चंद्र भूषण-
नहीं बनेंगे ‘एनिमल’, अल्फा मेल की सचाई समझें… असल चिंता पर्दे पर दिख रही एक्सट्रीम वायलेंस को लेकर होनी चाहिए, जो इंटरनेट के जरिये हासिल होने वाले मनोरंजन, यानी ओटीटी के कंधों पर सवार होकर मुख्यधारा का हिस्सा बनती जा रही है। रणबीर कपूर की काफी लोकप्रिय फिल्म ‘एनिमल’ ऐसी बहुत सारी संभावित ‘सुपर-डुपर हिट्स’ में से एक है। खूनखराबे की थीम पर हजार तरह की फिल्में बनाई जा सकती हैं, बन भी रही हैं। लेकिन एनिमल ऐसी फिल्मों के लिए रोल मॉडल नहीं बनने जा रही। ठीक उसी तरह, जैसे इसी डायरेक्टर संदीप रेड्डी वंगा की पिछली हिंदी फिल्म ‘कबीर सिंह’ (तेलगू नाम ‘अर्जुन रेड्डी’) चली तो खूब, लेकिन उसे हिट फॉर्मूला मानकर उसके रास्ते पर बढ़ने की कोशिश किसी ने नहीं की।
साथ रखकर देखना हो तो ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ में कहानी के स्तर पर कुछ भी साझा नहीं है। कबीर सिंह अंततः एक रोमांटिक फिल्म है। एंगर-इश्यू से ग्रस्त एक व्यक्ति का टूटा-बिखरा, नाकामी की हदें पार कर जाने के बाद भी ‘द हैपी एंड’ तक पहुंचा रोमांस। इसके उलट, एनिमल का दायरा एक माचो मर्द की व्याख्या तक सीमित है, जिसके जीवन में पारिवारिक रिश्ते, प्रेम, विवाह, संरक्षण, बदला वगैरह भी आते हैं, लेकिन इस व्यक्तित्व पर उनका कोई निर्णायक प्रभाव नहीं देखने को मिलता। ऐसी कहानियां अपने पीछे कोई ट्रेंड नहीं बनातीं। एक्सट्रीम वायलेंस वाली एक और फिल्म ‘गजनी’ की तरह आती हैं, लोगों का ध्यान खींचती हैं और कोई सिलसिला बनाए बगैर चली जाती हैं।
सामाजिक प्रेक्षकों को इसमें आई ‘अल्फा मेल’ वाली बात इस लिहाज से चिंतित कर रही है कि यह जोर-जबर्दस्ती कहीं फिल्मी हीरो का मिजाज ही न बन जाए। यह चिंता ‘एनिमल’ के असर में आकर फिल्मों का माहौल बदल जाने को लेकर नहीं, समाज पर इस फिल्म के प्रभाव को लेकर करना ज्यादा उचित रहेगा। खासकर उजड्डपने को एक दलील मिल जाने से रैगिंग और स्कूली मारपीट की घटनाएं बढ़ जाने और परिष्कृत अभिरुचि, कलात्मक मिजाज वाले टीनेज लड़कों में इसे देखकर किसी मायने में खुद को कमतर मान लेने को लेकर। इसका आधार निश्चित रूप से एक झूठी, कन्फ्यूज्ड और भ्रामक धारणा ही होगी, लेकिन समाज के एक हिस्से पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
‘अल्फा मेल’ का जुमला सबसे पहले मध्य अफ्रीकी चिंपांजियों के अध्ययन के क्रम में साठ के दशक में उछला था। उनके सामाजिक व्यवहार पर नजर रखते हुए यह पाया गया था कि इस वानरजाति के हर झुंड में हमले और बचाव, दोनों स्थितियों में एक अकेला नर ही लड़ाई का नेतृत्व करता है। लड़ता पूरा झुंड है, लेकिन अपने इस नेता की नजर देखकर। इस अल्फा मेल के दो और खास पहलू पहचाने गए, जिनपर ‘कॉरपोरेट व्यक्तित्वों’ के साथ ऐसी चिप्पियां चेपने वाले गॉसिप इंटेलेक्चुअल कम चर्चा करते हैं। एक यह कि झुंड की मादाओं से संभोग करने का और दूसरा, जिस भी भोजन-पानी तक झुंड की पहुंच बने, उसे खाने-पीने का पहला हक इन्हीं का होता है। बाकियों का नंबर इनके छक लेने के बाद आता है।
बाद में इससे मिलती-जुलती प्रवृत्तियां चूहे और गिलहरी से लेकर शेर और हाथियों में भी दर्ज की गई और इसकी बहुत सारी वजहें खोजी गईं। लेकिन पता नहीं क्यों इस बात को लेकर उतनी चर्चा नहीं हुई कि बंदरों की ही कुछ जातियों में, मसलन मैकाक्स में अल्फा मेल नहीं, ‘अल्फा फीमेल’ की प्रवृत्ति देखी जाती है। पक्षियों और हिरनों की कुछ जातियों में नर-मादा का एक जोड़ा भोजन और आश्रय खोजने आगे जाता है, जिसे ‘अल्फा कपल’ कहते हैं।
इथोलॉजी नाम का एक विज्ञान, जिसमें जंतुओं के सामाजिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है, इक्कीसवीं सदी में बहुत गहराई तक जा रहा है और आगे चलकर कुछ जटिल इंसानी प्रवृत्तियों को समझने में भी इसका फायदा उठाया जा सकता है। लेकिन समाज विज्ञानियों और राजनेताओं से ज्यादा यह रुझान सिलेब्रिटीज के बीच में विचार का धंधा करने वालों में देखा जाता है कि वे प्राकृतिक विज्ञानों की खोजबीन में बन रही धारणाओं को अधकचरे ढंग से इंसानों पर भी लागू करने लगते हैं। जैसे, डार्विन की इवॉल्यूशन थिअरी का शुरू में व्यापक विरोध हुआ, लेकिन फिर देखते-देखते इसको उपनिवेशवाद से लेकर नस्लवाद और नाजीवाद तक के ‘वैज्ञानिक तर्क’ की तरह पेश किया जाने लगा।
चींटियों और मधुमक्खियों से लगाकर लकड़बग्घों और सारसों तक समूह में रहने वाले सभी जीवों में समाज के व्यवस्थित ढांचे की पहचान काफी पहले की जा चुकी है। रानी चींटी या रानी मधुमक्खी जैसे नाम हजारों छोटे जीवों में एक-दो की अलग शक्ल देखकर दिए गए थे। अल्फा मेल, अल्फा फीमेल या अल्फा कपल की खासियत यह होती है कि उनकी शक्ल अपनी जाति के बाकी जीवों से बिल्कुल अलग नहीं होती। उनका फर्क सिर्फ व्यवहार के स्तर पर दिखाई पड़ता है और उनकी भूमिका भी हर बार लड़ाई-भिड़ाई की ही नहीं होती। कई जीवों में नेता की पहचान खाना या पानी खोजने में अगुआ भूमिका निभाने से होती है और झुंड सालोंसाल उसके पीछे चलता रहता है।
अल्फा जीवों का कमजोर पहलू उनका कम जिंदा रह पाना है, और इस पहलू पर तो शायद बहुत ही कम बात हुई है। हमले और बचाव में आगे रहने के कारण उनके मारे जाने की संभावना बढ़ जाती है, यह एक बात है। दूसरी बात, ऐसी स्थितियां न होने पर भी अपनी जान देकर झुंड के बाकी सदस्यों, खासकर बच्चों की जान बचाने की प्रवृत्ति उनमें देखी जाती है। हमारे करीबी जीवों में यहां गिलहरियों और नेवलों में ऐसा देखने को मिलता है, जहां अगुआ पानी या खाने की खोज में पहले सड़क पार करता है और कई बार गाड़ियों से कुचलकर मारा जाता है। अल्फा मेल के कम जिंदा रहने का दूसरा कारण दो खास हारमोन हैं, जिनके चलते उनका मेटाबोलिज्म बहुत तेज हो जाता है और वे जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। ऐसे लक्षण दिखाई देते ही, खासकर शिकारी जीवजातियों में पिछली पांत के युवा नर उन्हें मार डालते हैं।