सुशोभित-
अगर किसी जाति का पतन करवाना हो तो उस पर बहुत हीन क़िस्म के प्रतिबंध लगा दो। वह उन हीन प्रतिबंधों के विरुद्ध हीन विद्रोह करने में अपना जीवन बिता देगी!
याद रहे- जिस तल पर प्रतिबंध होता है, विद्रोह भी उसी तल पर होता है। विद्रोही ऊपर-ऊपर से दिखता तो है बड़ा स्वतंत्रचेता, किन्तु वह बहुत बुनियादी रूप से परतंत्र होता है। उसका एक कॉन्टेक्स्ट होता है। उस कॉन्टेक्स्ट के बिना उसका अस्तित्व शून्य होता है।
अगर अन्याय सहने वाला अन्याय का बंधक होता है तो अन्याय का प्रतिकार करने वाला प्रतिकार का बंधक होता है। और जिस तल पर बंधन है, उसी तल पर वह प्रतिकार कर सकेगा- यह मनोविज्ञान का बुनियादी नियम है।
यही कारण है कि अतीत में जिन जातियों पर सामाजिक प्रतिबंध लगाए गए, जब उन्होंने अपनी मुक्ति के प्रयास किए तो उनके पास मुक्ति के कोई बड़े मानक नहीं थे। प्रतिबंधों का तल ही उनके क्षोभ का तल था। उनके साथ दोहरा छल हुआ। एक, उन्हें वंचित किया गया। दूसरे, उन्हें इस सूक्ष्म तरीक़े से हीन बना दिया गया कि उन्होंने स्वत: ही अपनी हीनता को अंगीकार कर लिया, उसके विरुद्ध विद्रोह को अपना जीवन-प्रयोजन बनाकर।
देह के स्तर पर प्रतिबंध, जेंडर के स्तर पर प्रतिबंध, सामाजिक गतिशीलता के स्तर पर प्रतिबंध बहुत प्रिमिटिव हैं, आदिम हैं, इसीलिए उनके विरुद्ध विद्रोह का स्तर भी बड़ा प्रिमिटिव होता है- यह याद रहे।
तब अपनी मर्ज़ी का कपड़ा पहन लेना भी विद्रोह हो जाता है, कहीं घूमने चले जाना, कुछ खा लेना, कुछ पी लेना- ये तमाम विद्रोह के तल हैं। लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा- तब होंठों को रंग लेना भी रिवोल्यूशन हो जाती है। जितना हीन प्रतिबंध हो, विद्रोह भी उतना ही हीन हो जाता है।
वास्तव में विद्रोही के सामने सबसे बड़ी चुनौती ही यही है कि मुझ पर प्रतिबंध लगाने वाले के तल से ऊपर कैसे उठूँ?
जितने भी प्रतिक्रियात्मक विचार हैं- सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता के- वे तमाम इसी स्तर पर उथले हैं कि उनका आधार एक बहुत ही प्रिमिटिव क़िस्म की पाबंदी थी और उन्होंने उससे मुक्ति को ही अपनी मुक्ति समझ लिया। जबकि मुक्ति एक बहुत महान विचार है। स्वतंत्रता एक बहुत बड़ी वैल्यू है। अपनी मर्ज़ी का खाने, पहनने, घूमने-फिरने से ही कोई स्वतंत्र हो जाता तो आज लिब्रलिज़्म के क्लासिकल दौर में पूरी मनुष्यता में स्वतंत्रता की आभा होती।
जबकि आज मनुष्य जितना बंधक है, उतना पहले कभी नहीं था। सामाजिक और राजनैतिक बंधन ही इकलौते बंधन नहीं होते, वृत्तियों का भी बंधन होता है, आदतों का भी बंधन होता है, सोचने की क्षमता के रूढ़ हो जाने का भी बंधन होता है, यंत्रवत जीवन में भी बंधन होता है, देह में होने, देह से बंधे होने का भी बंधन होता है- और बड़े मज़े की बात है कि अपनी मर्ज़ी का ही खाते, पीते, पहनते, करते रहने से ये बंधन और मज़बूत होते हैं, वृत्तियाँ सघन होती हैं, परतंत्रता का पाश और जकड़ जाता है।
आत्मद्रोह ही इकलौता विद्रोह है, जिसमें हम पूछते हैं कि मैं कौन हूँ और किसलिए हूँ। जिसमें हम अपनी शांति को भंग करते हैं और अपने जीवन को होम करते हैं। शेष तमाम तथाकथित विद्रोह केवल अपने लिए अधिक से अधिक सुविधाएँ, आराम, सुख और ध्यानाकर्षण हासिल कर लेने की हीन चेष्टाएँ हैं।
यह बात फ्रांत्स काफ़्का ने माँसाहार का त्याग करने के बाद पशुओं से कही थी- “अब मैं शांति से तुम्हारी आँखों में देख सकता हूँ!”
यूरोप के हर बच्चे की तरह फ्रांत्स काफ़्का का जन्म एक माँसाहारी परिवार में हुआ था, लेकिन यह सम्भव ही नहीं था कि वह कालान्तर में इस पाप का त्याग नहीं कर देता। वह चेतना के उस स्तर पर चला गया था। उसकी कहानियाँ जानवरों के अंतरंग वृत्तान्तों से भरी हैं, उनमें मनुष्य पशु बन जाते और पशु मनुष्य- और यह ‘मेटामोर्फ़ोसीस’ चलता ही रहता है। बीसियों तरह के प्राणी उसके यहाँ प्रकट हुए हैं- बहुधा फ़र्स्ट-पर्सन में। पशुओं के संसार से काफ़्का का बड़ा गहरा सम्बंध था।
पशुओं का संसार यानी यातना का संसार, अनिश्चय और भय का संसार, बंधनों का संसार, शोषण का संसार… और असहनीय संत्रास का संसार। मृत्यु की दहलीज़ पर खड़े होने पर जीवन और संसार कैसा दीनतापूर्ण मालूम होता है- इस तीखी संचेतना का संसार। इसे काफ़्का ने मरते हुए जान लिया था कि मरना क्या होता है, मारा जाना क्या होता है, जीवन से वंचित कर देने के क्या मायने हैं। उसके शरीर में जो प्राणघातक रोग था, उसने उसे क़त्लख़ाने के पशुओं वाली मनोदशा में पहुँचा दिया था। यह सम्भव ही नहीं था कि काफ़्का एक दिन माँसाहार का त्याग नहीं कर बैठता।
“अब मैं शांति से तुम्हारी आँखों में देख सकता हूँ!”- यह क्षमायाचना, यह ग्लानि, यह अपराध की चेतना… ग्लानि काफ़्का का आभूषण था। यह उसके लिए सबसे सुंदर भावना थी। और यह सच में ही सबसे सुंदर भावना है। आत्मा को झकझोर देने वाली एक हिलोर- “कि बच्चो, मुझे माफ़ कर देना, तुमने इतने कष्ट सहे!” यह तरंगायित कर देने वाली ग्लानि, जो घुटनों पर झुककर माफ़ी माँगने को मजबूर कर दे। यह पश्चाताप, यह मनश्ताप… इसके बिना मनुष्य की आत्मा कभी शुद्ध नहीं हो सकती।
संसार में इतना कलुष क्यों है? इतना विषाद क्यों? क्योंकि यहाँ बच्चों की हत्याएँ की जा रही हैं, और वह भी लेशमात्र भी ग्लानि के बिना। बच्चों की हत्याएँ!! यहाँ हर चेतना को काफ़्का होना होगा, तभी मुक्ति है। अन्यथा नहीं है। अन्यथा महापाप का अंतहीन दुष्चक्र है, दु:स्वप्न हैं, अभिशाप है।
“अब मैं शांति से तुम्हारी आँखों में देख सकता हूँ!”- यह हर मनुष्य को हर प्राणी से कहना होगा, इसके बिना कोई मार्ग नहीं है।
ग्लानि से भर जाओ और क्षमायाचना करो, और फूट फूटकर रोओ, इसके बिना मुक्ति नहीं है! आत्मत्याग करो! इस प्राणपुंज के लिए जिसमें तुम सी ही चेतना है :
यूरोपियन घर में जन्म लेकर भी जो मांस का त्याग कर दे, जानें वो बड़ी ऊंची चेतना है। और भारत में जन्म लेकर भी यदि कोई मांसभक्षण करता हो तो इसमें संदेह नहीं कि बड़े नीचे के तल की चेतना है।
संतोष गुप्ता
April 29, 2023 at 9:58 pm
बहुत शानदार लेख, बेहद गहरा, और आत्मचिंतन करने योग्य। आभार