एक के बाद एक पंजाबी चैनलों के बंद होने के पीछे किसका हाथ? एबीपी चैनल सांझा ने दफ्तर बंद किया और 200 के करीब कर्मियों की छुट्टी की। उन्हें यह कहकर इस्तीफे देने का आदेश दिया कि पंजाब में केबल नेटर्वक उनका चैनल चलाने के लिए तैयार नहीं है। अगर पंजाब सरकार या केबल नेटर्वक किसी चैनल को जबरदस्ती रोकते हैं तो जिस मीडिया कंपनी का राष्ट्रीय स्तर का चैनल हो और वह अपना चैनल बंद करवाने वाले केबल नेटर्वक या सरकार के खिलाफ एक भी खबर तक न चलाए तो इस बात का क्या अर्थ निकलता है। ‘एबीपी सांझा’ बंद हुआ लेकिन एबीपी न्यूज़ (राष्ट्रीय चैनल) ने 10 सेंकड तक की भी कोई न्यूज़ नहीं चलाई। क्या विरोध केवल सरकार के खिलाफ होना चाहिए, कंपनी के खिलाफ नहीं जिसने अपनी मर्जी से प्रोजेक्ट शुरू किया और अचानक ही घाटे का सौदा बताकर बंद कर दिया।
पिछले दो दिन से पंजाब के मीडिया में हाहाकार मचा हुआ है। कारण एबीपी न्यूज के पंजाबी चैनल ‘एबीपी सांझा’ को शुरू होने से पहले अचानक बंद करने का एलान कर दिया गया और 200 के करीब मीडियाकर्मी व अन्य कर्मचारी सड़क पर आ गए। पंजाब में यह पहली घटना नहीं है इससे पहले ‘डे एंड नाइट’ न्यूज़ के बंद होने के कारण भी 200 से ज्यादा लोगों को अपना रोज़गार गवाना पड़ा था। पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार पर केबल नेटवर्क को कंट्रोल करने का आरोप लगता है। इससे पहले भी जी-पंजाबी, पंजाब टुडे, साडा चैनल, परलस पंजाबी, पीबीसी न्यूज़ चैनल, स्टैंडर्ड टीवी, चैनल नंबर-1 व अन्य कुछ पंजाबी टीवी प्रोजेक्टस हैं जो केबल पर एक खास कंपनी का कब्जा होने के कारण चल नहीं पाए।
वैसे तो यह केवल पंजाब का ही मामला ही नहीं बल्कि देश में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां पर केबल नेटर्वक पर सियासी पार्टियों ने कब्जे जमा रखे हैं। जिस पार्टी की भी सरकार आती है उसी का केबल नेटर्वक पर कंट्रोल हो जाता है और टीवी चैनल सरकार के खिलाफ़ चलते हैं उन्हें केबल पर चलने नहीं दिया जाता। ताज़ा घटना घटते ही जो मीडियाकर्मी बेरोजगार हुए उन्होंने कैंडल मार्च कर और प्रेस कांफ्रेंस कर पंजाब सरकार को आरोपी ठहराया। यह मुद्दा काफी समय से गरमाता रहा है और जब भी कभी पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल या उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल से इस बारे में पूछा जाता तो वे साफ तौर पर कहते कि यह दो कम्पनियों के बीच का मामला है सरकार का इसमें कोई दखल नहीं है। सरकार का इस मामले में कितना दखल है या कितना नहीं, इसके बारे में सरकार व विपक्ष की अपनी-अपनी दलीलें हो सकती हैं। लेकिन मैं समझता हूं कि पंजाब में जिस तरह का सिलसिला चल रहा है, वह लोकतंत्र का हनन है। मीडिया को लोकतंत्र का स्तंभ कहा जाता है। लेकिन अगर मीडिया को ही काम नहीं दिया जाएगा तो अच्छी लोकतांत्रिक प्रणाली कैसे चल सकती है।
ऐसे रुझान से तीन बड़े नुकसान हो रहे हैं पहला पंजाबी चैनलों की मार्किट अगर विकसित नहीं होती तो पंजाबी में काम करने वाले मीडियाकर्मी व पत्रकार पीछे रह जायेंगे। इससे भाषा का भी नुकसान होगा और कोई भी व्यक्ति या कंपनी पंजाबी में काम नहीं करेगी। केबल को माफिया की तरह चलाने का सिलसिला पंजाब में कांग्रेस के राज में शुरू हुआ जब पंजाब टुडे को सरकारी चैनल की तरह चलाया गया और तत्कालीन विपक्षी अकाली-भाजपा को मीडिया से ब्लैकआउट कर दिया गया। सत्ता में आते ही अकाली दल से जुडेÞ लोगों ने केबल पर अपना कंट्रोल किया। जैसे कांग्रेस की सरकार में केबल चल रही थी उसी तरह अब चल रही है केवल चेहरे बदल गए हैं।
मैं समझता हूं कि पंजाब में अकाली दल की सरकार है। यह वो पार्टी है जिसने पंजाब, पंजाबी और पंजाबियत के लिए कुर्बानियां दी हैं। इस पार्टी का एक संघर्षमयी इतिहास रहा है। अगर उसके राज में कोई ऐसा काम हो रहा हो जिससे मातृभाषा पंजाबी का नुकसान होता हो तो यह गंभीर चिंतन का विषय होना चाहिए। प्रदेश सरकार के लिए भी और अकाली दल के नेतृत्व के लिए भी। केन्द्र में सरकार रहते हुए कांग्रेस ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे केबल नेटर्वक पर एक खास कंपनी का दबदबा रोका जा सके और मीडिया स्वतंत्र तौर पर काम कर सके। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो वह केबल चला रही थी अब अकाली सत्ता में है तो अब वो चला रहे हैं मसला सिर्फ इतना है कि जो विपक्ष में होता है वो ‘फ्रीडम आॅफ स्पीच’ की बात करता है। इसके साथ-साथ लोगों के रोजगार का मसला भी जुड़ा हुआ है। पिछले 10 सालों में पंजाबी के कई चैनल बंद होने के कारण हजारों मीडियाकर्मी बेरोजगार हो चुके हैं और यह सिलसिला जारी है। इससे भी दुखदायक बात यह है कि अब शायद ही कोई बड़ी कम्पनी पंजाबी चैनल शुरू करने की सोचे। मैं इस हालात के लिए सरकार को क्लीन चिट नहीं दे रहा हूं बल्कि मैं तो कहूंगा कि पंजाब के मुख्यमंत्री को इस मुद्दे पर गंभीर संज्ञान लेना चाहिए और कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जिससे टीवी चैनल स्वतंत्रता से काम कर सकें।
सरकार के साथ-साथ एक और बात यहां करना चाहता हूं वह यह कि केबल माफिया की जब भी हम बात करते हैं तो सबसे पहले निशाना सरकार पर जाता है, सरकार के खिलाफ ही रोष प्रदर्शन शुरू होते हैं। लेकिन पंजाब में जो कुछ हुआ है उसमें एक पहलू ऐसा है जिस पर मीडिया में चर्चा नहीं हुई। मिसाल के तौर पर एबीपी चैनल सांझा ने जब दफ्तर बंद किया और 200 के करीब कर्मियों की छुट्टी की और उन्हें यह कहकर इस्तीफे देने का आदेश दिया कि पंजाब में केबल नेटर्वक उनका चैनल चलाने के लिए तैयार नहीं है। अगर पंजाब सरकार या केबल नेटर्वक किसी चैनल को जबरदस्ती रोकते हैं तो जिस मीडिया कंपनी का राष्ट्रीय स्तर का चैनल हो और वह अपना चैनल बंद करवाने वाले केबल नेटर्वक या सरकार के खिलाफ एक भी खबर तक न चलाए तो इस बात का क्या अर्थ निकलता है। ‘एबीपी सांझा’ बंद हुआ लेकिन एबीपी न्यूज़ (राष्ट्रीय चैनल) ने 10 सेंकड तक की भी कोई न्यूज़ नहीं चलाई। क्या विरोध केवल सरकार के खिलाफ होना चाहिए, कंपनी के खिलाफ नहीं जिसने अपनी मर्जी से प्रोजेक्ट शुरू किया और अचानक ही घाटे का सौदा बताकर बंद कर दिया। यह भी पहली बार नहीं हुआ है पंजाब में जब जी-पंजाबी को केबल नेटर्वक से आफ एयर किया गया तो जी न्यूज़ नेटर्वक ने एसी कोई मुहिम सरकार के खिलाफ़ नहीं चलाई। आखिर कुछ तो दाल में काला है। असल में कार्पोरेट मीडिया के चैनल जिस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं और जो हालात देश में पत्रकारिता के बन गए हैं केबल माफिया की उपज उसी में से होती है। यह किसी एक राज्य या एक राजनीतिक पार्टी का मसला नहीं है। बल्कि यह पूरे सिस्टम की गिरावट दर्शाता है। पंजाब में जब डे एंड नाइट न्यूज चैनल ने छंटनी की तो तब भी किसी टीवी चैनल ने इस मुद्दे को प्रमुखता नहीं दी।
मीडिया को केन्द्र सरकार पर दबाव डालना चाहिए कि वह कोई ऐसा सिस्टम तैयार करे जिससे राजनीतिक पार्टियां या सरकारों का मीडिया पर कंट्रोल न हो। मीडिया जब दूसरे मुद्दों पर सरकारों के खिलाफ मुहिम चला सकता है तो पत्रकारों या निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए क्यों नहीं। लेकिन सवाल यह है कि कार्पोरेट मीडिया ऐसा क्यों नहीं कर रहा। इसके पीछे क्या हित छिपे हैं। कुछ भी हो, फिलहाल यही कहा जा सकता है कि सियासी पाटियों और कार्पोरेट मीडिया के इस दौर में पत्रकार और पत्रकारिता मनफ़ी हो रही है।
लेखक खुशहाल लाली ‘सत्य स्वदेश’ के प्रधान संपादक हैं.