्पनी सरजीक्वाइन को दवा सप्लाई का ठेका दिलवाने के लिए तत्कालीन बसपा सरकार के कद्दावर मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अनन्त मिश्रा से सम्पर्क बनाता है। टेण्डर हासिल करने के लिए कमीशन के रूप में मोटी रकम मांगी जाती है। इसी बीच यूपीपीसीएल और सीएनडीएस के माध्यम से अरबों का काम सामने आता है। इस काम को भी हथियाने के लिए गिरीश मलिक बसपा के कद्दावर नेताओं और नौकरशाहों से सम्पर्क करता है। अरबों की योजना में करोड़ों की दलाली के लिए बसपा के कुछ मंत्रियों के साथ ही वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी नवनीत सहगल का नाम सामने आता है।
बताया जाता है कि बसपा के कार्यकाल में नवनीत सहगल पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के अति विश्वसनीय अधिकारियों में शुमार थे। लिहाजा कम्पनी से कमीशन के रूप में मोटी रकम वसूलने की जिम्मेवारी इन्हें सौंपी जाती है। बकायदा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के सरकारी आवास (माल एवेन्यू) पर करोड़ों रुपयों का लेन-देन होता है। इसी बीच कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) केन्द्र से मिले धन के खर्च का ब्यौरा खंगालता है। कैग को केन्द्र से मिले अरबों रुपयों में हेरफेर के दस्तावेज प्राप्त होते हैं। मामला सीबीआई के सिपुर्द किया जाता है तो कई नामचीन चेहरे सामने आते हैं। सीबीआई ने अरबों की योजना में हेर-फेर को लेकर नेता, मंत्री और अधिकारी से लेकर दवा निर्माता कम्पनी सरजीक्वाइन पर अपनी नजरें तिरछी कीं तो गिरीश मलिक नामक खलनायक सामने आता है। सीबीआई के थोड़े से दबाव में ही वह टूट जाता है। वह मजिस्ट्रेट के समक्ष आईपीसी की धारा 164 के तहत अपना बयान कलमबंद करवाता है तो उसमें पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, पूर्व मंत्री अनन्त मिश्रा, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी प्रदीश शुक्ला, लगभग आधा दर्जन चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी नामचीन हस्तियां और प्रमुख रूप से वरिष्ठ आईएएस अधिकारी नवनीत सहगल का नाम सामने आता है। बाबू सिंह कुशवाहा और प्रदीप शुक्ला जैसे दर्जनों दिग्गजों को सलाखों के पीछे जाना पड़ता है लेकिन अरबों की योजना में करोड़ों की दलाली खाने (गिरीश मलिक द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष आईपीसी की धारा 164 के तहत बयान के आधार पर) वाले नवनीत सहगल पर आंच तक नहीं आती। इधर वर्तमान अखिलेश सरकार के भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन के दावों का इससे भद्दा मजाक और क्या हो सकता है कि जिसे आईपीसी की धारा 164 के तहत गवाह ने मुलजिम साबित किया हो उसी को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी नाक के नीचे के विभाग (सूचना विभाग) का मुखिया बना रखा है।
एनआरएचएम घोटाले में मुख्य किरदार अदा करने वाले लाइजनर गिरीश मलिक ने मई 2013 में सीबीआई स्पेशल कोर्ट में अपना बयान दर्ज कराया तो चारों ओर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। कहा जाने लगा कि अरबों की योजना में कमीशन के रूप में करोड़ों डकारने वाले अधिकारी नवनीत सहगल को भी सलाखों के पीछे तक ले जाया जा सकता है। कुछ दिनों तक यही शोर मायावती शासनकाल में भी चलता रहा। सत्ता ने करवट ली। सपा सरकार सत्ता में आयी तो नवनीत सहगल के भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले कुछ अधिकारियों को आस बंधी कि अब नवनीत सहगल को सलाखों तक जाने से कोई नहीं बचा पायेगा। इस उम्मीद के पीछे कारण था सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की नाराजगी। उन्होंने बसपा शासनकाल में चेतावनी देते हुए कहा था कि जिस दिन सपा सत्ता में आयी ऐसे अधिकारियों की जगह जेल होगी। सत्ता भी बदली और मुख्यमंत्री के रूप में एक कथित ईमानदार छवि वाला चेहरा भी बदला।
पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली। युवा मुख्यमंत्री ने भी सत्ता संभालते ही भ्रष्टों के खिलाफ हुंकार भरी। जानकार सूत्रों की मानें तो इधर नवनीत सहगल स्वयं को बचाने की गरज से हाथ-पैर मारते रहे। जल्द ही सफलता उन्हें हाथ लग गयी। जिस नवनीत सहगल को अरबों के घोटाले मामले में सलाखों के पीछे ले जाने की तैयारी चल रही थी उसे अखिलेश सरकार में प्रमुख सचिव, सूचना (वर्तमान) बना दिया गया। इसी के बाद से अधिकारियों के बीच अपने नए मुख्यमंत्री को लेकर जगी आस भी राख के ढेर में दब कर रह गयी। गौरतलब है कि लाइजनर गिरीश मलिक ने आईपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष जो बयान दर्ज कराया था उसमें भी नवनीत सहगल का नाम प्रमुखता से लिया गया था। गिरीश मलिक ने अपने बयान में साफ कहा है कि नरेश ग्रोवर की फर्म मैसर्स सर्जिक्वाइन को ठेका दिलाने के बदले में पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और आईएएस नवनीत सहगल सहित कई छोटे बड़े अधिकारियों का कमीशन तय हुआ था। कुशवाहा के लिए 3 फीसदी, सहगल के लिए 2 फीसदी, डीके सिंह, पीके भूकेश, कटार सिंह, जेके सिंह, बीएनराम यादव और पीके जैन के लिए कुल ठेके का 1-1 फीसदी कमीशन के तौर पर सीएंडडीएफ के तत्कालीन जीएम पीके जैन ने तय किया था। मजिस्ट्रेट के समक्ष कलमबंद बयान और सूत्रों के मुताबिक सीबीआई के पास श्री सहगल से जुड़े तमाम सुबूत भी श्री सहगल को सलाखों तक नहीं ले जा सके। अब एक बार फिर से इस मामले ने जोर पकड़ा है। बताया जा रहा है कि गिरीश मलिक के बयान को लेकर एक शिकायती पत्र मुख्यमंत्री के पास भेजा जा चुका है। इसके बावजूद श्री सहगल के खिलाफ सरकार की ओर से कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही।
मायावती सरकार के कार्यकाल में मंत्रियों, नौकरशाहों, अधिकारियों और चिकित्सकों की भ्रष्ट चौकड़ी ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम) योजना के मद में मिलने वाले अरबों रुपयों का वारा-न्यारा करने के लिए करोड़ों की दलाली खायी। परिणामस्वरूप दवा सप्लाई करने वाली कम्पनियों ने भी निम्न स्तरीय दवाओं के दाम दस से बीस गुने तक कोट करके जनता के हक पर डाका डालने में संकोच नहीं किया। बड़े स्तर पर प्रायोजित लूट-खसोट से जुड़ा यह मामला ज्यादा दिनों तक दबा नहीं रह सका। अरबों की लूट में करोड़ों की दलाली से जुडे़ इस मामले का खुलासा कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की रिपोर्ट में सामने आया।
कैग ने दावा किया कि केन्द्र से मिले 8657 करोड़ रुपयों में से पांच हजार करोड़ रुपयों का बंदरबांट तो मंत्रियों, नौकरशाहों और चिकित्सकों के बीच हो गया। दूसरी ओर टेण्डर आवंटित करने के लिए करोड़ों रुपए तो महज दलाली में ही दवा निर्माता कम्पनियों से सुविधा शुल्क के रूप में भ्रष्ट अधिकारियों ने बटोर लिए। अरबों की लूट में करोड़ों की दलाली मामले में पूर्व परिवार कल्याण विभाग के मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू मिश्रा, दलाली के लिए मध्यस्थता का काम देखने वाले नेहरू युवा केन्द्र के मैनेजर डी.के. सिंह और तत्कालीन चेयरमैन नवनीत सहगल का नाम सामने आया। यह खुलासा उस वक्त जांच के प्रथम चरण में सामने आया था। इसका खुलासा निम्न स्तरीय दवाओं को मंहगे दामों पर सप्लाई करने वाली कम्पनी ‘यूनी क्योर इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड की लाइजनिंग करने वाले शख्स गिरीश मलिक ने भी किया था।
गिरीश मलिक ने तो इस लूट का खुलासा विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीबीआई, देहरादून) योगेन्द्र कुमार सागर के समक्ष उपस्थित होकर आई.पी.सी. की धारा 164 के तहत कलम बंद बयान में दर्ज करवाया था। इस पूरे खुलासे के बाद बाबू सिंह कुशवाहा और वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी प्रदीप शुक्ला सहित कई जिम्मेदार अधिकारियों को तो जेल हो गयी लेकिन तत्कालीन चेयरमैन और वर्तमान प्रमुख सचिव (सूचना) नवनीत सहगल पर आंच तक नहीं आयी। इधर अनंत मिश्रा (पूर्व मंत्री) भी बसपा के महासचिव सतीश मिश्रा की कृपादृष्टि से स्वयं को बचाने में सफल हो गए। इस पूरे मामले में अखिलेश सरकार द्वारा भ्रष्टाचार को संरक्षण देने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जिस पार्टी के मुखिया ने चुनाव प्रचार के दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का पैसा डकार जाने वालों को सत्ता में आने पर सलाखों के पीछे भेजने की धमकी दी थी वही सरकार एक ऐसे अधिकारी की तथाकथित पोषक बनी हुई है जिसके खिलाफ आई.पी.सी. की धारा 164 के तहत बयान दर्ज करवाए जा चुके हैं। चौंकाने वाला पहलू यह है कि धारा 164 के बयान वाली प्रतिलिपि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उपलब्ध करवाए जाने के बाद भी सूबे की सरकार तथाकथित भ्रष्ट नौकरशाह की पोषक बनी हुई है। गौरतलब है कि तत्कालीन बसपा सरकार की जानकारी में इस घोटाले को अंजाम दिए जाने से लेकर सीबीआई जांच के दौरान इस घोटाले से जुडे़ तीन सीएमओ सहित आठ अन्य लोगों की मौतें भी हो चुकी हैं। चर्चा इस बात की है कि कुछ बड़े अधिकारियों ने स्वयं को बचाने की गरज से घोटाले से जुडे़ उन लोगों की हत्याओं को सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया जिनकी गवाही उन्हें सलाखों तक पहुंचा सकती थी।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जरिए अरबों की योजना में करोड़ों की दलाली खाने के लिए बकायदा कुछ चुनिन्दा हाई प्रोफाइल लोगों ने अपना काकस तैयार किया। इस काकस में तत्कालीन परिवार कल्याण विभाग के तत्कालीन मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू मिश्रा, एनआरएचएम के वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी प्रदीप शुक्ला के साथ ही वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी नवनीत सहगल भी मौजूद थे। नवनीत सहगल की संलिप्तता का खुलासा दवा कम्पनी की फ्रेंचाइजी चलाने वाले एक शख्स ने आई.पी.सी. की धारा 164 के तहत सीबीआई मजिस्टेªट के समक्ष कलमबंद बयान में किया था। दूसरे अर्थों में यदि यह कहा जाए कि लाइजनर गिरीश मलिक के 164 के बयान ने सादगी का ढोंग करने वाले नवनीत सहगल के चेहरे से नकाब उतार दिया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
सीबीआई के विशेष न्यायधीश की अदालत में गिरीश मलिक ने खुलासा किया कि नरेश ग्रोवर की फर्म मैसर्स सर्जिक्वाइन को ठेका दिलवाने के एवज में नेहरू युवा केन्द्र के जिला समन्वयक डी.के. सिंह ने मध्यस्थता करते हुए नवनीत सहगल के नाम पर 25 लाख रूपए बतौर दलाली मांगी थी। गौरतलब है कि डीके सिंह नवनीत सहगल के अत्यंत करीबी लोगों में गिने जाते रहे हैं। मध्यस्थता के एवज में श्री सहगल ने अनेक अवसरों पर सरकारी योजनाओं के जरिए डी.के. सिंह को विभिन्न तरीके से आर्थिक लाभ पहुंचाया।
मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने कलमबंद बयान (आई.पी.सी. की धारा 164) में लाइजनर गिरीश मलिक ने अदालत को बताया कि टेण्डर आवंटन के सिलसिले में डी.के. सिंह से उनकी मुलाकात यू.पी.एच.एस.डीपी. के इलेक्टिीकल इंजीनियर एस.एस. सिंह के कमरे पर हुई थी। एस.एस. सिंह ने ही बताया था कि सी.एंड.डी.एस. के आवंटन का काम नवनीत सहगल के नाम पर डी.के. सिंह ही देखते हैं। अघोषित तरीके से नवनीत सहगल ने डी.के. सिंह को कार्य आवंटन की पूरी जिम्मेदारी सौंप रखी थी। गिरीश मलिक का कहना है कि उसी दौरान उसे पता चला कि यूपी के 134 जिला अस्पतालों में मेंटीनेंस का काम होने जा रहा है। इस कार्य का आवंटन सी.एंड.डी.एस. को करना था। एस.एस. सिंह की मध्यस्थता में ही डी.के. सिंह से गिरीश की मुलाकात करवाई गयी थी। डी.के. सिंह ने ही बताया था कि वह काम सरजीक्वाइन कम्पनी को दिया जाना तय हो चुका है।
डी.के. सिंह ने ही कहा था कि इस काम के लिए उसे 25 लाख रूपए बतौर रिश्वत नवनीत सहगल को देना पड़ेगा और काम उसकी कम्पनी को मिल जायेगा। अरबों का काम मिलने की संभावना को दृष्टिगत रखते हुए गिरीश मलिक और मानवेन्द्र चढ्ढा सरजीक्वाइन कम्पनी के मालिक नरेश ग्रोवर से मिलने दिल्ली पहुंच गए। गौरतलब है कि गिरीश मलिक और मानवेन्द्र चढ्ढा सरजीक्वाइन कम्पनी के प्रतिनिधि थे। अरबों की काम हाथ आता देख नरेश ग्रोवर ने अपने प्रतिनिधियों की सारी बातें मान लीं। इसके बाद दोनों लोग वापस लखनऊ आकर तत्कालीन परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और विधायक आर.पी. जायसवाल से मिले। गिरीश मलिक और चढ्ढा ने तत्कालीन मंत्री को बताया कि उन्होंने कमीशन के रूप में जो मांग की थी उनकी कम्पनी वह मांग पूरी करने के लिए तैयार है। आरोप है कि कमीशन राशि तीन प्रतिशत तय की गयी थी।
अरबों के इस घोटाले का पर्दाफाश होते ही सीबीआई की टीम ने ताबड़तोड़ छापेमारी की। छापेमारी में सी.एंड.डी.एस. के मुख्य प्रबंधक पी.के. जैन के आवास से एक करोड़ से भी ज्यादा की नगदी और लगभग तीन किलो सोने की बरामदगी की गयी थी। सी.बी.आई. ने पुख्ता दस्तावेज के आधार पर यह भी कहा था कि मायावती सरकार के कार्यकाल में यूपी के सैकड़ों इंजीनियरों ने भ्रष्टाचार के दम पर आय से अधिक करोड़ों की सम्पत्ति अर्जित कर रखी है। विभाग में चर्चा यह भी थी कि ये इंजीनियर बसपा शासनकाल में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती सहित चौथे दर्जे के प्रभावशाली अधिकारी नवनीत सहगल के अति विश्वसनीय इंजीनियरों में शुमार थे। कहा जाता है कि भ्रष्टाचार की आधारशिला रखने में इन्हीं इंजीनियरों का सहारा लिया गया था। गौरतलब है कि जिस वक्त अरबों के इस घोटाले को अंजाम दिया गया था उस वक्त वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी नवनीत सहगल सी.एन.डी.एस. के चेयरमैन हुआ करते थे। आरोपों को आधार मानें तो अरबों के इस घोटाले में तत्कालीन मंत्रियों सहित नवनीत सहगल, सी.एन.डी.एस. के मुख्य प्रबंधक पी.के. जैन, पूर्व निदेशक परिचेता सहित निदेशक पी.के. भुकेश भी शामिल थे। सी.एन.डी.एस. के तत्कालीन चेयरमैन नवनीत सहगल के बारे में कहा जाता है कि सी.एन.डी.एस. का ठेका उनकी हरी झण्डी मिले बगैर कभी पास नहीं किया गया। अरबों के इस घोटाले में दूसरे अधिकारी भी मूक रहकर सामूहिक भ्रष्टाचार में सहयोग देते रहे। जानकार सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि जब तत्कालीन जी.एम. के घर से इतनी बड़ी धनराशि की बरामदगी हो सकती है तो नवनीत सहगल और पी.के. भुकेश के घर पर यदि सीबीआई की टीम छापेमारी की कार्रवाई करती तो निश्चित तौर पर कई गुना चल-अचल सम्पत्ति का खुलासा हो जाता। लेकिन केन्द्र में बैठे कुछ नौकरशाहों और मंत्रियों ने सहगल जैसे कथित भ्रष्ट अधिकारियों को सीबीआई की छापेमारी से बचा लिया।
अरबों के टेण्डर में करोड़ों की दलाली के सम्बन्ध में सरजीक्वाईन कम्पनी के प्रतिनिधि गिरीश मलिक ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के शासनकाल जनवरी 2012 में आई.पी.सी. की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज कराया। धारा 164 के तहत दर्ज बयान की कॉपी में कहा गया है- राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम.) कार्यक्रम की आधारशिला 2005 में रखी गयी थी लेकिन इसकी वास्तविक शुरूआत वर्ष 2006 के मध्य से हुई थी। दिसम्बर 2006 में कार्यक्रम के तहत दवाओं की खरीद का एक टेण्डर निकाला गया। न्यूनतम दर के आधार पर यूनीक्योर इण्डिया प्रा. लिमिटेड को टेण्डर भी आवंटित कर दिया गया था। बकायदा इस टेण्डर की सप्लाई 2007 तक पूरी कर दी गयी थी। गिरीश मलिक का कहना है कि अगस्त 2008 में उसे तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनन्त कुमार मिश्रा एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के प्रभारी (परिवार कल्याण विभाग) ने उसे बुलाया। मुलाकात गौतम पल्ली के मकान संख्या 20 में हुई थी। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनन्त कुमार मिश्रा और मुख्यमंत्री के प्रभारी ने स्पष्ट तौर पर कहा कि आयरन और फोलिक एसिड की जो सप्लाई आपने की है उसके लिए कमीशन के तौर पर 10 लाख रूपए दीजिए। गिरीश मलिक ने कमीशन की राशि 10 लाख रूपए देने में असमर्थता जतायी तो कहा गया कि यदि कमीशन की यह रकम उन्हें मिल जाती है तो जो नयी पी.आई.पी. बनेगी उसमें उसकी कम्पनी के प्रोडक्ट्स को डलवा दिया जायेगा। इस काम के लिए गिरीश ने कम्पनी के मालिक से मिलकर 5 लाख रूपए दे दिए लेकिन नयी पी.आई.पी. में सरजीक्वाइन कम्पनी का एक भी प्रोडक्ट नहीं डाला गया। इसके विपरीत पैसा लेने के बाद भी नयी पी.आई.पी. में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के तत्कालीन प्रभारी (परिवार कल्याण विभाग) ने अपनी करीबी दूसरी कम्पनियो विकास खुल्लर (दिल्ली) मनीष मल्होत्रा (लखनऊ) और मिस्टर डागा (अमरावती, महाराष्ट्र) के प्रोडक्ट सूची में शामिल करवा दिए। इस बीच विभाग का चार्ज तत्कालीन परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को सौंपे जाने के बाद सारा खेल फिर से बदल गया। गिरीश ने अपने बयान में कहा है कि वह और उसके सहयोगी मानवेन्द्र चढ्डा ने बाबू सिंह कुशवाहा और आर.पी. जायसवाल से मुलाकात की। कहा गया कि बाबू सिंह कुशवाहा का सारा काम आर.पी. जायसवाल ही संभालेंगे। लिहाजा जो वार्ता करनी हो वह श्री जायसवाल के माध्यम से ही हो सकती है।
इस बीच वर्ष 2009 में कन्सट्रक्शन एण्ड डिजाईन्स संस्था के माध्यम से 134 अस्पतालों के अपग्रेडेशन का कार्य सी.एन.डी.एस. केा दिया गया है। बकायदा पूरा पैसा भी रिलीज कर दिया गया। ज्ञात हो कन्सट्रक्शन एण्ड डिजाईन्स संस्था जल निगम से जुड़ी हुई है। इस काम को हासिल करने के बाबत जब पता किया गया तो यह जानकारी मिली कि इसका सारा कार्य नेहरू युवा केन्द्र के मैनेजर डी.के. सिंह ही डील करेंगे। गिरीश मलिक का कहना है कि सी.एन.डी.एस. के तत्कालीन चेयरमैन नवनीत सहगल ने ही डी.के. सिंह को सारा काम एलॉट करने की जिम्मेदारी सौंप रखी थी। यहां यह बताना जरूरी है कि एक गैर सरकारी संस्था के पदाधिकारी को सरकारी कार्यों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। साफ जाहिर है कि श्री सहगल ने कमीशन की रकम के लिए ही एक मीडिएटर को चिन्हित कर रखा था। गिरीश मलिक ने अपने बयान में जो कहा है उसके मुताबिक डी.के. सिंह श्री सहगल के बेहद करीबी लोगों में गिने जाते रहे हैं। मुलाकात के लिए तय तिथि पर गिरीश मलिक डी.के. सिंह के करीबी एस.एस. सिंह के गोमती नगर स्थित ऑफिस में मिले। वहां पर डी.के. सिंह 134 अस्पतालों के अपग्रेडेशन का कार्य उसकी कम्पनी को देने के लिए तैयार हो गए। इस काम के बाबत डी.के. सिंह ने गिरीश से 25 लाख रूपए बतौर रिश्वत मांगी। साथ ही यह भी कहा कि 2 करोड़ का काम उनके मित्र आर.के. सिंह को भी दिया जायेगा।
गिरीश ने अपने बयान में जो कहा है उसके मुताबिक सारी बात तय हो जाने के बाद वह सरजीकोईन कम्पनी के मालिक से मुलाकात करने गाजियाबाद चला गया। उसने कम्पनी के मालिक को सारी स्थिति से अवगत कराया। बड़ा काम मिलने की उम्मीद पर कम्पनी के मालिक 25 लाख रूपए बतौर रिश्वत देने के लिए तैयार हो गए। बकायदा वे 25 लाख रूपए लेकर लखनऊ भी आ गए। गिरीश का कहना है कि उसने 25 लाख रूपए डी.के. सिंह को दे दिया। डी.के. सिंह ने उसी समय फोन पर नवनीत सहगल से बात की और गिरीश से कहा कि वह सी.एन.डी.एस. में जाकर भुकेश से मिले। जब गिरीश भुकेश से मिला तो उन्होंने एक अन्य अधिकारी पी.के. जैन से मिलवाया और उस वक्त मौखिक रूप से काम करने के लिए कह दिया। गिरीश का कहना है कि काम करने की इजाजत देने से पहले भुकेश ने फोन से डी.के. सिंह से कन्फर्म कर लिया था कि चेयरमैन नवनीत सहगल को उसने पैसे दिए या नहीं। कन्फर्म होने के बाद भुकेश ने उसे पी.के. जैन से मिलवाया। पी.के. जैन ने बताया कि इस काम में कम से कम 10 प्रतिशत का खर्चा आयेगा। बकायदा पूरे खर्चे का विस्तृत विवरण भी दिया। जो विवरण गिरीश मलिक को पी.के. जैन ने दिया था उसके मुताबिक 1 प्रतिशत स्वयं पी.के. जैन का था। एक प्रतिशत भुकेश के लिए, 1 प्रतिशत इंजीनियर करतार सिंह के लिए, 1 प्रतिशत प्रोजेक्ट मैनेजर श्रीवास्तव के लिए, 2 प्रतिशत चेयरमैन के लिए, 3 प्रतिशत बाबू सिंह कुशवाहा के लिए, 1 प्रतिशत सी.एन.डी.एस. के एकाउण्ट के लिए बताया गया था। सारे खर्चों का विस्तृत विवरण देने के बाद उसे प्रेजेंटेशन और कोटेशन देने के लिए कहा गया। कम्पनी ने प्रजेंटेशन और कोटेशन भी दे दिया। बकायदा लिखित रूप में काम भी आवंटित कर दिया गया। गिरीश मलिक ने अपने बयान में आरोप लगाया कि, जैसे-जैसे भुगतान होता गया वैसे-वैसे कमीशन की रकम भी कम्पनी देती चली गयी। गिरीश का कहना है कि लगभग 70 लाख रूपए उसकी कम्पनी और आर.के. सिंह ने मिलकर पी.के. जैन और करतार सिंह को दिए। इस बीच नवम्बर 2009 में में पी.के. जैन ने गिरीश मलिक को बुलाकर 42 लाख रूपए तत्तकालीन मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को देने के लिए कहा। गिरीश का कहना है कि उसने अपनी कम्पनी के मालिक से 42 लाख रूपए लेकर पी.के. जैन को दिए । श्री जैन ने वह पैसा आर.के. सिंह को साथ ले जाकर 13, माल एवेन्यू में नवनीत सहगल के हवाले कर दिया। गिरीश का कहना है कि उसके पास सरजीकोईन से जो सामान आया था उस पर दो प्रतिशत चार्ज करके आर.के. सिंह को बेच दिया।
इस बीच पता चला कि यू.पी.पी.सी.एल. को मोल्डर ऑटी बनाने का कार्य मिला है। गिरीश का कहना है कि यह कार्य भी वह और उसकी कम्पनी के मालिक लेना चाहते थे। गौरतलब है कि उस वक्त नवनीत सहगल यूपीपीसीएल के चेयरमैन थे। इस काम को हासिल करने के लिए गिरीश और मानवेन्द्र चढ्ढा ने प्रदीश शुक्ला से मुलाकात की। गिरीश का आरोप है कि श्री शुक्ला ने साफ कहा कि पहले बतौर कमीशन 25 लाख रूपए दो। श्री शुक्ल ने यह रकम अपने साले अशोक बाजपेयी के पास घर पर पहुंचाने के लिए कहा। गिरीश का कहना है कि उसने वह रूपए सरजीकोईन कम्पनी से लेकर अशोक बाजपेयी के पास पहुंचा दिए। इसके बाद गिरीश मलिक को देवेन्द्र मोहन से मिलवाया गया। देवेन्द्र ने रविन्द्र राय नाम के एक व्यक्ति से उसे मिलवाया। रविन्द्र राय ने काम का खर्च और अन्य विवरण की विस्तृत जानकारी उसे दे दी। विवरण के मुताबिक 3 प्रतिशत रकम परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा (अब तत्कालीन) को मिलनी थी। 2 प्रतिशत नसीमुद्दीन सिद्दीकी (तत्कालीन मंत्री) को दी जानी थी। 1 प्रतिशत एम.डी. के लिए, 1 प्रतिशत ऑफिस एवं एकाउण्ट्स के लिए। आधा प्रतिशत प्रमुख सचिव प्रदीप शुक्ला, आधा प्रतिशत डी.जी ऑफिस (फैमिली वेलफेयर)। 8 प्रतिशत खर्चा जहां-जहां काम होगा वहां के प्रोजेक्ट मैनेजर पेमेन्ट होने के बाद दिए जाने के लिए कहा गया। गिरीश ने मजिस्ट्रेट के समक्ष 164 के बयान में साफ कहा है कि इस काम के लिए उसने कम्पनी से करीब ढाई करोड़ रूपए लेकर दे दिया। श्री शुक्ल ने वह रकम अपने स्तर से डिस्ट्रीब्यूट कर दी। 1 करोड़ रूपए अशोक बाजपेयी को उनके लखनऊ और दिल्ली वाले आवास पर दिया गया। 25 लाख रूपए प्रदीप शुक्ला को कैण्ट स्थित उनके आवास पर दिया गया।
गिरीश मलिम के बयान के अनुसार वर्ष 2010-11 में जब नयी पी.आई.पी. आयी तो इसी सम्बन्धित 89 करोड़ का एक काम और आया। इस सम्बन्ध में बाबू सिंह कुशवाहा (तत्कालीन मंत्री) का गिरीश के पास फोन आया। कहा गया कि अब तक जितना काम किया है उसका 17 प्रतिशत और नया काम करने के लिए 20 प्रतिशत कमीशन दोगे तो यूपीपीसीएल का काम उन्हें दोबारा एलॉट कर दिया जायेगा। गिरीश का कहना है कि उसने दो करोड़ रूपए सरजीकोईन कम्पनी के मालिक से लेकर जायसवाल नाम के एक व्यक्ति को दिए। उसने बाकी पैसों की मांग की तो कम्पनी ने काम मिलने पर दिए जाने की बात कही। गिरीश का कहना है कि जब पूरा पैसा नहीं दिया गया गया तो वह काम यूपीपीसीएल से लेकर पैक्सफेड को दे दिया गया। गिरीश का कहना है कि एफ.आर.यू. किट का काम उसके कहने पर बाबू सिंह कुशवाहा ने यूपीएसआईडीसी को एलॉट कर दिया। इस काम के लिए 15 प्रतिशत कमीशन तत्कालीन मंत्री ने लिया। दो प्रतिशत जायसवाल ने लिया। 5 प्रतिशत प्रदीप शुक्ला ने लिया। डेढ़ प्रतिशत कमीशन यूपीएसआईडीसी के चेयरमैन (तत्कालीन) अभय बाजपेयी ने लिया। 2 प्रतिशत यूपीएसआईडीसी के मंत्री ने लिया। 1 प्रतिशत यूपीएसआईडीसी के प्रमुख सचिव, 5 प्रतिशत प्रदीप शुक्ला को दिया गया शेष 60 लाख रूपए एस.के.सिंह को दिए गए। इतना सब कुछ करने के बाद आर.ओ. का काम बाबू सिंह कुशवाहा के कहने पर एलॉट कर दिया गया। गिरीश का कहना है कि इस काम के लिए बाद में भी 7 प्रतिशत मंत्रीजी के नाम पर लिया गया। सरजीकोईन कम्पनी के प्रतिनिधि गिरीश मलिक ने मजिस्टेªट के समक्ष आई.पी.सी. की धारा 164 के तहत दिए गए बयान में साफ कहा है कि उसने 50 लाख रूपए बतौर कमीशन की पहली किस्त बाबू सिंह कुशवाहा (तत्कालीन मंत्री) के कहने पर नवनीत सहगल को दिए थे। रकम पहुंचते ही उसकी कम्पनी को काम भी एलॉट कर दिया गया था।
सरजीकोईन कम्पनी के प्रतिनिधि गिरीश मलिक का आईपीसी की धारा 164 के तहत दिया गया बयान साफ इशारा कर रहा है कि अरबों का टेण्डर आवंटन करने के लिए करोड़ों रूपए रिश्वत के रूप में कम्पनी से वसूले गए। कमीशन के रूप में भारी-भरकम देने के बाद दवाओं की गुणवत्ता से लेकर अन्य कामों की गुणवत्ता कैसी होगी ? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। चौंकाने वाला पहलू यह है कि आईपीसी की धारा 164 के बयान के बावजूद तत्कालीन चेयरमैन नवनीत सहगल की कारगुजारियों के बावजूद चार्जशीट में उनका नाम तक शामिल नहीं किया गया जबकि बाबू सिंह कुशवाहा समेत अनेक दिग्गज एन.आर.एच.एम. में घोटाले को लेकर सलाखों के पीछे हैं। यहां तक कि श्री सहगल से इस पूरे भ्रष्टाचार पर पूछताछ तक नहीं की गयी। आरोप है कि नवनीत सहगल ने कुशल खिलाड़ी की भांति पर्दे के पीछे रहकर भ्रष्टाचार के इतने बड़े खेल को अंजाम दे डाला और उनके पास आंच तक नहीं आयी। जानकार सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि नवनीत सहगल अपने आकाओं की बदौलत भ्रष्टाचार में शामिल होने के बावजूद जांच एजेंसी की पहुंच से बाहर हैं। आरोप है कि श्री सहगल ने अरबों की योजना में करोड़ों का कमीशन लेकर देश-विदेश में बेनामी सम्पत्तियां खरीदी हैं। दावा किया जा रहा है कि यदि जांच एजेंसियां निष्पक्ष जांच करें तो निश्चित तौर पर श्री सहगल की आय से अधिक करोड़ों की सम्पत्तियों का खुलासा हो सकता है। श्री सहगल की शातिराना चाल का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि उन्होंने अपने दामन को दाग से बचाने के लिए नेहरू युवा केन्द्र के मैनेजर डी.के. सिंह और आर.पी. जायसवाल जैसे लोगों को अपना मोहरा बनाया। यह दीगर बात है कि वर्तमान में श्री सहगल ऐसे किसी व्यक्ति को पहचानने तक से इंकार कर देते हैं। अचंभा इस बात का है कि बसपा शासनकाल में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के आंख की किरकिरी बने नवनीत सहगल को वर्तमान अखिलेश सरकार खुलकर संरक्षण दे रही है जबकि आई.पी.सी. की धारा 164 के बयान समेत भ्रष्टाचार से जुडे़ अनेक मामलों की जानकारी हाईटेक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को व्यक्तिगत तौर पर पहुंचायी जा चुकी है। सूत्रों के मुताबिक सीबीआई को शुरुआती जांच में ही शीर्ष अफसर, नवनीत सहगल के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य मिले थे लेकिन सत्ता के दबाव से सीबीआई इन पर हाथ नहीं डाल सकी। ताज्जुब की बात है कि आईपीसी की धारा 164 के बयान के बाद भी सीबीआई ने श्री सहगल का नाम अपनी चार्जशीट में शामिल नहीं किया।
कैसे खुला लुटेरों का खेल..
पूर्ववर्ती कांग्रेस के कार्यकाल में केन्द्र सरकार द्वारा शुरू की गयी एनआरएचएम उन योजनाओं में से एक है जो जोर शोर के साथ शुरू की गयी थी। निम्न दर्जे की आवाम से जुड़ी योजना का प्रारूप तो ठीक था लेकिन योजना के बजट में धन लूटने वालों के खिलाफ कोई फूलप्रूफ योजना नहीं बनायी गयी थी लिहाजा इस योजना का दलालों ने जमकर फायदा उठाया। इस योजना से आम जनता को भले ही विशेष फायदा न पहुंचा हो लेकिन सत्ता शीर्ष पर बैठे ज्यादातर तथाकथित दलालों ने योजना की आड़ में जमकर अपनी झोली भरी। सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी इस योजना की आड़ में हजारों करोड़ के फंड की लूट हुई। सरकार ने न कोई विशेष प्रावधान लगाये ना भ्रष्ट्राचारियों के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई की। परिणामस्वरूप पूर्ववर्ती बसपा सरकार के राज में लूट का खुला खेल खेला गया। अरबों की लूट में करोड़ों समेटने वालों में सत्ताधारी दल से लेकर वे शीर्ष अधिकारी भी शामिल थे जिन्हें इस योजना को सफल बनाने का दायित्व सौंपा गया था। उस पर तुर्रा यह कि जब सत्ताधारी दल के नेता-मंत्री हिस्सा मांगेंगे तो योजना तो फ्लॉप होनी ही थी। अरबों की योजना में लूट को लेकर सीबीआई ने जांच शुरू की तो परत-दर-परत घोटाले पर से पर्दा उठता गया। हालांकि सीबीआई के निशाने पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से लेकर उनके खास सिपहसालारों में शुमार प्रदीप शुक्ला और नवनीत सहगल थे। प्रदीप शुक्ला तो सलाखों के पीछे पहुंच गए लेकिन सरकार के साथ आस्था बदलने वाले आई.ए.एस. अधिकारी नवनीत सहगल पर आंच तक नहीं आयी। कहा तो यहां तक जाता है कि मायावती सरकार के कार्यकाल में पूरी नौकरशाही नवनीत सहगल के समक्ष नतमस्तक थी। श्री सहगल जो चाहते थे, वही होता था। सीबीआई की जांच जैसे जैसे आगे बढ़ती गयी वैसे-वैसे सच्चाई सामने आती गयी। इस पूरे घोटाले के सूत्रधारों में से एक गिरीश मलिक ने सीबीआई के अधिकारी के सामने साफ तौर पर बयान दिया कि उसने कमीशन के रूप में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के सरकारी आवास पर नवनीत सहगल को पैसा दिया था। गिरीश ने श्री सहगल के साथ ही एक अन्य वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी प्रदीप शुक्ला और पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा पर भी आरोप लगाया और वह भी आईपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्टेªट के समक्ष। परिणामस्वरूप प्रदीप शुक्ला और बाबू सिंह कुशवाहा के साथ-साथ दर्जन भर अन्य दोषियों को सलाखों के पीछे जाना पड़ा। हैरत की बात है कि इस पूरे लूट कांड में मुख्य भूमिका निभाने वाले (जैसा गिरीश मलिक ने कहा) नवनीत सहगल पर आंच तक नहीं आयी। ज्ञात हो सीबीआई के इंस्पेक्टर जे. आर. कटियार ने रजिस्ट्री विभाग के आईजी हिमांशु कुमार को पत्र लिखकर नवनीत सहगल समेत सभी नेताओं व अधिकारियों की संपत्ति का ब्योरा भी मांगा था।
घोटाले में शामिल तीन सीएमओ की हो चुकी है मौत
अरबों के घोटाले में सीबीआई की जांच की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन तीन अन्य सीएमओ के नाम घोटाले में सामने आए थे उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो चुकी है। गौरतलब है कि घोटाले में सीबीआई ने 16 बड़े नामों की सूची तैयार कर उनके नाम दर्ज संपत्तियों का विवरण मांगा था। सीबीआई की बनाई गई सूची में जिन 16 नेताओं व अधिकारियों के नाम सम्मलित किये गए हैं उनमे डीके सिंह, संध्या सिंह, नवीन कुमार गुप्ता, गया प्रसाद, नथूराम, शिवकन्या, रामप्रसाद जायसवाल, कटार सिंह, बीएन श्रीवास्तव, सोमेश भारद्वाज, वंदना सहगल, पवन कुमार जैन, पीके भूकेश, राज कुशवाह, बाबू सिंह कुशवाहा और नवनीत सहगल का नाम शामिल था। रजिस्ट्री विभाग के आईजी ने नोएडा समेत प्रदेश के कई रजिस्ट्री कार्यालयों को पत्र लिखकर चार दिन के अन्दर इन सभी भ्रष्ट नेताओं व अधिकारियों का विवरण देने का आदेश दिया था। इतना ही नहीं इस कार्य में लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करने की भी चेतावनी दी गई थी। सीबीआई के शिकंजे का परिणाम था कि जांच के दौरान सूबे के तीन सीएमओ की रहस्यमयी आकस्मिक मौत हो चुकी है। अफवाह तो यहां तक उड़ायी गयी थी कि बड़ों ने अपनी गर्दन बचाने की गरज से घोटाले के तथाकथित चश्मदीद गवाहों की हत्या करवाई थी। बताया जाता है कि इस मामले को लेकर भी जांच की मांग उठी थी लेकिन अफसरशाही के दबाव में मामले को रफा-दफा कर दिया गया था। कहा जाता है कि यदि तीनों सीएमओ की मौत न हुई होती तो कई बड़े अधिकारियों को सलाखों के पीछे जाना पड़ सकता था। यहां तक कि कुछ का यह भी कहना है कि इस बडे़ घोटाले में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती समेत नवनीत सहगल भी सलाखों के पीछे नजर आते। चूंकि हमाम में सभी नंगे हैं लिहाजा घोटाले पर पर्दा डालने की गरज से बाबू सिंह कुशवाहा और प्रदीप शुक्ला सहित दर्जन भर अन्य कथित दोषियों को बलि का बकरा बना दिया गया।
क्या थी योजना!
कैग की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2005 से मार्च 2011 तक एनआरएचएम (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन) के तहत ग्रामीण और निम्न तबके के लोगों की सेहत सुधार के लिए 8657.35 करोड़ रुपये यूपी सरकार को मिले थे। कैग की रिपोर्ट में दावा किया गया था कि उक्त बजट में से 4938 करोड़ रुपये नियमों की अनदेखी कर खर्च कर दिए गए थे। कैग ने करीब तीन सौ पेज की अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एनआरएचएम में 1085 करोड़ रुपयों का भुगतान जिम्मेदार अधिकारी के हस्ताक्षर के बगैर ही कर दिया गया था। इतना ही नहीं बिना करार के ही 1170 करोड़ रुपये का ठेका अधिकारियों ने उन लोगों के हाथों में सौंप दिया था जिनसे कमीशन के रूप में करोड़ो रूपए जिम्मेदार अधिकारियों सहित नेता और मंत्रियों ने अपनी जेब में किए थे। निर्माण एवं खरीद संबंधी धनराशि को खर्च करने के आदेश जारी करने में सुप्रीम कोर्ट एवं सीवीसी के निर्देशों का भी पालन नहीं किया गया था। परिणाम स्वरूप जांच में केंद्र से मिले 358 करोड़ और कोषागार के 1768 रुपयों करोड़ का हिसाब राज्य स्वास्थ्य सोसाइटी की फाइलों में सीएजी को नहीं मिला। यह सच्चाई लगभग दो दर्जन जिलों की सीएजी जांच के दौरान सामने आई। कैग की रिपोर्ट बताती है कि एक रुपये 40 पैसे में मिलने वाले 10 टेबलेट के पत्तों को अलग अलग जिलों में दो रुपये 40 पैसे से लेकर 18 रुपये तक में खरीदा गया। वर्ष 2008-09 के वित्तीय वर्ष में दवा खरीद मामले में 1.66 करोड़ रुपये का घोटाला होने के प्रमाण रिपोर्ट में दर्ज है। एनआरएचएम के कार्यक्रम मूल्यांकन महानिदेशक की ओर से 2005 से 2007 के बीच 1277.06 करोड़ रुपये एनआरएचएम के लेखा-जोखा से मेल नहीं खाते। कैग ने अपनी रिपोर्ट में गैर पंजीकृत सोसाइटी को 1546 करोड़ रुपये दिए जाने पर भी आपत्ति जताई थी। 2009-10 में बिना उपयोगिता प्रमाण पत्र के उपकेंद्रों को 52 करोड़ रुपये मुहैया करा दिए जाने से अधिकारी वर्ग जांच के दायरे में आ गए। कैग ने इसे नियम विरुद्ध बताते हुए अधिकारियों को दोषी ठहराया था। सीएजी ने जो अपनी रिपोर्ट तैयार की थी उसके मुताबिक चार जिलों के परीक्षण में ही 4.90 करोड़ के भुगतान की अनियमितता सामने आ गयी थी।
स्टॉफ के लिए मिले धन में भी घोटाला
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना के तहत केंद्र सरकार ने टेंªड चिकित्सक, नर्स व एनम रखने के लिए धनराशि आवंटित की थी। केन्द्र से मिले निर्देश के अनुसार उक्त योजना को सफल बनाने की गरज से 8327 स्टॉफ रखा जाना था। अधिकारियों ने कम स्टॉफ रखा और खर्च ज्यादा स्टॉफ का दर्शा दिया। कैग का दावा है कि 8327 के स्थान पर केवल 4606 स्टाफ नर्से ही रखी गईं थीं। सीएजी ने अपनी जांच में पाया कि प्रदेश सरकार ने घरेलू उत्पाद का केवल 1.5 फीसद ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया है, जबकि लक्ष्य दो से तीन फीसद रखा गया था। जननी सुरक्षा योजना में भी जमकर धांधली की गयी। एनआरएचएम में शिशु एवं प्रसव मृत्यु दर कम करने तथा जनसंख्या पर कारगर रोक लगाने संबंधी कार्यक्रमों में जमकर धांधली की गई। सीएजी रिपोर्ट के अनुसार सुरक्षित मातृत्व योजना में बीपीएल परिवार की महिलाओं का प्रसव कराने वाले निजी नर्सिग होम को प्रति डिलीवरी 1850 रुपये मिलना था। इस योजना के तहत बहराइच में राज अस्पताल को 258 बीपीएल महिलाओं का प्रसव कराने के लिए 6.77 लाख रुपये दिए गए लेकिन किसी महिला से बीपीएल का दस्तावेज नहीं लिया गया जो जरूरी था। इसी तरह की धांधली राज्य के अन्य जिलों में भी हुई। जननी सुरक्षा योजना के तहत स्वास्थ्य केंद्र में बच्चा पैदा करने वाली महिलाओं को 1400 रुपये और बीपीएल परिवार की महिलाओं को घर पर प्रसव की स्थिति में 500 रुपये की नकद सहायता दी जानी थी। इन्हें जिले के स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल लाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं को 600 रुपये मानदेय दिया जाना था। वर्ष 2005-11 के बीच इस योजना के तहत 69 लाख महिलाओं के लिए 1219 करोड़ रुपये खर्च किए गए। सीएजी ने पाया कि इस योजना के 10 प्रतिशत मामलों में दी गई सहायता की जांच प्रदेश सरकार को करनी थी, लेकिन 2008 से 2011 के बीच इस योजना में खर्च हुए 1085 करोड़ रुपये की जांच नहीं की गई। घोटालेबाजों अरबों की लूट के दौरान इस कदर अंधे हो गए थे शाहजहांपुर के स्वास्थ्य केंद्र जलालाबाद में जिस नंबर की गाड़ी को किराए पर दो बार दिखाया गया वह गाड़ी शाहजहांपुर के डीएम की सरकारी कार थी। इसी तरह से 2005-11 के बीच 26 लाख लोगों का नसबंदी करने में नकद राशि देने के लिए 181 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए। सीएजी ने पाया कि मिर्जापुर के चुनार में 10.81 लाख रुपये 1518 पुरुषों को दिए गए, लेकिन भुगतान रजिस्टर में न तो इनका अंगूठा लिया गया और न ही दस्तखत करवाए गए। जहां अंगूठा या दस्तखत लिया गया, वहां राशि अंकित नहीं की गई। साफ जाहिर था कि एकाएक जांच के कारण घोटालेबाजों को रजिस्टर में हेरफेर का भी समय नहीं मिल सका।
उपरोक्त कवर स्टोरी लखनऊ से छपने वाली चर्चित पोलखोल पत्रिका ‘दृष्टांत’ में इसके संपादक अऩूप गुप्ता ने लिखी और प्रकाशित की है. मैग्जीन के संपादक अनूप गुप्ता से संपर्क और इस कवर स्टोरी पर अपनी प्रतिक्रिया [email protected] के माध्यम से पहुंचा सकते हैं.