-नीतेश त्रिपाठी-
पिछले कुछ समय से पत्रकारिता का जो पतन हुआ है, अर्नब गोवास्मी ने उसे और रसातल में पहुंचा दिया है. अर्नब एक समय ठीक-ठाक पत्रकार कहे जा रहे थे, जब तक वह टाइम्स नाउ में थे. तब भी उनमें पत्रकारिता की गुंजाइश बची थी, लेकिन जैसे ही वो एक नया चैनल लेकर आए दिनों-दिन वो खुद को पत्रकार से ज्यादा मदारी कहलवाने पर तुल गए. पत्रकारिता में रहते हुए पिछले कई सालों से मैं कोई चैनल नहीं देखता.
लेकिन पिछले कुछ महीनों से सोशल मीडिया पर अर्नब की क्लिप दिख जाती थी, उस क्लिप में अर्नब की भाषा कहीं से भी एक पत्रकार की नहीं थी, अर्नब पत्रकारिता में एक सड़क छाप भाषा का इस्तेमाल करते थे. ये सब देखकर बहुत तकलीफ होती थी कि एक ठीक-ठाक पत्रकार अपनी करनी की वजह से खुद के साथ पत्रकारिता का नाम ख़राब कर रहा है. इसमें बाकी चैनल के पत्रकार भी जिम्मेदार हैं. लेकिन, अर्नब को कौन समझाता.
कई क्लिप देखकर मुझे ऐसा लगता है कि अर्नब दो-चार पैग लगाकर तो डिबेट नहीं कर रहे, क्योंकि अर्नब की भाषा मेरे लिए अप्रत्याशित थी. मुझे यकीन नहीं होता था कि अर्नब सवाल उठाने के लिए ऐ उद्धव, ऐ संजय राउत कहकर क्यों कहते थे. वे सवाल उठाते, लगातार उठाते लेकिन, भाषा की मर्यादा में रहकर…..किसी पर भी शालीन तरीके से भी सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन अर्नब ने पिछले कुछ महीनों में लगातार निराश किया.
अर्नब का तपाक से टीआरपी की रेस में आगे आ जाना बाकी चैनलों को भी खलने लगा और अर्नब बाकी चैनल की आंखों की किरकिरी बन गए. बाजार में ख़बरों के कारोबारी को उनसे रश्क होने लगा. आज अर्नब के लिए कोई चैनल आवाज नहीं उठाएगा क्योंकि पत्रकरिता, पत्रकरिता से ज्यादा व्यापार बन गया है. साथ ही बाकी चैनलों का ये मानना है कि अर्नब अपनी करनी के खुद जिम्मेदार हैं और यह मसला अब अर्नब बनाम महाराष्ट्र सरकार हो गया है. अर्नब पर बैक डोर से बीजेपी की कृपा है. बाकी के कुछ चैनल भी बीजेपी के पपेट हैं, लेकिन अर्नब की रिपब्लिक दुलारा हो गई है. इस बात की तकलीफ भी बाकी के चैनलों को है. होड़ ये रहती है कि सरकार हम पांच में से सबसे ज्यादा किसको मानती है. रही बात बीजेपी की तो वो अक्सर अभिव्यक्ति का क़त्ल करती है, लेकिन चर्चा नहीं होती…पुण्य प्रसून का मामला देख लीजिये…
अर्नब की गिरफ़्तारी अब देशभर में बीजेपी बनाम कांग्रेस शिवसेना हो गई है. उद्धव ठाकरे और संजय राउत जो भी कर रहे हैं वह बदले की ही कार्रवाई है. और इसका भुगतान उन्हें करना होगा. ये सत्ता की तानाशाही का विस्तार है. जो भी हो रहा है बहुत गलत हो रहा है. अर्नब जब दोबारा स्टूडियो में लौटेंगे तो और ज्यादा ताकत और आक्रामकता के साथ. एक पत्रकार होने के नाते मैं खुलकर बोलने के पक्ष में हूं (गाली देने के नहीं) और रहूंगा, इसलिए मैं अर्नब की गिरफ़्तारी की मज़म्मत करता हूं और अर्नब के साथ हूं.
-सचिन श्रीवास्तव-
अर्णब गोस्वामी को आज जिस ढंग से गिरफ्तार किया गया है, उसकी निंदा की जानी चाहिए। महाराष्ट्र पुलिस को दो साल पुराने मामले में अब गिरफ्तारी सूझी है। अगर अर्णब आरोपी थे और उनकी सीधी सीधी संबद्धता नाईक मां—बेटे की आत्महत्या में थी, तो वे अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं हुए? जाहिर है कि जब महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस के खिलाफ अर्णब हमलावर हैं चाहे किसी भी कारण से, कैसे भी, तो इस गिरफ्तारी को सरकार से अदावत का परिणाम माना ही जाएगा।
किसी भी व्यक्ति की इस तरह से गिरफ्तारी जो राजनीतिक विद्वेष के कारण की गई हो, उसका विरोध किया जाना चाहिए। हम करेंगे। जैसे जब देश की सम्मानित यूनिवर्सिटियों के प्रोफसरों, विभिन्न डॉक्टर्स, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को झूठे, मनगढंत मामलों में फंसाकर गिरफ्तार किया गया था, तब किया था। सुधा भारद्वाज से लेकर स्टेन स्वामी तक लंबी लिस्ट है। जैसे हमने कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी का विरोध किया था, जैसे विनोद वर्मा की गिरफ्तारी का विरोध किया था, जैसे अभी हाल ही में फैसल खान की गिरफ्तारी का विरोध किया था।
यह सारा विरोध किसी व्यक्ति की विचारधारा से सहमति या असहमति का नहीं है, उसके जायज या नाजायज कामों पर पर्दा डालने के लिए भी नहीं है, यह विरोध इसलिए है कि कानून अपने काम को राजनीति से प्रेरित होकर नहीं बल्कि समाज में शांति और व्यवस्था कायम रखने के लिए करे।
उम्मीद है, वो जो व्यवस्था के विरोध को अपनी पसंदीदा सरकारों के चश्मे से देखने के आदी हैं, इस हकीकत को समझेंगे कि आखिर उनका नंबर भी आएगा और तब बोलने वाला कोई नहीं होगा।