Meena Kotwal : मेरे लिए इतिहास में क्यों दर्ज हो बीबीसी हिंदी रेडियो? कल 31 जनवरी को बीबीसी हिंदी रेडियो की सेवा समाप्त कर दी गई. आखिरी ब्रॉडकास्ट को फेसबुक पर लाइव दिखाया गया, इसमें बीबीसी हिंदी के लगभग सभी लोग थे. सभी की आंखे नम थी, क्योंकि सभी बिना किसी शर्त के इसका हिस्सा रहे.
मैंने भी लगभग 2 साल बीबीसी के साथ काम किया. मेरे सिवाए वहां हर कोई रेडियो कर सकता था. रेडियो प्रोग्राम में समाचार दो बार पढ़ा जाता है. उसे सिर्फ़ पढ़ना होता है, क्योंकि उसे बनाकर सेटअप की ड्यूटी वाला ही तैयार करता है. महिलाओं की 50-50 भागीदारी लाने के लिए ये नियम बनाया गया था कि अगर रेडियो सेटअप पर कोई पुरुष होता है, तो उसे हिदायत मिली हुई थी कि वो ऑफिस में मौजूद किसी महिला से ही रेडियो समाचार पढ़वाएं. लेकिन वहां मेरे अलावा सब लोग दिखाई देते थे. अगर शाम या सुबह मेरे अलावा कोई ऑफिस में नहीं भी होता तो भी मुझे पढ़ने लायक नहीं समझा जाता.
शाम को अगर सिर्फ़ मैं हूं तो ऊपर के फ्लोर की महिलाओं को पढ़वाने के लिए बुलाया जाता. अगर वहां भी कोई महिला नहीं मिलती या फ्री नहीं होती तो पुरुष कर्मी खुद़ पढ़ सकता था. एक दो बार गलती से मुझे एक ऐसे ही पुरुष ने मौका दिया (क्योंकि शायद उन्हें पता नहीं था कि मैं समाचार पढ़ सकती हूं या नहीं.)
ऐसा तब समझ आया जब एक अन्य व्यक्ति ने एक शाम मेरा नाम सुझाया कि न्यूज़ तो मीना पढ़ देगी. लेकिन वहां मौजूद मेरे साथ वाली सीट पर ही बैठे अन्य कर्मी ने मुंह बनाकर, चुप्पी साधते हुए अपने काम में व्यस्त दिखने की कोशिश करने लगे और उसकी बात इग्नोर कर दी. जबकि नाम सुझाने वाले ने क्यों, क्या हुआ? भी पूछा, लेकिन वहां भी चुप्पी. खैर, ऐसा मुझसे किसी ने कहा नहीं, लेकिन जो वहां मेरे सामने ही हो रहा था उससे तो मुझे यही महसूस हुआ.
मुझे बीबीसी हिंदी रेडियो के बंद होने का दुख नहीं हुआ क्योंकि मैंने बीबीसी जाने से पहले बहुत कम इसका प्रसारण सुना था. वहां जाकर मन होने लगा. मन हुआ कि कितना अच्छा अनुभव होगा कि देश के अलग-अलग लोग हमारी आवाज़ सुनेंगे. शुरू में तो कई बार ऐसा पागलपन भी हुआ कि सुबह का प्रोग्राम नींद में ही चला भी देती थी (क्योंकि बिना किसी काम के मैं सुबह 6.30 बजे नहीं उठती).
हां, मैंने एक दो बार अपनी ही रिपोर्ट पढ़ी. इसके बाद चिट्ठी में मेरे लिए कुछ प्रशंसा भी आई, जिसे खुद रेहान सर ने मुझे मेल कर बताया था. (इस पर मैं कोई वाहवाही नहीं लूटना चाहती, ये यहां इसलिए बता रही हूं कि कुछ लोगों के लिए चिट्टी में बार-बार शिकायत आती थी. बावज़ूद इसके उन्हें सभी तरह के मौके दिए जाते.)
जब मैंने इसके लिए अपने संपादक को कहा तो हमेशा कि तरह वो अंजान बनकर कहे ‘अच्छा!’. इसके बाद उन्होंने मुझे कहा कि तुम ऐसा करो मुझे एक ट्रायल भेजना मैं देखता हूं. मैंने, वैसा ही किया. उस दिन अपना सारा काम खत्म कर मैं समाचार की प्रैक्टिस करने लगी. शायद रात के 12 या एक बज गये थे. ऑफिस में मौजूद लोगों ने पूछा भी क्या हुआ, तुम अब तक क्या कर रही हो. तब मैंने उन्हें बताया कि संपादक जी ने मुझे टेस्ट देने के लिए कहा है तो वो भी थोड़ा हैरत हुए. क्योंकि समाचार पढ़ने के लिए उन्होंने, मैंने या किसी ने भी नहीं सुना था कि संपादक जी को टेस्ट देना होता है.
मेरे साथ आए लोगों ने भी कहा कि ऐसा हमें तो नहीं कहा और ना कभी किसी ने बताया. मैं अगले दिन संपादक जी को याद दिलाती हूं कि मैंने आपको मेल किया था, सर बताइएगा जरूर. उसका जवाब ना अगले दिन मिला ना किसी और दिन और इस तरह मेौके जिसे मिला वो मेरिट वाले हो गए.
ऐसे रेडियो के लिए मेरा दुखी होना स्वाभाविक है या नहीं पता नहीं. जहां हमेशा सवर्णों का वर्चस्व रहा हो ऐसे में मुझे दुख क्यों होगा! वहां मौजूद लोगों को भी तो इस व्यवस्था से ना कोई ऐतराज था और ना ही शायद होगा, जिन्हें मौके दिए जा रहे हैं भला उनके दिमाग में यह सब आएगा भी क्यों?
बीबीसी हिंदी रेडियो के काम से मुझे दिक्कत नहीं, दिक्कत तो सो कॉल्ड प्रोग्रेसिव सवर्णों के मैनेजमैंट और व्यक्तित्व में है. इसलिए यहां कोई ये ज्ञान ना देना कि मैं बीबीसी के काम पर उंगली उठा रही हूं. मेरे साथ जो हुआ बस वो साझा कर रही हूं.
सआदत हसन मंटो ने ऐसे ही थोड़े ना कहा था…
‘मैं तहज़ीब, तमद्दुन, और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं’.
बीबीसी में काम कर चुकीं और कई किस्म के उत्पीड़न झेल चुकीं दलित पत्रकार मीना कोतवाल की एफबी वॉल से.
बीबीसी में मीना कोतवाल के साथ क्या हुआ था, जानने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें…
इसे भी पढ़ें-