Yashwant Singh : बीस साल पहले हम कैसे दिखते थे. क्या होते थे. क्या करते थे. ये तस्वीरें बयान कर रही हैं. अमर उजाला जालंधर की लांचिंग टीम को ट्रेंड करने और लांचिंग स्मूथ बनाने के लिए डेपुटेशन पर कानपुर एडिशन से राजीव सिंह सर (वर्तमान में अमर उजाला लखनऊ के संपादक) के साथ मुझे भी जालंधर भेजा गया था. मैंने तब पहली दफे ट्रेन की एसी कोच में यात्रा की थी. जालंधर में गए तो वहां घुमक्कड़ी भी खूब हुई. बाघा बार्डर से लेकर गोल्डेन टेंपल तक. बहुत से वरिष्ठों से परिचय हुआ. रामेश्वर पांडेय, श्रीकांत अस्थाना, विजय विनीत जी समेत दर्जनों साथियों को जानने-समझने का मौका मिला था. इन तस्वीरों के बहाने भाई विजय विनीत जी ने विस्तार से लिखा है.
Vijay Vineet : फिर आना सरहद पर, आंखों से करेंगे बात! अचानक आज मिली कुछ पुरानी तस्वीरों ने हमारी यादें ताजा कर दीं। वो यादें, जिसे हम आज तक नहीं भूल पाए हैं। भाई श्री राजीव सिंह जी (संपादक-अमर उजाला, लखनऊ) ने करीब बीस बरस पुरानी तस्वीरें भेजीं। उस दौर में न मोबाइल थे, न संचार के उम्दा उपकरण। जनवरी 2000 में हम एक ऐसी जगह पहुंचे थे, जहां दो मुल्कों के लोगों की सोच तेजाबी और भाव दुश्मनों जैसे होते हैं। दोनों में बातें भी होंती हैं, लेकिन जुबां से नहीं, सिर्फ आंखों से।
हम बात कर रहे हैं भारत-पाक सीमा के वाघा बार्डर का। हमारे जत्थे में कुल पांच लोग थे। मेरे और श्री राजीव सिंह जी के अलावा श्री राजेश जेटली (सीनियर डिजाइनर) और श्री यशवंत सिंह (संस्थापक, भड़ास मीडिया)। दरअसल, हम चारो लोग उन दिनों अमर उजाला की उस अहम टीम के प्रमुख हिस्सा थे, जिनके कंधे पर संपादक श्री अतुल माहेश्वरी जी ने पंजाब के जालंधर संस्करण के लांचिंग की जिम्मेदारी सौंपी थी।
जालंधर में हम लोग एक साथ गेस्ट हाउस में रहते थे। करीब तीन महीने तक करते रहे पंजाब का चक्र चक्रमण। अखबारी काम के साथ-साथ गाना-बजाना और खाना-खिलाना चलता रहा। साथी श्रीकांत अस्थाना जी और भाई यशवंत जी तो गजब के खानसामा थे। खाना बनाने और परोसने तक का हुनर हमने इनसे ही सीखा।
भारत-पाक बॉर्डर और उसकी बीटिंग सेरेमनी देखने के लिए हम सभी काफी उत्साहित थे। अचानक योजना बनी और हम वाघा बार्डर के लिए निकल पड़े। सुबह जालंधर से निकले और दोपहर से पहले अमृतसर पहुंच गए। स्वर्णमंदिर में मत्था टेका। बाद में जलियांवाला बाग भी देखा। फिर अटारी की ओर चल पड़े।
स्वर्ण मंदिर के बाद पंजाब में आकर्षण का बड़ा केंद्र वाघा बॉर्डर और उसकी बीटिंग सेरेमनी ही होती है। वहां जाने पर पता चला कि वो तो अटारी बॉर्डर है। वाघा बॉर्डर तो पाकिस्तान की सरहद में है। न जाने क्यूं लोग उसे वाघा बॉर्डर कहते हैं? अटारी गांव भारत की सरहद में है और वाघा, पाकिस्तान की सीमा में। दरअसल, बार्डर से सटा एक गांव है वाघा।
अमृतसर से करीब 30 किमी दूर है वाघा-अटारी बॉर्डर। पाकिस्तान की राजधानी लाहौर से बॉर्डर की दूरी भी करीब-करीब इतनी ही है। बीटिंग सेरेमनी सूर्यास्त के समय होती है, जो कि गर्मियों में अमूनन शाम 5.30 बजे और सर्दियों में 3.30 के आसपास। बार्डर का गेट खुलने का समय 3.30 बजे का होता है। सेरेमनी में शामिल होने की कोई फीस नहीं है और अंदर रेफ्रेशमेंट्स के लिए पैसे देकर खाने-पीने के जरूरी सामान खरीदे जा सकते हैं।
वाघा बार्डर पर भीतर प्रवेश करने के लिए न तो कोई फीस लगती है, न कोई एडवांस बुकिंग का प्रावधान है। वहां कोई व्यवस्थित इंतजाम भी नहीं होता। वाघा बार्डर पर बस आपको एक ऐसी भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है, जिसके अंदर दुश्मन के प्रति नफरत और दिल में पागलपन का जुनून सवार रहता है। दोनों मुल्कों के लोग धैर्य के साथ मिलन का इंतजार करते हैं। गेट खुलते ही पगलाई भीड़ सुरक्षा द्वार की ओर दौड़ने लगती है। जब दोनों मुल्कों के लोगों का आमना-सामना होता है तो जुबां बंद हो जाती है। न कोई बातचीत, न चिट्ठी, न संदेश। बात होती है, मगर सिर्फ आंखों से। दोनों मुल्कों के लोग एक दूसरे को टुकुर-टुकर निहारते रहते हैं। बोलते कुछ भी नहीं। थोड़ी देर में सुरक्षाकर्मी दूसरों को मौका देने लिए आगे बढ़ने का संकेत देने लगते हैं।
वाघा बार्ड की एंट्रेंस पर पहुंचने के बाद हम सभी को काफी इंतजार करना पड़ा। यहां पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग लाइन थी। दूसरे भारतीयों की तरह हम भी जोशीले देशभक्ति से ओत-प्रोत थे। उस समय ऐसा लग रहा था कि गेट खुलते ही भारत की शान में नारे लगाने वाले पाकिस्तान की सीमा में घुसकर एक तगड़ा युद्ध छेड़ देंगे। एक-एक फीट का साफा बांधे जवान जब परेड के लिए उतरे तो माहौल भक्ति भाव से भर उठा। मूछों पर ताव भरते, सीना फुलाए भारतीय जवानों ने जब पाकिस्तानी सुरक्षाबलों की आंखों में आंख डालकर देखा तो भीड़ नारेबाजी करने लगी। बीटिंग सेरेमनी ने ऐसा समा बाधा लोगों की रगों में बह रहा खून गर्म हो उठा। इसी बीच सबके लिए गेट खोल दिए गए। हर किसी ने दौड़ लगाने के लिए पूरी ताकत झोंकी और सिक्यूरिटी चेक गेट के बाहर एक लाइन में खड़े हो गए। सुरक्षा जांच की प्रक्रिया पूरी होने के बाद सभी पर्यटक स्टेडियम की ओर भागे।
जुनूनी लोग फोटोग्राफी करते रहे और देशभक्ति में डूबे हम लोग पाकिस्तानियों से आंखों-आंखों से बात करने लगे। सचमुच उस समय हमें एहसास हुआ कि पाकिस्तानियों को लेकर हमारे मन में तेजाबी नफरत और घृणा बेवजह है। हमारी तरह वो भी प्यार के भूखे हैं और बेवजह की नफरत मिटाना चाहते हैं। यह बात भी समझ में आई की ये नफरत दोनों मुल्कों के सत्तालोलुपों द्वारा गढ़े गए सेंटिमेंटल राग और नारों से उपजी है। पाकिस्तानियों से हमारी बातें भले ही नहीं हुईं, लेकिन उनकी कातर निगाहों को हमने शिद्दत से पढ़ा। मानों वो कह रहे हों, ‘फिर आना सरहद पर। फिर करेंगे आंखों-आखों से बात और समा जाएंगे एक-दूसरे के दिलों में…।’
Raghavendra Pathak
December 2, 2020 at 9:31 pm
उसी साल यानी 1999 के दिसंबर महीने में मैं भी जालंधर में अमर उजाला की टीम से जुड़ा था। यशवंत जी आपका सहयोगात्मक व्यवहार मुझे इन वर्षों में हमेशा याद रहा है। मैं वहां आठ वर्षों तक तब तक रहा, जब तक कि नोएडा मेरा ट्रांसफर नहीं हो गया। उस टीम में मुझे रामेश्वर पांडेय जी भी हमेशा याद रहेंगे, जिन्होंने हमेशा अपना बड़प्पन वाला व्यवहार हर टीम मेंबर के साथ बरकरार रखा।