प्रवीण झा-
आज की दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों को समझने के लिए एक फ़िल्म है ‘अमेरिकन फ़ैक्ट्री’।
अमरीका की कई मैनुफ़ैक्चरिंग कंपनियाँ जब बंद होने लगी, शहर के शहर बेरोज़गार हो गए। उस समय चीन की कंपनियों ने इन्हें सस्ते दाम पर खरीदना शुरू किया। डेटन (ओहायो) में जनरल मोटर्स की एक फ़ैक्ट्री को चीन की फुआयो नामक कंपनी खरीदती है। लगभग दो साल से बेरोज़गार अमरीकी कर्मियों को वापस नौकरी मिल जाती है। लेकिन, अब मालिक एक चीन के उद्योगपति हैं, तो राज भी उनका है। अधिकांश मुख्य कर्मी भी चीनी। वे भाषा चीनी ही बोलते हैं, और दुभाषिए अन्य कर्मियों को समझाते हैं।
इस मध्य एक सीनेटर आकर भाषण देते हैं कि हमारे क्षेत्र में मजदूर यूनियन की लंबी परंपरा है। इस पर कंपनी के मालिक कहते हैं कि चीन में ऐसी कोई परंपरा नहीं। वह धमकाते हैं कि इस सीनेटर को कंपनी में घुसने की इजाज़त न दी जाए, वरना तुम सब की नौकरी चली जाएगी। यहाँ सिर्फ़ काम होगा, कोई यूनियनबाज़ी नहीं।
अमरीकी धीरे-धीरे यह महसूस करने लगते हैं कि उनका अमरीकीपन खत्म हो रहा है, उनकी आज़ादी छिन रही है। ये चीनी अमरीका को भी चीन बना रहे हैं। एक-एक ग़लती पर डाँट पड़ रही है, पैसे काटे जा रहे हैं। श्रम और सुरक्षा कानूनों को ताक पर रखा जा रहा है। यहाँ तक कि चीनी वास्तुशास्त्र के हिसाब से चीजें बदली जा रही है। अमरीकियों की भेष-भूषा, रहन-सहन सब कुछ चीनी किया जा रहा है।
पूँजीवाद की इन दो संस्कृतियों का द्वंद्व अभिनय के माध्यम से नहीं, बल्कि सीधे-सीधे रिकॉर्ड कर वृत्तचित्र रूप में दिखाया गया है। सभी पात्र असली हैं, संवाद लाइव है। ऑस्कर वगैरा तो खैर यह जीत ही चुकी है।
इससे एक झलक मिलेगी कि दुनिया कहाँ जा रही है।
मिथिलेश प्रियदर्शी-
4 अक्टूबर 1996 की बात है। केरल का पलक्कड़ जिला। ख़ुद को ‘Ayyankali Pada’ का सदस्य बताने वाले चार लोगों ने पलक्कड़ के जिलाधिकारी को उन्हीं के कार्यालय में बंधक बना लिया।
उनकी बस एक माँग थी- आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने वाले कानून को वापिस लिया जाए।
मलयालम फ़िल्म ‘Pada’ इसी घटना पर आधारित एक शानदार फ़िल्म है। ऐसी फिल्में मलयालम, तमिल, मराठी में ही सम्भव हैं।
दिलचस्पी हो तो प्राइम की ओर रुख करें।
Digvijay Singh
March 30, 2022 at 10:59 pm
दूसरी फिल्म का नाम नहीं बताया आपने