अमरीक-
धीरे-धीरे मैं किनारे होने लगा; उपेक्षित भी
दिवंगत रामेश्वर पांडे पर लिखी श्रृंखला को लेकर कई फोन आए। शायद वे लोग सीधे वॉल पर टिप्पणी नहीं करना चाहते होंगे। मेरे एक प्रिय मित्र का कहना था कि तुमने पांडे जी को ‘देवता’ बना दिया है। मेरा जवाब था कि ऐसा तो नहीं है, देवता के गुनाह भी मैंने बखूबी आगे रखे हैं। किसी न किसी रूप में। जरूरी नहीं कि मेरी समझ और रिश्ता किसी दूसरे की समझ में भी वैसे का वैसा ही आए।
टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका ‘धर्मयुग’ से प्रशिक्षित उदयन शर्मा, बाद में पहले एमजे अकबर और फिर सुरेंद्र प्रताप सिंह (जिन्हें एसपी के नाम से ज्यादा जाना जाता है) के संपादन में आनंद बाजार पत्रिका समूह से निकलने वाली हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ के दिल्ली स्थित विशेष संवाददाता नियुक्त हुए। एसपी सिंह के बाद वह रविवार के संपादक बनाए गए। फिर अंबानी ग्रुप के ‘संडे ऑब्जर्वर’ के संपादक बने और पत्रकारिता में आखिरी पड़ाव ‘अमर उजाला’ था। वहां वह वरिष्ठ पद पर थे।
रविवार के लिए हिंदी में जो रिपोर्टिंग समस्याग्रस्त पंजाब की उदयन शर्मा ने की, वैसी शायद किसी और ने नहीं। बेबाक, निर्भीक और निष्पक्ष। जिन सिख बुद्धिजीवियों, अकाली नेताओं और हथियारबंद आतंकवादियों को हिंदी पढ़नी नहीं आती थी, वे भी रविवार खरीद कर किसी हिंदी पढ़ने वाले से उदयन शर्मा की रिपोर्टिंग पढ़वाया करते थे। वह चंडीगढ़ या पंजाब कदम रखते थे तो राज्य सरकार का खुफिया विभाग उनके पीछे लग जाता था। उदयन शर्मा की खासियत यह थी कि वह दिल्ली में बंद कमरे में बैठकर पंजाब पर नहीं लिखते थे बल्कि खुद महीने में लगभग एक बार पंजाब जरूर आते थे। पंजाब पर निकले रविवार के तमाम अंक नजीर हैं।
खैर, वह अमर उजाला में थे जब उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। मैं उनका प्रशंसक था। मुझे बहुत धक्का लगा। संपादकीय पेज के लिए मिडिल आर्टिकल लिखकर मैंने नोएडा मोडम के जरिए श्री राजेश रपरिया को भिजवाया। शाम को पांडे जी को नोएडा संपादकीय पृष्ठ के डेस्क से संदेश मिला कि इस लेख में कुछ पंक्तियां और जोड़ दी जाएं। पांडे जी को तो मालूम ही नहीं था कि मैंने अपने तौर पर लेख लिखकर नोएडा भेजा है। उन्होंने मुझे बुलाया और बस इतना पूछा कि क्या तुमने उदयन शर्मा पर कुछ लिखकर नोएडा भेजा है। स्वाभाविक है कि जवाब हां में होता। इसके बाद उन्होंने कहा कि क्या राजेशजी ने तुमसे यह सामग्री मांगी थी? मैंने कहा नहीं सर, मैं उदयन जी का मुरीद हूं, इसलिए खुद ही लिख कर भेज दिया। पहली बार उन्होंने कहा कि नोएडा कुछ भेजने से पहले मुझसे इजाजत लेना बहुत जरूरी है। वह लेख नहीं छपा। बताया गया कि कुछ पंक्तियां और लेखक की ओर से जुड़ जातीं तो प्रकाशित हो जाता। यह बात कमोबेश जालंधर दफ्तर में फैल चुकी थी।
कहने वाले मेरे मुंह पर यह तक कह देते थे कि अब पांडे जी तुम्हारे पर कतरने पर आ गए हैं। देखना, क्या हश्र होता है? काफी बाद मैंने रविवारी पत्रिका के लिए अमृतसर जाकर, पूरी सामग्री जुटा कर और फिर लिखकर पांडे जी के सुपुर्द कर दी। कहा कि देखने का कष्ट करेंगे कि यह रविवारी मैगजीन में लगने लायक है या नहीं। पांडे जी ने उसे नोएडा भेज दिया और वह अगले हफ्ते ‘कोख में कैद’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। एक और कवर स्टोरी कुछ हफ्तों के बाद छपी। भड़काने-उकसाने वालों के मुंह बंद! वैसे भी मैं उनकी परवाह करता ही नहीं था। अति उत्साह में एक विशेष रिपोर्ट और लिखी जो (बाद में पता चला कि) प्रकाशनार्थ नोएडा भेजी ही नहीं गई। इसे मैंने संपादकीय नीति और संपादक के विशेषाधिकार का मामला समझा।
पंजाबी अखबारों पर मेरा एक सप्ताहिक स्तंभ नियमित रूप से पंजाब संस्करण में जाता था। कामकाज के लिहाज से पांडे जी के दो लोग बेहद करीब थे। कहिए कि एक दायां हाथ और दूसरा बायां। क्रमशः समाचार संपादक शिवकमार विवेक और मुख्य उपसंपादक एसके सिंह। बड़ी हैरानी हुई कि पहले एसके सिंह ने कहा कि इस स्तंभ को आप बंद कर दीजिए और उसके बाद विवेकजी ने अलग से कहा। इस बाबत मैंने पांडे जी से कोई बात नहीं की। फीचर पेजों पर भी मुझे स्पेस कम मिलने लगा। जबकि मैं प्रभारी की भूमिका में था। अलबत्ता मेरा लोकप्रिय स्तंभ ‘इन दिनों’ जरूर जाता रहा।
एक दिन परिशिष्ट बन गया था और फीचर विभाग के ही एक सज्जन आए और कहा कि इस बार आपका नहीं लीड आर्टिकल मेरा छपेगा। पांडे जी ने एसके सिंह के जरिए यह संदेश/आदेश पारित किया है। मेरा आलेख फौरन हटा दिया गया और उन सज्जन का लग गया। वह आलेख उसी दिन लिखा गया था। इसके बाद कई ऐसी घटनाएं हुईं जो मेरी समझ से बाहर थीं। श्री रामेश्वर पांडे से निजी रिश्तो में इस सबको लेकर कोई खटास नहीं आई। हां, मेरा मजाक जरूर मेरी पीठ पीछे उड़ाने वाले उड़ाते रहे।
एक दिन मैं पांडे जी के केबिन में गया और उनसे कहा कि आप मेरा तबादला कहीं और कर दीजिए। अब यहां घुटन महसूस होती है। उन्होंने कहा कि मैं तो तुम्हारे साथ हूं ना! मैंने फिर आग्रह किया तो जवाब मिला कि कोई और संपादक शायद तुम्हें झेल न पाए। समझ न पाए। उस दिन बेमन से मैं पांडे जी के कहने से रसरंजन के लिए रुका और यह भी मेरे लिए हैरानी की बात थी कि डॉल्फिन की बजाय किसी और बार में बैठा गया। पांडे जी और मैंने ऑफिस की कोई बात नहीं की। अगली दोपहर मुझे बुलाकर कहा गया कि फैसला हुआ है कि एक पेज को छोड़कर फीचर के तमाम पृष्ठ एक बार बंद कर दिए जाएं। जबकि उन्हें ठीक-ठाक लोकप्रियता हासिल थी। कहा गया कि वह इकलौता पेज भी तुम्हें अपने बूते संभालना है। एक कहानी जाएगी, दो कविताएं और बाकी साहित्यिक लेख। शेष साथियों को अलग-अलग डेस्क पर भेजा जा रहा है। सब मेरे दोस्त थे लेकिन उन्हें भी उतना ही मालूम था जितना संपादक ने मुझे अपने केबिन में बुलाकर बताया था।
मैंने पांडे जी से कहा कि मुझे लेआउट तैयार करने की ज्यादा समझ नहीं है और पेज बनाना नहीं आता। सामग्री को सजा जरूर लेता हूं। मैं तो अब तक सामग्री जुटाने और संपादन का काम करता रहा हूं या खुद लिखने का। यह मेरे लिए बेहद मुश्किल है। थोड़े कठोर स्वर में पांडे जी ने कहा कि यह तो करना ही पड़ेगा बाबू। अगले दिन मैंने लंबी छुट्टी ले ली और फिर पैसों के लेन-देन में नाम आने के बाद मैंने दफ्तर जाना ही छोड़ दिया। बुलावे के बावजूद।
रामेश्वर पांडे जी का पूरा नेरेटिव मेरी समझ से बाहर था। धीरे-धीरे समझ भी गया और पाया कि खुद ही इसके लिए गुनाहगार हूं और अब जो कुछ हो रहा है वह शायद ‘सजा’ के बतौर हो रहा है। मेरा एक अग्रज प्यारा दोस्त सिटी ऑफिस में रिपोर्टर था। चीफ रिपोर्टर युसूफ किरमानी के प्रति पांडे जी के मन में कोई भ्रांति आ गई। किसी एक ने नहीं बल्कि कईयों ने उनके कान भरे। मेरे उस भाई जैसे दोस्त ने किरमानी को कहा कि यह सब अमरीक का किया धरा है।
उसी ने मुझे कहा कि जो सुलूक इन दिनों तुम्हारे साथ दफ्तर में हो रहा है, उसके पीछे युसूफ किरमानी हैं। मैं रत्ती भर भी मानने को तैयार नहीं था और आज भी नहीं मानता। युसूफ किरमानी ने मुझे छोटे भाई जैसा प्यार हमेशा दिया है। दो रातों के लिए अपने घर भी रखा। बहुत एतराम के साथ। उनकी साफ दिली का मैं कायल था। उन्हें अमर उजाला आने से बहुत पहले से जानता था। उनका नाम ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘दिनमान’ की रपटों में अक्सर पढ़ा करता था। एक बार वह मेरे गृह नगर सिरसा आए तो हम लोग लगभग साथ-साथ रहे। युसूफ भाई ने जब मुझे पहली बार अमर उजाला के जालंधर सिटी कार्यालय में देखा था तो बेहद खुश हुए थे। संशय का कोई सवाल ही नहीं था।
पांडे जी से तो मैं बहुत जूनियर था, युसूफ किरमानी से भी कनिष्ठ था। लेकिन कोई तो था जिसने हमारे रिश्तों में उथल-पुथल मचा दी। जब मैं दैनिक जागरण चला आया तो कुछ दिन इस बाबत सोचा और फिर इस ओर से ध्यान पूरी तरह हटा लिया। बेशक श्री रामेश्वर पांडे ने कहा था कि तुम्हें यहां ससम्मान विशेष संवाददाता बनाकर लाया जाएगा। स्मृतियों की खिड़की से आज यह प्रसंग पता नहीं कैसे भीतर चला आया। आ ही गया तो साझा कर लिया।