लेकिन प्रचार अटल सेतु का है जिसपर कार से चलने का किराया विमान से भी ज्यादा है
संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों की खबरों की चर्चा से पहले यह बताना ठीक रहेगा कि लोकसभा के चुनाव की घोषणा करीब है। एक तरफ तो यह उम्मीद की जाती है कि मंदिर के उद्घाटन के तुरंत बाद चुनाव की घोषणा हो सकती है। दूसरी तरफ इसका समय भी करीब है। कहने की जरूरत नहीं है कि मंदिर का उद्घाटन और उससे संबंधित सारा प्रचार भाजपा की चुनावी तैयारियों का हिस्सा है और भाजपा को इससे लाभ मिलने की उम्मीद हो सकती है। यह भी सही है कि 10 साल के अपने शासन के दौरान संघ परिवार ने अगर नरेन्द्र मोदी का विकल्प तैयार नहीं किया है तो नरेन्द्र मोदी ने भी किसी को आस-पास आने से रोकने की हर संभव कोशिश की है। विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप औऱ ईडी सीबीआई की कार्रवाई से लेकर झूठे मीम और प्रचारकों से बदनाम करवाने तक। आईटी सेल की जो भूमिका है वह भी किसी से छिपी हुई नहीं है। राहुल गांधी, उनके मुकाबले कैसे हैं, कद किसका बड़ा है या किसकी कैसी छवि है आदि के विस्तार में गये बगैर यह कहा जा सकता है कि मोदी को टक्कर कांग्रेस और इंडिया गठबंधन से मिल रही है। उसमें राहुल गांधी लोकप्रिय हैं और नरेन्द्र मोदी ही नहीं संघ परिवार के खिलाफ भी खुलकर बोलते हैं और ऐसा करने वाले गिनती के लोगों में हैं।
ऐसे में मेरा मानना है कि चुनावी दृष्टि से निष्पक्ष मीडिया को चाहिये कि राहुल गांधी को बराबर महत्व दे। निजी पसंद-नापसंद से अलग, बेशक प्रधानमंत्री का अपना कद और पद है लेकिन वह आधिकारिक काम में रहे और बाकी में राहुल गांधी को थोड़ा भी महत्व मिल रहा होता तो मीडिया से शिकायत नहीं होती। और इसे समझने के लिए 2014 से पहले की स्थिति को याद कर सकते हैं जब सरकार के खिलाफ बयानों को मीडिया में कैसे महत्व मिलता था। सिर्फ नरेन्द्र मोदी को नहीं किसी को भी। 1,25,000 करोड़ के टूजी घोटाले को भी। अभी तो किसी को पेगासस की चिन्ता नहीं है जिससे उनकी भी जासूसी हो सकती है। ऐसे में राहुल गांधी के बयान नहीं के बराबर छपते हैं। मीडिया उन्हें महत्व नहीं देता है। मुझे लगता है कि देश हित में विपक्ष के नेता को सत्तारूढ़ दल के नेता के बराबर नहीं तो आस-पास महत्व मिलना चाहिये। मैं रोज इसी की चर्चा करता हूं और यही दिखाने-बताने की कोशिश करता हूं। आज भी राहुल गांधी की खबरें नहीं के बराबर हैं पर नवोदय टाइम्स के दूसरे पहले पन्ने पर छपी इन खबरों से पता चलता है कि प्रधानमंत्री को राहुल गांधी के मुकाबले कितना महत्व मिलता है। मैं फिर कह रहा हूं कि ऐसा दूसरे अखबारों में तो नहीं ही है। राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के आस-पास नहीं होते, एक पन्ने पर दोनों की बराबर की फोटो नहीं होती आदि आदि। यहां है तो खबर और फोटो का आकार प्रकार देखिये।
नवोदय टाइम्स के दूसरे पहले पन्ने का हिस्सा
कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों बयान वोट बटोरू हैं, दोनों के अपने चुने हुए मुद्दे हैं और दोनों ही अपनी राजनीति की बात कर रहे हैं। इसमें यह महत्वपूर्ण है कि दोनों क्या बोल रहे हैं और उसी को महत्व दिया जाना चाहिये। इस मामले में बोलने वाला महत्वपूर्ण नहीं है जो बोला जा रहा है वह ज्यादा महत्वपूर्ण है और बोलने वाले को भी महत्व देना हो तो परिवारवाद पर नरेन्द्र मोदी की कथनी और करनी का अंतर कौन नहीं जानता है। ऐसे में 150 के करीब सांसदों के निलंबन के बाद लोगकभा के अगले सत्र से पहले न्याय की बात करना महत्वपूर्ण तो है ही, भारी हिम्मत की बात है। इस समय की भारतीय राजनीति में मंदिर के उद्घाटन में शामिल नहीं होने की घोषणा और उसपर की गई टिप्पणियों के बावजूद। राहुल गांधी की न्याय यात्रा अगर राजनीति है तो नरेन्द्र मोदी का बयान और साथ की तस्वीर राजनीतिक ढोंग के अलावा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री निजी आस्था में यह सब करें तो उसे निजी ही रहने देना चाहिये, ट्वीटर या एक्स पर पोस्ट करके वे सार्वजनिक भी कर सकते हैं लेकिन अखबार क्यों छापे? सामान्य स्थितियों में यह बताने के लिए जरूर छापी जा सकती है कि एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र का निर्वाचित प्रधानमंत्री जो छुट्टी नहीं लेता है, रोज 18 घंटे से भी ज्यादा काम करता है वह अपनी धार्मिक आस्था भी नौकरी करते हुए पूरी करता है और उसके बदले वेतन लेता है फिर प्रधानमंत्री चुने जाने की चाहत रखता है और दंभ भरता है। लेकिन अभी ऐसा नहीं है। इसलिए नवोदय टाइम्स के इस विवेक की चर्चा बनती है।
यह इसलिए भी जरूरी है कि जिसने भी ऐसा किया है उससे किसी ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा होगा। यह उसका अपना निर्णय होगा और तब है जब राहुल गांधी ने कहा है और आज ही द टेलीग्राफ का कोट है, “क्या हमारे सपनों का भारत जीवन की गुणवत्ता से पहचाना जायेगा या भावनात्मकता से? भड़काऊ नारे लगाने वाले युवा या लाभप्रद रोजगार प्राप्त युवा? प्रेम या घृणा?” कहने की जरूरत नहीं है कि इसे भी किसी और अखबार ने नवोदय टाइम्स की तरह अपने पहले पन्ने पर स्थान नहीं दिया है। और बात इतनी ही नहीं है। अमर उजाला की आज की लीड का शीर्षक है, प्राण प्रतिष्ठा से पहले मोदी ने शुरू किया अनुष्ठान, यम नियमों का पालन करेंगे। अखबार ने इसके साथ सिंगल कॉलम में की एक खबर छापी है, कांची के शंकराचार्य विजयेन्द्र सरस्वती ने प्राण प्रतिष्ठा का समर्थन किया। एक और खबर है, वरिष्ठ कांग्रेस नेता कर्ण सिंह ने कहा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राम मंदिर समारोह में शामिल होने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिये। सवाल उठता है कि अगर ऐसा है तो लोगों को मना क्यों किया जा रहा है। और तथ्य यह भी है कि छह दिसंबर 1992 को कारसेवकों से कम या सीमित संख्या में आने की अपील की गई थी? तो अब क्यों? आम आदमी यह सब नहीं समझे, नहीं पूछे। पर अखबार वाले तो समझदार हैं।
अब अगर मैं खबरों की बात करूं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल मुंबई में सेवरी – न्हावाशेवा अटल सेतु का उद्घाटन किया। दिल्ली से छपने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया और कोलकाता के द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। दिल्ली के द हिन्दू में प्रधानमंत्री के भाषण की खबर है, उद्घाटन की खबर अंदर होने की जानकारी है। नवोदय टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। अमर उजाला में है। इस तरह मेरे सात में से पांच अखबारों में सरकारी प्रचार या उपलब्धि की यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे आज पांच कॉलम में लीड बनाया है। नरेन्द्र मोदी की फोटो है और शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा। अटल सेतु संदेश है …. दूरियां कम होंगी, हर कोना जोड़ा जायेगा : मोदी। हिन्दुस्तान टाइम्स में भी चार कॉलम की भव्य फोटो के साथ यह खबर लीड है। शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, मोदी ने समुद्र पर मुंबई का नया चमत्कार शुरू किया। इसके साथ की दूसरी दो कॉलम की खबर का शीर्षक है, प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र में भाजपा के चुनाव अभियान की शुरुआत की, विपक्ष पर धमाका। यहां इंडियन एक्सप्रेस का उपशीर्षक उल्लेखनीय है, मुंबई में भारत के सबसे लंबे समुद्री पुल का उद्घाटन किया, पिछली सरकारों पर चुटकी ली। कहने की जरूरत नहीं है कि मामला पुल बनाने, उद्घाटन और चुटकी या श्रेय लेने का नहीं है।
तथ्य यह है कि आप बीएमडब्ल्यू या ऑडी वाले हों अथवा ओला उबर से चलते हों, इसपर चलने के आठ रुपये प्रति किलोमीटर से ज्यादा लगेंगे। कई मामलों में यह विमान किराये से ज्यादा है। भारत में आपकी गाड़ी न हो तो डिजायर जैसी टैक्सी 12 रुपए किलोमीटर और इनोवा जैसी सात-आठ सीटर 15 रुपये के आस-पास मिल जाती है। टैक्स और टोल छोड़कर सब समेत। ऐसे में कार के लिए आठ रुपए प्रति किलोमीटर बहुत ज्यादा है और जाहिर है यह उन लोगों के लिये नहीं है जो मुफ्त राशन पर जी रहे हैं। पहले की सरकारों पर चुटकी लेने में कोई बुराई नहीं है पर तथ्य यह है कि पहले ऐसी योजनाओं के साथ जरूरत, धन की उपलब्धता, उपयोगकर्ता की हैसियत, व्यावहारिकता और सस्ते विकल्पों का भी ख्याल रखा जाता था। इसके बावजूद मेरे एक मित्र दक्षिण दिल्ली से जनसत्ता के दफ्तर नोएडा आने के लिए उस समय नये बने टोल रोड का उपयोग नहीं करते थे। उन्हें निजामुद्दीन पुल से घूमकर आना सस्ता लगता था। यह तब की बात है जब कारें 10 15 साल में कंडम नहीं होती थीं। अब चलाओ या नहीं, कंडम हो ही जानी है तो कोई घूम कर जायेगा या टोल देगा? बात समय की जरूर है पर उसकी कमी कहां और किसे है?
अब जनता से वसूली का ठेका देकर कमीशन ले लिया जाता हो तो भी कोई पूछने या जवाब देने वाला नहीं है। मुद्दा कर्ज लेकर ऐसी परियोजनाओं की जरूरत और उपयोग की क्षमता का है। पर सरकार है कि उपयोग शुल्क और नियम तय करने में ही मनमानी करती है और उसमें रोज बदलाव होते हैं। इस मामले में भी कल ही शुरुआत हो गई थी। और बात इतनी ही नहीं है। अमर उजाला की आज की लीड का शीर्षक है, प्राण प्रतिष्ठा से पहले मोदी ने शुरू किया अनुष्ठान, यम नियमों का पालन करेंगे। अखबार ने इसके साथ सिंगल कॉलम में एक खबर छापी है, कांची के शंकराचार्य विजयेन्द्र सरस्वती ने प्राण प्रतिष्ठा का समर्थन किया। एक और खबर है, वरिष्ठ कांग्रेस नेता कर्ण सिंह ने कहा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राम मंदिर समारोह में शामिल होने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिये। सवाल उठता है कि अगर ऐसा है तो लोगों को मना क्यों किया जा रहा है। और तथ्य यह भी है कि छह दिसंबर 1992 को कारसेवकों से कम या सीमित संख्या में आने की अपील की गई थी? तो अब क्यों? आम आदमी यह सब नहीं समझे, नहीं पूछे। पर अखबार वाले तो समझदार हैं।
संपादकीय विवेक से छपी इन खबरों के अलावा आज एक और महत्वपूर्ण खबर है जो कई अखबारों में प्रमुखता से नहीं दिखी। खबर के अनुसार आठ साल पहले चेन्नई से 29 लोगों को लेकर पोर्ट ब्लेयर जाने वाला वायुसेना का जो विमान लापता हो गया था उसका मलबा बंगाल की खाड़ी में 3400 मीटर नीचे मिला है। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करने वाले पैनल से मुख्य न्यायाधीश को हटाये जाने वाले नियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर अदालत ने सरकार से जवाब मांगा है। द टेलीग्राफ की खबर है, सुप्रीम कोर्ट का नोटिस – मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन करने में मुख्य न्यायाधीश क्यों नहीं? अमर उजाला में इस खबर का शीर्षक है, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े कानून पर रोक से सुप्रीम कोर्ट का इनकार। उपशीर्षक और दूसरी छोटी खबरों में बहुत सारी बातें हैं। इस लिहाज से मुख्य शीर्षक गलत नहीं है पर अपने ही शीर्षक को मजबूत करने के लिए यह बताया जाना चाहिये था कि अदालत ने इस मामले को अप्रैल तक टाल दिया है। इस तरह अखबारों को यह परवाह नहीं है कि उनके शीर्षक दूसरे अखबारों के मुकाबले उलटे लगते हैं।
द हिन्दू की आज की एक खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश में एक निजी स्कूल की शिक्षिका द्वारा बच्चों से एक मुस्लिम सहपाठी को पिटवाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य अपनी भूमिका निभाने से नाकाम रहा। चार कॉलम की यह खबर दूसरे अखबारों में इतनी प्रमुखता से नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस अखबार में भी प्रधानमंत्री के कहे तो ज्यादा प्रमुखता दी गई है और इसके ऊपर चार कॉलम में प्रधानमंत्री का कहा छपा है। इसके अनुसार प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश में युवा ही वंशवाद की राजनीति को कम कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि पार्टी स्तर पर वंशवाद को बढ़ावा दिया जायेगा तो युवा क्या कर सकते हैं। मैं अपनी ही उम्र के एक राजनीतिक कार्यकर्ता को जानता हूं जिसने राजनीति को चुना था। पर उसे आज तक एक बार भी किसी चुनाव के लिए टिकट नहीं मिला। मुफ्त के पद तो मिलते रहे लेकिन घर चलाने के लिए उसे नौकरी करनी पड़ी। वंशवाद को रोकने के लिए वह क्या कर सकता है जबकि भाषण मेरी तरह वह भी सुन रहा है। इस शीर्षक से जो युवा राजनीति में आयेंगे वे निश्चित रूप से फंसेंगे लेकिन अखबारों को क्या मतलब? कुल मिलाकर, स्पष्ट लग रहा है कि अखबार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में नाकाम हैं। किसी दल की सेवा कर रहे हों तो दीगर है।
ऐसे में प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया है, अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में केवल 11 दिन ही बचे हैं। मेरा सौभाग्य है कि मैं भी इस पुण्य अवसर का साक्षी बनूंगा। प्रभु ने मुझे प्राण प्रतिष्ठा के दौरान, सभी भारतवासियों का प्रतिनिधित्व करने का निमित्त बनाया है। इसे ध्यान में रखते हुए मैं आज से 11 दिन का विशेष अनुष्ठान आरंभ कर रहा हूं। मैं आप सभी जनता-जनार्दन से आशीर्वाद का आकांक्षी हूं। इस समय, अपनी भावनाओं को शब्दों में कह पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन मैंने अपनी तरफ से एक प्रयास किया है…। द टेलीग्राफ ने इस खबर को लीड बनाकर पाठकों को बताया है कि प्रधानमंत्री क्या कह और समझ रहे हैं। आडवाणी ने कहा है और अमर उजाला ने पहले पन्ने पर छाप कर पुष्टि की है, राम मंदिर के लिये नियति ने मोदी को चुना। इसके जरिए प्रधानमंत्री के कहे को मजबूती दी गई है और मैं सोच रहा हूं, मेरा प्रतिनिधित्व नरेन्द्र मोदी कैसे करेंगे? मैंने उन्हें यह अधिकार कब दिया? भले वे निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं।
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