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भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ रहा लोकसभा टीवी

कहने को तो लोकसभा टीवी एक संसदीय चैनल है। लेकिन सच्चाई यही है इसकी शुरुआत से आज तक इस संसदीय चैनल में भाई भतीजावाद का ही बोल-बाला रहा है। जिसके चलते अपनी स्थापना के दस साल के बाद भी भारी भरकम बजट वाला ये चैनल अपनी पहचान को तरस रहा है। इस चैनल की कहीं कोई चर्चा नहीं है, कार्यक्रमों के लिए ये नहीं जाना जाता। जबकि महज़ चार साल पहले जन्मा राज्यसभा टीवी थोड़े समय में ही अपनी एक अलग पहचान बना चुका है।

<p>कहने को तो लोकसभा टीवी एक संसदीय चैनल है। लेकिन सच्चाई यही है इसकी शुरुआत से आज तक इस संसदीय चैनल में भाई भतीजावाद का ही बोल-बाला रहा है। जिसके चलते अपनी स्थापना के दस साल के बाद भी भारी भरकम बजट वाला ये चैनल अपनी पहचान को तरस रहा है। इस चैनल की कहीं कोई चर्चा नहीं है, कार्यक्रमों के लिए ये नहीं जाना जाता। जबकि महज़ चार साल पहले जन्मा राज्यसभा टीवी थोड़े समय में ही अपनी एक अलग पहचान बना चुका है।</p>

कहने को तो लोकसभा टीवी एक संसदीय चैनल है। लेकिन सच्चाई यही है इसकी शुरुआत से आज तक इस संसदीय चैनल में भाई भतीजावाद का ही बोल-बाला रहा है। जिसके चलते अपनी स्थापना के दस साल के बाद भी भारी भरकम बजट वाला ये चैनल अपनी पहचान को तरस रहा है। इस चैनल की कहीं कोई चर्चा नहीं है, कार्यक्रमों के लिए ये नहीं जाना जाता। जबकि महज़ चार साल पहले जन्मा राज्यसभा टीवी थोड़े समय में ही अपनी एक अलग पहचान बना चुका है।

जिन उद्देश्यों के लिए ये चैनल अस्तित्व में आया था उनकी कहीं से भी पूर्ति करता नहीं दिख रहा। केबल टीवी की तर्ज़ पर चल रहे इस संसदीय चैनल के कार्यक्रम बेहद नीरस और स्तरीय ना होने की वजह से दर्शकों में लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाए हैं। पत्रकारिता में क्या नहीं करना चाहिए? छात्रों को इसकी जानकारी इस चैनल को देखने से हासिल हो सकती है।

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महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर समझ की कमी और संपादकीय मंडल में योग्य पत्रकारों का अभाव इसके कार्यक्रमों में स्पष्ट दिखाई देता है। अक्सर बॉलीवुड की फ़िल्में दिखाने वाला ये संसदीय चैनल देश के ज्वलंत मुद्दों पर कोई भी लोकप्रिय कार्यक्रम नहीं बना पाया है। शायद यही कारण है कि संसदीय कार्यवाही को छोड़ दें तो ये चैनल टीआरपी के दसवें पायदान को भी कभी नहीं छू पाया है।

इसकी एक बड़ी वजह लोकसभा टीवी की भर्ती प्रक्रिया में भारी भ्रष्टाचार भी रहा है। सूत्रों की मानें तो यहां जो भी बड़ा अधिकारी बनकर आया है उसने सबसे पहले पिछले, दरवाज़े से अपने लोगों की भर्ती की है। पिछले साल जुलाई माह में हुए वाक इन इंटरव्यू पर भी सवाल उठे थे। जहाँ सैकड़ों योग्य उम्मीदवारों को दरकिनार कर अयोग्य उम्मीदवारों को चुन लिया गया था।

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इंटरव्यू पैनल में शामिल कुछ सदस्यों की योग्यता, अनुभव और निष्पक्षता पर भी सवाल उठे थे।इस चयन में नियमों को दरकिनार कर भाई-भतीजावाद के आधार पर भर्ती की बात सामने आई थी। कुछ पत्रकारों ने आरटीआई भी दाखिल की थी। आरोप लगा था कि वाक इन इंटरव्यू के नाम पर भर्ती का ड्रामा किया गया था। इंटरव्यू फिक्स होने और भर्ती की लिस्ट पहले ही तैयार किये जाने की भी शिकायतें सामने आई थीं। मामला लोकसभा अध्यक्ष तक भी पहुंचा था, जिसे बाद में दबा दिया गया।

अंदरुनी सूत्रों की मानें तो भर्ती प्रक्रिया के पारदर्शी ना होने की वजह से बड़ी संख्या में ऊंची पहुँच वाले अयोग्य लोगों की भर्तियाँ हो गयी हैं। बड़े पद और भारी भरकम तनख़्वाह वाले मंत्रियों और अफसरों के ये रिश्तेदार टीवी में काम की साधारण समझ भी ना होने की वजह से स्तरीय कार्यक्रम नहीं दे पा रहे हैं। इसलिए लोकसभा टीवी पर पैनल डिस्कशन के कार्यक्रमों की भरमार रहती है।

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सूत्रों की मानें तो लोकसभा टीवी के लगातार गिरते स्तर के कारण लोकसभा अध्यक्ष भी इससे खुश नहीं हैं। संसदीय मामलों की समझ ना होने की वजह से यहाँ संसदीय कार्यवाही पर कार्यक्रम बनाने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता। यही कारण है कि अमूमन संसदीय कार्यवाही पर भी बहस के कार्यक्रम ही प्रसारित होते हैं। संसद के समक्ष महत्वपूर्ण मुद्दे यहाँ तक कि इस साल बजट पर भी कोई स्तरीय कार्यक्रम लोकसभा टीवी नहीं दे पाया। रिपोर्टिंग, डॉक्यूमेंट्री, न्यूज़ और प्रोग्रामिंग की कमज़ोर समझ के चलते ज़िम्मेदार अधिकारी यहाँ सिर्फ डिबेट और नीरस इंटरव्यू को ही कार्यक्रम मानते हैं। जो अब अयोग्यता को छिपाने का एक आसान समाधान बन गया है।

एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.

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