
संजय कुमार सिंह-
आधुनिक पत्रकारों में एक, नविका कुमार ने आधुनिक पत्रकारिता की अपनी उपलब्धि ट्वीटर पर जारी की है (जो नहीं जानते हैं उनके लिए बता दूं बेटे की शादी की फोटो जिसमें भाजपा की पूरी या कहिये डबल इंजन की सरकार मौजूद थी) और जब लोग आंखें फाड़ कर देख रहे हैं तो उसकी आलोचना भी हो रही है। इससे बहुत मामूली कृत्य को भी याद किया जा रहा है और यह भी कि तब उसपर किताब ही लिख दी गई थी। लेकिन हम नहीं संभले। और पत्रकारिता कहां से कहां आ गई, उसे कोई याद नहीं कर रहा है। मेरा मानना है कि तमाम चेतावनियों के बावजूद आज देश में पत्रकारिता की जो हालत है उसपर अभी भी अफसोस करने वाले कम हैं जबकि यह ठीक होने की स्थिति से बाहर निकल गया है। आलम यह है कि कश्मीर में पकड़े गए गुजराती ठगके मामले पर रिपोर्ट करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है और दिल्ली पुलिस राहुल गांधी से सूचना या शिकायत लेने के लिए जबरदस्ती कर रही है। उसकी भी आलोचना नहीं हो रही है। मैं आम जनता की बात कर रहा हूं।
पत्रकारिता के नए सितारों के बीच वो भी हैं जो खलनायक बना दिए गए और पुराने लोग उनके काम की तुलना अभी के स्टार एंकर से करके आपको बता सकते हैं जिस फारूक अब्दुल्ला को, उनके बेटे को महीनों बिला वजह जेल में रखा गया उन्होंने बहुत पहले कहा था, “हम पहले ही कमजोर हैं, अब हम खत्म हो चुके हैं”। हम मौजूदा गलतियों नालायकियों पर चुप हैं तो क्या कभी पुरानी गलतियों को याद करेंगे। जब बात-बात में किसी को देशद्रोही ठहरा दिया जाता है तो हम असली देशद्रोही की पहचान करेंगे। उसे देशद्रोही कह पाएंगे –शायद नहीं। अफसोस इसका है कि बहुत सारे लोग ना कुछ जानते हैं ना जान पाएंगे। जब सब कुछ जानते समझते ऐसा हो गया तो जो कुछ जानता ही नहीं है, जानना ही नहीं चाहता है उसका क्या होगा।
आज की पत्रकारिता की तुलना करने के लिए मैंने मशहूर पत्रकार बरखा दत्त की किताब, ‘दिस अनक्वाइट लैंड’ (यह अशांत क्षेत्र) का एक अंश अनुवाद किया है। इसे पढ़िये और जानिये, जानते हैं तो याद कीजिए कि पहले की रिपोर्टिंग क्या होती थी और आज क्या दशा है। मेरा मानना है कि जो संपादक या मुख्य संवाददाता असाइनमेंट तय करते हैं उनलोगों ने दिल्ली के अपने रिपोर्टर को अभी तक 34 मीना बाग फ्लैट्स, नई दिल्ली नहीं भेजा है और अमितशाह के साथ किरण तथा किरण की पत्नी मालिनी के साथ प्रधानमंत्री की फोटो देखकर भी आपको नहीं लगा कि इसपर खबर होनी चाहिए, या आप डर गए तो आपको संपादक रहने का कोई अधिकार नहीं है जो कर रहे हैं उसे पत्रकारिता भी मत कहिए। सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी, हिन्दुत्व के संरक्षक या ऐसे किसी भी व्यक्ति या संगठन पर आंखमूंदकर या डरकर भरोसा करने वाला व्यक्ति पत्रकार हो ही नहीं सकता है। देशद्रोही जरूर हो सकता है हालांकि उसपर मैं कुछ नहीं बोलूंगा। मेरा विषय नहीं है।
पुस्तक अंश नई सदी की शुरुआत की कहानी है। नई सदी के शुरुआती साल, अयोध्या, गुजरात, सरकार और राजधर्म याद कीजिए और देखिए कि भारत के लिए 21वीं सदी कैसे पीछे जाने की शुरुआत थी जो अब तक जारी है।
31 दिसंबर 1999 की सुबह दिल्ली की हवा में एक अलग ही तरह की ठंडक थीऔर यह सर्द मौसम के कारण नहीं था। एक हजार मील से कुछ ज्यादा दूर कंधार, अफगानिस्तान में इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान आईसी 814 में सवार 190 भारतीय का जीवन एक ऐसे निर्णय के धागे से लटका हुआ थाजो आने वाले कई वर्षों तक तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह और भारत सरकार को परेशान करेगा। जसवंत सिंह तीन खूंखार आतंकवादियों को साथ लेकर जाने की तैयारी कर रहे थे। इन्हें अभी-अभी जम्मू और कश्मीर की जेल से अफ़ग़ानिस्तान में विमान यात्रियों और चालक दल की सुरक्षा के सुरक्षा के बदले में रिहा किया गया था।
तभी मैंने देखा कि गेट के पास खटारा मारुति वैन आ रही है। वह वहां सुरक्षा जांच के लिए स्थापित कई बैरियर पर धीमी हो गई तो मैंने पाया कि यह अधिकारियों के लिए भोजन ले जा रहा था। मैंने उपलब्ध कुछ सेकंड का उपयोग ड्राइवर से यह आग्रह करने के लिए किया ताकि वह मुझे सवार हो जाने थे। पीछे चकित खाद्य विक्रेताओं और खुश्बूदार सैंडविच के डब्बों के बीचबैठकर मैं सुरक्षा पार कर अपना रास्ता बनाने में कामयाब रही। जैसे ही जसवंत सिंह बोइंग 737 की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, मैं विमान तक पहुंच गई। खुफिया एजेंसियों और विदेश मंत्रालय के आठ अधिकारी पहले से ही विमान में सवार थे। विमान के आगे एक जीप खड़ी थी। अंदर तीनों आतंकवादी थे जिनके चेहरे पूरी तरह से नकाब में थे।
मैंने पूरा ब्यौरा याद किया। एक सप्ताह पहले, 24 दिसंबर को, आईसी 814 को हाईजैक कर लिया गया था और यात्रियों की रिहाई के लिए शर्तें निर्धारित की गई थीं। इन लोगों की पहचान अभी तक आधिकारिक तौर पर जारी नहीं की गई थी। ब्रजेश मिश्रा-जो उस समय प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दोनों थे- विमान के हवा में उड़ने के बाद ही हमें पता चलना था कि वे कौन थे। इस समय तक गेट के बाहर पत्रकारों ने सुरक्षा घेरे के अंदर मेरी उपस्थिति का विरोध करने के लिए हर उच्च पदस्थ नौकरशाह को फोन करना शुरू कर दिया था। मिश्रा ने मेरे बॉस को कॉल किया।
अपना मौका बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित, मैंने मंत्री से आग्रह किया कि मुझे अपने साथ अफगानिस्तान ले चलें, मैने अपने कैमरे को छोड़ने की पेशकश भी की बशर्ते मेरी संभावना बढ़ती। मैंने मिन्नत की, हर संभव कोशिश की कि मैं किसी तरह उन सीढ़ियों पर चढ़कर विमान तक पहुँच सकूँ। लेकिन अपने दृढ़ लेकिन कोमल शैली में उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे वहां से हटना होगा। कुछ मिनट बाद मौलाना मसूद अजहर (जिसने दो साल से भी कम समय में भारतीय संसद पर हमले की योजना बना ली, इसका उल्लेख पिछले अध्याय में है), उमर सईद शेख (जिसने 2002 में पत्रकार डेनियल पर्ल का अपहरण कर सिर कलम कर दिया) और मुश्ताक अहमद जरगर (या ‘लतरम’ के रूप में उसे कश्मीर घाटी में जाना जाता था, जहां उसके खिलाफ तीन दर्जन हत्या के मामले दर्ज थे) को जीप से बाहर निकाला गया। वे जहाज़ पर चढ़ने वाले अंतिम व्यक्ति थे। आने वाले महीनों और वर्षों में आजादी के लिए उनकी उड़ान कई मायनों में कश्मीर घाटी में उग्रवाद की प्रकृति को बदल देगी।
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जैसे ही हमने हार मान ली, भारत एक सॉफ्ट स्टेट बन गया; आईसी 814 के अपहरण के दौरान जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे फारूक अब्दुल्ला ने मुझे बाद में बताया। उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी को फोन करके और आतंकवादियों की रिहाई का पुरजोर विरोध किया। यह देश के साथ गद्दारी है, उन्होंने आडवाणी से कहा था। फारूक की धारणा थी कि आडवाणी खुद इस फैसले से सहज नहीं थे लेकिन अगर ऐसा था भी तो आडवाणी ने रोका नहीं। इस्तीफे की धमकी देते हुए, उन्होंने राज्य के राज्यपाल गिरीश सक्सेना से कहा कि अगर जम्मू के कोट बलवल जेल से कैदियों को रिहा कर दिया गया तो वह मुख्यमंत्री के पद पर बने नहीं रह सकतेहैं। बलवल जेल उनकी निगरानी में था। ‘हिन्दुस्तान का जनाज़ा निकलेगा – अपने गवर्नर पर वे चीखे।
अंत में, एएस दौलत जो उस समय भारत के रॉ प्रमुख (और फारूक के गोल्फ मित्र) थे को मुख्यमंत्री को यह समझाने के लिए कश्मीर भेजा गया था कि लोगों की जान बचाने का यही एकमात्र तरीका है। फारुक को मानने में पांच घंटे लग गए थे। इससे पहले उन्हें चेतावनी भी दी थी। हम पहले ही कमजोर हैं, अब हम खत्म हो चुके हैं।
बरखा दत्त की यह किताब 2016 में आई थी और सिर्फ कश्मीर नहीं, भारत पर है। स्टोरीज फ्रॉम इंडियाज फॉल्ट लाइन्स यानी भारत में जहां गड़बड़ है वहां की खबरें।
पुस्तक से अलग, भाजपा की राजनीति शुरू से ही अस्थायी और क्षणिक लाभ पाने वाली रही है। लाभ देश के लिए नहीं, पार्टी के लिए। बांटो और राज करो की नीति पर चलते हुए नोटबंदी हो या जीएसटी जैसा यू टर्न, लॉकडाउन जैसी नालायकी हो या पीएम केयर्स जैसी खुली वसूली – देशहित को ताक पर रखकर बिना योजना पूरी अयोग्यता से शासन करते हुए देश को यहां पहुंचा दिया गया है कि पहले आम विरोधियों को और अब विपक्ष के हर नेता को डराने -धमकाने की कोशिश की जा रही है। कश्मीर मामले में 370 हटाने से क्या हुआ और जनता ने मांग की थी तो जनता बोलेगी क्या – लेकिन देश ऐसे ही चलता रहेगा?