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सुख-दुख

आज देखिये मीडिया की आजादी का असर, नहीं होने का खामियाजा और सरकारी प्रतिक्रिया

आखिर में पढ़िये, दिल्ली सरकार और भाजपाई उपराज्यपाल

मणिपुर में हफ्तेभर में दूसरे संपादक की गिरफ्तारी, एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट और प्रतिक्रिया याद कीजिये

संजय कुमार सिंह

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यह संयोग ही है कि कल इंडियन ए्क्सप्रेस में भाजपा नेता द्वारा ईडी के दुरुपयोग की खबर छपी और आज सभी अखबारों में पश्चिम बंगाल में टीएमसी नेता के घर छापा मारने गई ईडी की टीम पर हमले की खबर प्रमुखता से छपी है। तीन सरकारी अफसर सेवा के दौरान घायल हुए हैं और यह साधारण बात नहीं है। अमर उजाला की खबर के अनुसार भाजपा-कांग्रेस ने राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग की है। मुझे लगता है कि जब मीडिया से लेकर केंद्र की भाजपा सरकार और ईडी से लेकर तमाम सरकारी विभाग और भाजपा के नेता अपना काम सही ढंग से नहीं कर रहे हैं तब कांग्रेस ने इस मामले में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर अपना काम ठीक ढंग से किया है। यह अलग बात है कि राष्ट्रपति शासन का मतलब भाजपा की सरकार होगा और फिर बंगाल में भी वही होगा जो देश भर में हो रहा है। कायदे से मांग भाजपा सरकार से इस्तीफे की होनी चाहिये।

कहने की जरूरत नहीं है कि ईडी का दुरुपयोग राजनीतिक मामला है और इससे राजनीतिक ढंग से निपटा जाना चाहिये। सत्तारूढ़ दल यही करता दिख रहा है लेकिन उसकी ताकत, मनमानी और दबाव के आगे मीडिया ही नहीं विपक्ष की भी बोलती बंद है। आखिर ईडी के अफसरों पर हमले की स्थिति बनने के लिये भी तो कोई जिम्मेदार होगा? यह ठीक है कि पश्चिम बंगाल की सरकार हमलावरों को नहीं रोक पाई, सुरक्षा का बंदोबस्त ठीक नहीं था, खुफिया जानकारी नहीं मिली आदि। पर क्या पुलिस को छापे की जानकारी थी? अगर स्थानीय पुलिस को इस सरकारी कार्रवाई में शामिल ही नहीं किया गया था तो हमले के लिए राज्य सरकार कैसे जिम्मेदार हो गई? सामान्य स्थितियों में राज्य सरकार हो भी सकती थी पर अभी स्थितियां सामान्य जैसी तो नहीं ही हैं।

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अमर उजाला की खबर के अनुसार, टीम जिस टीएमसी नेता के परिसर पर छापे के लिए गई थी वो मोबाइल लोकेशन के अनुसार घर पर ही थे और दरवाजा खोलने से मना कर दिया। बाद में (आधे घंटे के अंदर) लाठियों, पत्थरों से लैस लोगों ने ईडी टीम और सीआरपीएफ पर हमला कर दिया। मुझे लगता है कि ईडी टीम ने हमले के लिए पर्याप्त समय और मौका दिया तथा वह खतरे को भांप नहीं पाई – यह उसकी अयोग्यता न हो तो अत्यधिक आत्मविश्वास होगा पर मुद्दा यही है कि स्थानीय पुलिस के बिना, सरकारी नौकरी में यह जोखिम लेने की जरूरत क्यों थी?  खबर के अनुसार ईडी (टीम) ने आशंका जताई कि हमला संबंधित नेता के उकसावे पर हुआ लेकिन इसे अप्रत्याशित बताया है। मुझे नहीं लगता है कि ईडी के अधिकारी इतने भोले होते होंगे। जो भी हो, हमला गलत है। क्यों हुआ यह मुद्दा ही नहीं है। बिल्कुल नहीं होना चाहिये था। लेकिन संबंधित अफसरों को अपनी सुरक्षा का ख्याल तो रखना ही चाहिये। कानूनन तो आत्महत्या भी गलत है।   

ईडी केंद्र सरकार या भाजपा की सेना की तरह काम करता दिखता है। ऐसे में उसे सरकारी अफसर और उसके काम को सरकारी लगना-दिखना भी चाहिये। खबरों से नहीं लगता है कि ऐसा था। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार, सीआरपीएफ के हथियारबंद जवानों से घिरे लोगों के समूह को एक स्थानीय नेता के घर में जबरन घुसने के दृश्य से हिंसा की शुरुआत हुई लगती है। ठीक है कि हिन्सा गलत है और नहीं होनी चाहिये। लेकिन स्थानीय पुलिस की मौजदूगी में बात दूसरी होती। स्थानीय लोगों ने अगर ईडी की टीम और छापे की कार्रवाई को जानते समझते या अनजाने में बाहरी मान लिया तो क्या वे अपने नेता के घर में जबरन घुसने वालों को रोकते भी नहीं? 

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यह कानूनन कितना सही है और कितना गलत – इसमें गये बिना यह तो मानना ही पड़ेगा कि स्वाभाविक है और अखबार ने लिखा है कि हिन्सा की शुरुआत इसी से हुई लगती है। निश्चित रूप से हिंसा का कारण राज्य सरकार की लापरवाही या भागीदारी नहीं है। ईडी टीम की छवि या उसकी लापरवाही है। संभव है अपनी शक्ति का अत्यधिक आत्मविश्वास हो। अभी यह मुद्दा नहीं है पर तथ्य यह है उसने पर्याप्त सुरक्षा नहीं ली, लोगों को नहीं बताया या लोग नहीं समझ पाये कि वह सरकारी टीम है। या सरकारी टीम से भी लोगों की नाराजगी है तो वह टीम की नहीं, सरकार की जिम्मेदारी है। आप जानते हैं कि कल ही इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी थी कि ईडी ने दो ऐसे दलित किसान भाइयों के खिलाफ मनी लांडरिंग का केस शुरू कर दिया था जिनके खाते में मात्र 450 रुपये थे।

इसका कारण यह था कि भाजपा का एक स्थानीय नेता इनके खिलाफ था। खबर में लिखा था ईडी को पूरे मामले की जानकारी नहीं थी, तथ्यों को नजरअंदाज किया गया और उसकी गलती रही। संयोग से कल ही पश्चिम बंगाल में यह हादसा हुआ। इस खबर के कारण भले न हुआ हो पर तथ्य तो यही है कि ईडी (सरकार ही नहीं) भाजपा नेता की सेना की तरह भी काम कर रही है। करेगी तो खबरें छपनी चाहिये। छप रही होतीं तो ईडी के अफसरों को भी पता होता और वे सतर्क होते नहीं छपती हैं तो नारजगी का अनुमान नहीं होना स्वाभाविक है और ऐसे में वे गच्चा खा गये, हिंसा के शिकार हुए तो उनसे सहानुभूति जताना ही पर्याप्त नहीं है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि फिर ऐसा नहीं हो। यह पश्चिम बंगाल सरकार का काम नहीं है। इसके लिए ईडी की छवि ठीक करनी होगी और यह उसके सही उपयोग से होगा। प्रचार या राजनीति से नहीं होगा।

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लेकिन हो क्या रहा है? आइये उसे भी समझते हैं, आज ही के अखबारों से। इंडियन एक्सप्रेस की मूल खबर के शीर्षक में कहा गया है, …. राज्यपाल ने कार्रवाई की चेतावनी दी। एक और खबर का शीर्षक है – कोलकाता से दिल्ली, भाजपा में कोरस: ममता इस्तीफा दें, एनआईए जांच होने दें। आज ही खबर है कि ईडी ने शरद पवार के रिश्तेदार के परिसर की भी तलाशी ली। वहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। तो जाहिर है, भाजपा की सरकार होने का असर है। इसे आप दूसरी तरह से भी देख सकते हैं पर अभी वह मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि भाजपा सरकार के शासन में ईडी सिर्फ विपक्षी दलों के नेताओं या विरोधियों के यहां ही छापा मारता है। ऐसे में बंगाल में जो हुआ उसकी जांच स्थानीय पुलिस से नहीं करवाकर एनआईए से कराने की मांग का भी राजनीतिक मतलब है और मुझे नहीं लगता है कि इससे मामला निपटेगा या आसान होगा।

इसका बड़ा कारण मीडिया के प्रति सरकार का रुख और मीडिया के बड़े हिस्से का सरकार को अंध समर्थन भी है। ऐसे में आज ही इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि अदालतों को हिम्मती पत्रकारों के हितों की रक्षा करनी चाहिये। उपशीर्षक है, अवमानना मामले में इंडियन एक्सप्रेस के संपादकों और दूसरों के खिलाफ समन खारिज किये गये। इस खबर के अनुसार अदालत ने कहा है वास्तविक घटनाओं की ईमानदार और सही रिपोर्टिंग सुनिश्चित करने के लिए ऐसे पत्रकारों को अदालतों खासकर संवैधानिक अदालतों की सुरक्षा की आवश्यकता होती है ताकि वे नुकसानदेह खामियाजे के डर के बिना खबरें छाप सकें। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के खिलाफ खबरें नहीं छपती हैं। इसीलिये इंडियन एक्सप्रेस में जो खबर कल छपी थी वह कई साल पुरानी थी। आज भी इस खबर के साथ पहले पन्ने पर उसकी चर्चा की जरूरत किसी और अखबार ने नहीं समझी है।

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दूसरी ओर, टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार राज्यपाल ने कहा है कि वे उपयुक्त कार्रवाई के लिए अपने सभी संवैधानिक विकल्पों को टटोलेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि ईडी के दुरुपयोग के बावजूद महाराष्ट्र की कल की खबर के बावजूद महाराष्ट्र में कल शरद पवार के रिश्तेदार के खिलाफ कार्रवाई का विरोध नहीं हुआ और पश्चिम बंगाल में हुआ तो उसके कारण राजनीतिक हैं। संबंधित नेता की निजी छवि, राजनीति और योग्यता भी हो सकती है। ईडी टीम को इसका अहसास होना चाहिये था। भाजपा अपनी राजनीति कर रही है और इसमें वो आम आदमी या दलित किसान नहीं है जिसे ईडी जांच से परेशान किया गया या भाजपा के किसी नेता की सेवा में ईडी का दुरुपयोग किये जाने के बावजूद पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए कोई अपने संवैधानिक अधिकार नहीं देख रहा है। और यह देश में तथा कुछ राज्यों में भाजपा की डबल इंजन की सरकार के कारण भी है। मंदिर के कारण हुआ ध्रुवीकरण भी हो सकता है।

ईडी टीम पर हमला सरकार की प्रतिनिधि के रूप में उसकी छवि के कारण हो सकता है। भले ही उसे जायज ठहराने की कोई वजह नहीं हो पर समस्या का हल तभी निकलेगा जब खबरें छपने दी जायेंगी। आज टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है, मोरे की रिपोर्ट पर हफ्ते भर में मणिपुर के दूसरे संपादक गिरफ्तार। कहने की जरूरत नहीं है कि मणिपुर में महीनों से जो हालत है उसकी खबर दिल्ली में तो नहीं ही छपती है, सरकारी कार्रवाई क्या हुई है या हो रही है नहीं मालूम है और संपादक की गिरफ्तारी की खबर भी दिल्ली में पहले पन्ने पर नहीं छप है वह भी तब जब इंडियन एक्सप्रेस ने अपने मामले में अदालत के आदेश की खबर छापी है और मणिपुर मामले में संपादकों की कार्रवाई अगर गलत और गिरफ्तार करने लायक है तो उनके काम पर एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट के लिए भी एडिटर्स गिल्ड की टीम के खिलाफ एफआईआर हो गई थी। सब काम पुलिस और भाजपा नहीं कर सकती है। मीडिया का मामला एडिटर्स गिल्ड भी न देखे तो क्या होना है?

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दिल्ली सरकार और भाजपाई उपराज्यपाल

दिल्ली के मोहल्ला क्लिनिक में खराब दवाइयों की सप्लाई की जांच सीआईडी से कराने की उपराज्यपाल की सिफारिश के बाद आज सीबीआई जांच की खबर कुछ अखबारों में छपी है जो खबर कम, आम आदमी पार्टी की सरकार को बदनाम करने की कोशिश ज्यादा है। लेकिन आज हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एख खबर से पता चलता है कि उपराज्यपाल के जरिये केंद्र की भाजपा सरकार कैसे दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दे रही है या अच्छे काम करने से रोक रही है। हिन्दुस्तान टाइम्स में आज छपी खबर का शीर्षक है, फरिश्ते योजना : सुप्रीम कोर्ट ने एलजी से अपना रुख साफ करने के लिए कहा। इस खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना से दिल्ली सरकार की फरिश्ते योजना के लिए धन रोकने पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए कहा है। यह सड़क दुर्घटना पीड़ितों के लिए मुफ्त चिकित्सा उपचार का वादा करती है। अदालत ने यह भी कहा है कि अगर पाया गया कि इस मामले में अदालत को अंधेरे में रखा गया तो लागत वसूली जायेगी।

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अदालत दिल्ली सरकार द्वारा उपराज्यपाल के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इसमें आरोप लगाया गया था कि पिछले एक साल से योजना के लिए धन रुकने के कारण, निजी अस्पतालों को देय ₹7.17 करोड़ का बकाया बढ़ गया है। एलजी का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील संजय जैन द्वारा यह प्रस्तुत करने के बाद कि एलजी का कार्यालय इस मामले में शामिल नहीं था, पीठ ने एलजी से दो सप्ताह में एक हलफनामा दायर करने को कहा है। आप समझ सकते हैं कि एक अच्छी और महत्वपूर्ण सरकारी योजना को लटकाने की कोशिशों को अदलात भी समझ रही है। आदेश भी वैसे ही है। पर खबर? मेरा मानना है कि जो हालत हैं उसकी खबरें ठीक से, स्वतंत्रतापूर्वक नहीं छपेगी तो इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी जो अंततः देश के लिए नुकसानदेह हैं।

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