
संजय सिन्हा-
पहले ही मर जाना… मैंने सुना है कि भारत में जो अंग्रेज अफसर राज करने आते थे, उन्हें ब्रिटेन वापस लौटने के बाद अफसरी से मुक्त कर दिया जाता था। उन्हें वहां सामान्य नागरिक की तरह रहना होता था। कारण?
कारण ये था कि अंग्रेज ये मानते थे कि एक गुलाम देश में अफसरी करने के बाद उनके देश के अधिकारी आजाद देश के नागरिकों पर शासन के योग्य नहीं बचे रहते थे। वो जब तक भारत में रहते थे, अंग्रेजी शासन उन्हें यहां हर तरह की मनमानी करने, पूरी सुविधा में जीने की छूट देता था। बड़ा बंगला, बहुत से काम करने वाले लोग, हनक।
लेकिन वही जब इंग्लैंड वापस लौटते तो उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए कहा जाता था। उन्हें उस तरह का पद नहीं दिया जाता था, जिनसे वो वहां के लोगों पर शासन कर सकें।
असल में गुलाम देश पर शासन करने और आजाद देश पर शासन करने में अंतर होता है।
अंग्रेज मुठ्ठी भर थे। वो जानते थे कि पूरी दुनिया पर शासन करने योग्य उनकी गिनती नहीं है। वो अपनी आबादी नहीं बढ़ा सकते थे, लिहाजा उन्होंने अपनी सोच को विस्तार दिया। उनकी उसी सोच से निकली नौकरी थी आईसीएस- इंपीरियल सिविल सर्विसेज। आजादी के बाद उसे नाम मिला इंडियन एडमिनिट्रेटिव सर्विसेज (आईएएस)।
ये नौकरी पूरी तरह अंग्रेजी नौकरी थी। खाल भारतीय, दिमाग अंग्रेजी।
उन्होंने इस नौकरी को डिजाइन इस तरह किया था कि भारत में रहने वाले लोगों के दिमाग में घुस कर भारत के लोग ब्रिटिश हुकूमत बजाएंगे। शासन करने वाले उन लोगों को अहसास कराया जाता था कि वो ईश्वरीय रूप से बाकी लोगों से अधिक श्रेष्ठ हैं। अपनी ही जनता से आप श्रेष्ठ। आप बड़े से बंगले में रहेंगे। घर में हाथ जोड़े आपके लोग ही आपके कारिंदे होंगे। आपके आदेश को सिर झुका कर आपके लोग ही सुनेंगे। ये अंग्रेजों का शानदार प्रयोग था गुलामों पर गुलामों से शासन कराने का। ये अंग्रेजों की ऐसी विद्या थी जिसमें आदमी को लगता था कि वो आजाद हो गया है, पर असल में वो गुलाम हो जाता था।
अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा नाम भले बदल गया, पर आत्मा नहीं बदली। एक तरह से हिंदुस्तानी अंग्रेजियत जिंदा रह गई।
वही कलेक्टर साहब का बंगला। एसपी साहब का बंगला। वही कारिंदे। वही हनक। टूं-टूं करती गाड़ियां। साहबी ठाठ।
ऐसे में जो भी इस सेवा में गया, वो गुलाम बन गया अपनी आदतों का। शासन करने का। पर कब तक? बड़े से बड़े ओहदे पर बैठे आदमी को एक दिन कुर्सी छोड़नी होती है।


मैंने सुना कि पिछले दिनों यूपी में एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी ने खुदखुशी कर ली।
रत्ती भर हैरानी नहीं हुई। मैंने तमाम आला सरकारी अधिकारियों को देखा है जो साठ की उम्र में रिटायर होने के बाद मर जाते हैं। नहीं मरते तो मुर्दा जैसी ज़िंदगी जीते हैं। मरने का इंतज़ार करते हैं।
मैं खुदकुशी को पाप मानता हूं। पर जब आदमी हनक में होता है तो वो इतने पाप कर चुका होता है कि मरने का पाप भी उसके हिस्से का छोटा पाप होता है। मैं खुद एक ब्यूरोक्रेटिक परिवार में पला बढ़ा हूं। मैं शुक्रगुजार हूं अपने पिता का, अपने मामा का, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी आला अधिकारी रहने के बाद खुद को कभी पद का, पैसों का, हनक का गुलाम नहीं बनने दिया, अन्यथा मैंने देखा है कि एक से बढ़ कर एक पूर्व आईएएस, आईपीएस अधिकारी रिटायर हो जाने के बाद लाश बन कर रह जाते हैं। या तो उन्होंने बहुत अवैध कमाई की हो तो उसे मैनेज करने में लगे रहते हैं या फिर जीते जी मरे के समान हो जाते हैं।
मैं मामा के पास रह कर इस सच को समझ लिया था कि ये पढ़ाई आदमी को आजाद नहीं करती, गुलाम बनाती है। पहले अंग्रेजों का गुलाम, फिर अंग्रेजियत का गुलाम। मैंने तमाम पुलिस अधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों को अपने ही लोगों को प्रताड़ित करते देखा है। अंग्रेजों का ये पूरा प्रयोग था ही अपने लोग, अपने लोगों पर शासन करें। यही कारण है कि हमारे यहां आज भी सामान्य आदमी पुलिस को देख कर भागने लगता है। हमारे यहां सार्वजनिक पद पर काम करने वाले ब्रिटिश हुक्मरान की तरह जनता से पेश आने लगते हैं।
ये मानसिकता का अंतर है। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री को ये छूट नहीं है कि वो जनता से खुद को श्रेष्ठ मानें। आजाद देश के नागरिक उनकी उस हनक को नहीं सह सकते हैं। इसीलिए ब्रिटिश अफसर, नेता अपने यहां के लोगों के सामने सहज और सरल रहते हैं। पर हमारे यहां?
प्रधान मंत्री का काफिला निकलेगा तो सड़क साफ हो जाएगी। मुख्य मंत्री चलेंगे तो सन्नाटा पसर जाएगा। आला पुलिस अधिकारी चलेंगे तो टूं टूं सायरन बजने लगेगा। जाइए इंग्लैंड। देख आइए। आप हैरान होंगे, वहां के लोग नहीं, जो उनके प्रधान मंत्री लंदन में आक्सफोर्ड स्ट्रीट पर खरीदारी करते दिख जाएं। अंग्रेजों ने माना था कि आजाद देश के नागरिक किसी की हनक नहीं सह सकते हैं। मैंने अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन को लंदन में किताब की दुकान में खुद किताब खरीदते देखा है।
हमारे यहां तो मान ही लिया गया था/है कि भय बिना प्रीत नहीं। तो भयभीत करना ही शासन का आधार है।
पर कोई किसी को कब तक भयभीत कर सकता है? जब भय खत्म तो प्रीत खत्म।
अब क्या करें?
साठ का ठाठ एक दिन में खत्म। अब कुत्ता घुमाइए। यादों को सहलाइए। पेपर पढ़िए। टीवी देखिए। बच्चों की बातें सुनिए। कैसे जी सकेगा एक आदमी जिसने तीन दशक तक झूठ को जिया हो। जिसने ताली बजाई और काम हो गय हो वो असली संसार में कैसे लौट सकता है?
मैं तो मानता हूं कि और पहले भी कह चुका हू्ं कि सरकार को मंत्रियों और आला अधिकारियों को कभी रिटायर नहीं होने देना चाहिए क्योंकि रिटायर होने के दिन ही कायदे से उनकी मृत्यु हो जाती है। बाकी रही खुदकुशी की बात तो एक दिन वही रास्ता बचेगा मुक्ति का, उनके लिए जिन्होंने कभी आजादी का अर्थ नहीं समझा। जिन्होंने करुणा का अर्थ नहीं जाना।
मरना तो एक दिन सभी को है, पर उनके लिए मृत्यु का आसान रास्ता यही होगा, जिन्होंने पूरी ज़िंदगी लोगों को जीने से रोका होता है।
Comments on “रिटायर हो चुके या होने वाले अफसरों के लिए एक जरूरी पोस्ट”
सारे रिटायर्ड अफसर एक जैसे, भ्रष्ट, आत्मोन्मुख, भगोड़े, अत्याचारी और कायर नहीं होते। मुझ जैसे अनगिनत लोग अंतिम सांस तक प्रभु द्वारा बढ़िया नियुक्ति पर बने रहते हैं। जैसे मुझे प्रभु ने रिटायर नहीं किया।
2015 में रिटायर हुआ। पंद्रह दिन में सरकारी बंगला छोड़ दिया। खुद अपने घर के टॉयलेट, दूध के पैकेट्स सब्ज़ी, फल और सामान सेनेटाइज्ड करता हूं। खतरनाक कोरोना वेव में सपत्नीक मस्त रहा।
देश के बड़े प्रकाशकों के लिए किताबें लिखीं। फिर
66 साल की उम्र में पिछले साल से प्रख्यात आध्यात्मिक गायक अंकित बत्रा के लिए 53 भजन लिखे। एक आध्यात्मिक सीरियल “टू ग्रेट मास्टर्स/जिएं तो जिएं कैसे” के लिरिक्स लिखे, जो जल्दी ही ओटीटी पर रिलीज होगा। दो फिल्मों के लिरिक्स लिखे। जो बन रही हैं। एक फिल्म की स्टोरी एडिट की, जो बहुत तेजी से प्री प्रोडक्शन में जा रही है। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए बच्चों को हर तरह के शोषण और डर से बचने की शिक्षा देनेवाली कहानी की किताब “कमाल का जादू” लिखी जो अनेक भाषाओं में सुपर हिट हो चुकी। मुझे खूब रुपया दिलाया। कई बड़े नेताओं की जीवनियां संपादित और नए सिरे से लिखीं। दिलीप कुमार की निजी और अनजानी जिंदगी पर फैसल फारूखी की किताब का रूपांतरण किया। प्रभात प्रकाशन के लिए डॉ वाल्टर सेमकिव की किताब बॉर्न अगेन का हिंदी रूपांतरण संपादित किया। राजकमल के लिए बारहवें प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की आधिकारिक जीवनी का संपादन किया। इन सभी पर मेरा नाम उतना की बड़ा छपा है जितना लेखक का।
आज भी मैं सुबह 3.40 से अपनी उस पुस्तक पर काम कर रहा हूं जो डेढ़ साल से लिखने की प्रक्रिया में है।
सारे अधिकारी निकम्मे, लाचार, बेहूदे, लालची और वैसे नहीं होते, जैसा इस आलेख से आभास होता है।
आपका आलेख बेशक प्रतिभाओं की बगिया के कैक्टस पौधों का जिक्र है। अंतिम सत्य नहीं।
मुझ जैसे अनगिनत लोग हर दिन एक नए सपने को साकार करने के लिए बिना दवा खाए सोते और बिना अलार्म के तीन और चार बजे के बीच उठ जाते हैं।
शर्मा जी मैं आपकी बात से सहमत हूँ परन्तु आप जैसे कुछ बिरले लोग होते हैं जिन्होंने अधिकारी वाली नोकरी को मानव हित में लगाया होगा।और रिटायर होने के बाद भी अपने को व्यस्त रखते हैं।मैं भी जीवन के 68 वर्ष पूरे कर चुका हूं और लखनऊ के एक अखबार का जिला प्रभारी हूँ।दोनों बेटियां उच्च शिक्षित हैं।मैं भी अभी तक कोई दवा नहीं खाता और अपना नित्य कर्म व नौकरी नियमित रूप से करता हूँ।मेरा मानना है कि अगर आपने नौकरी में या अपने जीवनकाल में किसी से अन्याय नहीं किया है तो भगवान आपको बुढ़ापे में भी स्वस्थ और खुश रक्खेंगे।
आयु में बड़े हैं। अब कोई तर्क नहीं। सिर्फ आपके चरणों में प्रणाम।