Himanshu Pandya : मृत क्यों, व्यक्ति जीवित हो तब भी बरसों बाद बोलने वाली महिला के पास कोई जैविकीय साक्ष्य नहीं होता इसे साबित करने का. अमूमन ऐसे आरोप के बाद कुछ और महिलाएं भी सामने आती हैं और उनके साक्ष्य एक साझा दास्तान बनाते हैं. अकादमिकी की दुनिया में छात्राओं के साझा टेस्टिमोनीयल के अनेक उदाहरण सामने हैं. वर्तमान किस्से में भी व्यक्ति के विचलन के ऐसे छिटपुट ही सही, उदाहरण सामने आने लग गए हैं.
दूसरी बात, जब किसी बहुत अपने के ऊपर ये आरोप लगे तब हमारी प्रतिक्रिया कसौटी होती है. तरुण तेजपाल, महमूद फारूकी, खुर्शीद अनवर, मैंने बहुत सावधानी से ऐसे तीन नाम लिखे हैं जिनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय चाहे न हो पर जिनके लिए मेरे मन मे बड़ा सम्मान था (और कम से कम दो के लिए अभी भी है) पर मैंने आरोप लगाने वाली महिला पर कभी संदेह नहीं किया. जब महमूद फारूकी ने जेल में कैदियों के साथ नाटक किये तब उसे बहुत खुशी के साथ सराहा, प्रेरणादायक माना. दूसरा पक्ष ये भी है कि उनके एक अदालत से सजा पाने और दूसरी से बरी हो जाने से मेरी उनके अपराध के बारे में राय बदली नहीं.
‘मेरा अनुभव भिन्न था’ ये कहना एक बात है और ‘वो व्यक्ति ऐसा कर ही नहीं सकता’ दो नितांत भिन्न बातें हैं. आपका अनुभव सार्वभौमिक नहीं है और हर अपराधी अपनों के बीच बहुत अच्छा होता है. आप उसके अपनों की लिस्ट में हैं तो आपका अनुभव तो अच्छा ही होगा.
हर व्यक्ति के अंधेरे पक्ष होते हैं, इसे स्वीकार कर पाना तब सबसे मुश्किल होता है जब अपनों पर बात आती है. मैं आज Avinash Das की पोस्ट पढ़कर भीग गया. उन्होंने यह लिखने के लिए कितना साहस जुटाया होगा, तब समझ में आता है जब मैं उनकी पुरानी तसवीर में उनका संदर्भित व्यक्ति से जुड़ाव देखता हूँ. मैं कोई जज नहीं हूँ जो व्यक्तियों पर फैसले दूं कि वे इधर खड़े हों या उधर, एक जगह तय कर लें.
मैं अविनाश से नहीं कहूँगा के वे अपनी उन तस्वीरों या यादों को निकाल दें. बेशक, वे अपने हिस्से के नागार्जुन को अपने पास संभाल कर रखें. पर उनकी आज की ईमानदार पोस्ट ने कुछ और किया न किया, उनका कद मेरे लिए ऊंचा कर दिया.
आखिरी बात जिसने पहले भी बहुत विवाद पैदा किया था. यदि आप मृत्युदंड के विरोधी हैं तो आप सामाजिक बहिष्कार के समर्थक नहीं हो सकते. बड़े से बड़ा अपराधी, हत्यारा और बलात्कारी भी सज़ा पाने के बाद पुनर्वास का हकदार है. ( इसमें ‘सज़ा पाने के बाद’ अनिवार्य शर्त है, उसके बिना मेरे वाक्य का अर्थ ही बदल जायेगा )
नैतिकता के सार्वभौम नियम नहीं हो सकते. संदर्भ सब कुछ तय करता है. चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज मेरी व्यक्तिगत राय में अक्षम्य है. मेरे पसंदीदा कवियों की लिस्ट में एक नाम कम हो ही गया है. पर यह मेरी व्यक्तिगत राय है, उन्हें अब भी चाहने वालों को मैं जज नहीं करूंगा लेकिन उन्हें जरूर जज करूंगा जो ‘ये हो ही नहीं सकता’ के उद्घोष के साथ पीड़िता के चरित्र हनन में लग गए हैं.
शायद ऊपर लिखी बातें किसी को भी खुश न करें. क्योंकि मेरी समझ व्यक्ति को ब्लैक एंड व्हाइट में देखने की नहीं है.
यदि कल को मुझ पर कोई आरोप लगे तो आप सिर्फ मेरे बारे में अपना अनुभव बताएं, मैं ऐसा कर ही नहीं सकता, न कहें. इसे इससे बेहतर तरीके से मैं नहीं कह सकता.
राजकीय महाविद्यालय, रानीवाड़ा (जयपुर) में शिक्षक पद पर कार्यरत हिमांशु पांड्या की एफबी वॉल से.
कुछ अन्य टिप्पणियां-
Kanupriya : आप चाहते हैं दक्षिणपंथ को हराना मगर स्त्रियों के साथ हुए अन्याय को न समझ सकते हैं न महसूस कर सकते हैं, तो माफ़ कीजिये आपके नारे भी उतने ही खोखले हैं जितने मोदी के जुमले, आप की लड़ाई महज सत्ता बदल की लड़ाई है और आप समझते हैं ये खोखलापन हमे दिख नही रहा?
Shambhunath Shukla : क्या हर नर में एक पिशाच घुसा होता है? गुनगुन थानवी की पोस्ट जिस तरह वायरल हो रही है, उससे तो यही लगता है। आप लाख सफ़ाई दो, पर इस सच को कैसे नकारा जाए और कैसे स्वीकार किया जाए। जब इतना बड़ा साहित्यकार, जिसे नेम-फ़ेम और धन सब मिला हो, उस पर इतना गंभीर आरोप हो, तब यह लगता है, कि हर नर पिशाच है। गुनगुन कोई छोटे-मोटे परिवार से नहीं है, इतना सम्मानित परिवार है। उसके आरोप को नकारना असंभव है। गुनगुन के साहस की दाद देनी चाहिए।
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