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अर्णब पत्रकार नहीं, सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और सफल बिजनेसमैन है!

-निरंजन परिहार

अर्णब की ताकत के मुकाबले शिवसेना का सच! अर्णब दिखने में भले ही पत्रकार हैं, लेकिन उनकी रगों और धमनियों में बहता रक्त शुद्ध रूप से राजनीतिक है। पैसे की कमी उन्हें कभी खली नहीं और शान से जीना उनके शौक का हिस्सा है। असम के बरपेटा जिले के अर्णब गोस्वामी के दादा रजनीकांत उस जमाने में देश के जाने-माने वकील और बड़े कांग्रेसी नेता थे, और नाना गौरीशंकर भट्टाचार्य कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं में शामिल थे और बुद्धिजीवी होने के नाते तब की राजनीति के थिंक टैंक माने जाते थे। अर्णब के नाना असम में कई साल तक विपक्ष के नेता रहे।

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अर्णब गोस्वामी के ताऊ दिनेश गोस्वामी तीन बार सांसद रहे और केंद्र सरकार में कानून मंत्री भी रहे, वे असम गण परिषद के नेता थे। सेना में कर्नल रहे अर्णब के पिता मनोरंजन गोस्वामी बीजेपी के नेता रहे और उन्होंने 1998 में गुवाहाटी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा। बचपन से ही राजनीति के सारे रंग देखते, जानते, समझते, सीखते हुए वर्तमान तक पहुंचे अर्णब गोस्वामी की कहानी विविधता और विचित्रताओं से भरी है।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से सोशल एंथ्रॉपॉलॉजी में मास्टर्स की डिग्री के बाद अर्ऩब कोलकाता के द टेलिग्राफ पहुंचे, फिर वाया एनडीटीवी, द टाइम्स नाउ के रास्ते रिपब्लिक टीवी के मालिक के रूप में वे हमारे सामने हैं। लेकिन अपनी नजर मॆं यह कहानी एक ऐसे पत्रकार की मौत की भी कहानी है, जिसने एक लिहाज़ से पूरी पत्रकारिता को मरणासन्न हालत में पहुंचा दिया। भाई लोग अर्णब को बीजेपी का बड़बोला बकवासी इसीलिए बताते रहे है, क्योंकि विचारों की जटिल लड़ाई में बीजेपी जब कमजोर पड़ती दिखती है, तो अर्णब अकसर जिस तरह से उसे सार्वजनिक रूप से समर्थन देते हुए खड़े होते हैं, उसकी हर राजनीतिक दल को सख्त जरूरत होती है, लेकिन अर्णब की तरह कोई दूसरा खड़ा नहीं होता।

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तस्वीर साफ है कि अर्णब पर कसता शिकंजा शिवसेना की बीजेपी पर खुंदक का नतीजा है। और राजनीति के सारे रंग देख चुके अर्णब को ऐसे नतीजों की परवाह इसलिए नहीं है, क्योंकि नुकसान के मुकाबले इसमें उनके फायदे बहुत ज्यादा है। क्योंकि कुल 1200 करोड़ रुपए की पूंजीवाले रिपब्लिक टीवी की कंपनी में 82 फीसदी हिस्सेदारी अकेले अर्णब की है।

अर्णब जानते हैं कि शिवसेना दिखने में चाहे कितनी भी ताकतवर हो, अंदर से बहुत कमजोर है, बेहद कमजोर। और वे यह भी जानते हैं कि कमजोर जब लड़ता है, तो उसकी सारी ताकत उधार की औकात पर सवार होती है। शिवसेना को यह ताकत सरकार से उधार में हासिल है। और शरद पवार हाथ खींच ले, तो शिवसेना की सरकारी सांसें कितने पल चल जाएगी, यह तो आप भी जानते ही हैं!

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