समरेंद्र सिंह-
द मैट्रिक्स फिल्म में मैन और मशीन के बीच युद्ध का अंतिम सीन गौर करने लायक है। इसमें नियो और एंडरशन लड़ रहे हैं। एंडरशन आखिरी दांव चलता है। वो नियो को भी मशीन बनाने के लिए उसके शरीर में प्रवेश करता है। इस क्रम में वो अपना विंडो ओपन कर देता है। जिसका लाभ उठा कर नियो मशीन के सर्वर में प्रवेश कर जाता है और एक चेन रिएक्शन शुरु करता है। मशीन का सारा तंत्र बिखर जाता है।
ये बड़ा रोचक सीन है। वैचारिक युद्ध में बहुत बार हम जिन्हें खत्म करने के लिए अपने बुनियादी ढांचे में बदलाव करते हैं, वो खतरनाक साबित होता है। उसमें ये खतरा रहता है कि कहीं हमारा तंत्र, हमारा आधार, हमारी संरचना बची रहेगी या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि हथियार बनाने के लिए हम जिन धातुओं को मिला रहे हैं उनकी मात्रा गड़बड़ा जाएगी और हथियार कमजोर हो जाएगा? हथियार कमजोर होगा और हमारी अपनी आंतरिक संरचना भी कमजोर हो चुकी होगी तो फिर लड़ाई लड़ी कैसी जाएगी और लड़ी भी जाएगी तो जीत कैसे सुनिश्चित होगी? कहीं ऐन मौके पर हथियार टूट जाए तो क्या होगा?
मतलब विचारधारा और व्यावहारिकता का मिश्रण जरूरी है, लेकिन व्यावहारिकता के नाम पर मिश्रण इतना हो जाए कि विचारधारा ही खत्म हो जाए, मूल्य खत्म हो जाएं, संरचना बदल जाए तो फिर जो कुछ भी हमारे समक्ष होगा, उसे हम क्या नाम देंगे?
बीजेपी इस समय महत्वाकांक्षा के चरम पर है। इसी वजह से जो ढांचा, कार्यकर्ता, नेता और संगठन, उसे 300 पार ले गये, अब बीजेपी नेतृत्व को उस समूचे तंत्र पर भरोसा नहीं रहा है। बीजेपी नेतृत्व 400 पार जाने की महत्वाकांक्षा पाल बैठा है। पार्टी शिखर पर है, लेकिन अब उसे ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचना है।
इसलिए बीजेपी नेतृत्व अपनी टीम को अधिक मारक, दक्ष और कारगर बनाना चाहता है। ताकि कोई दुश्मन सामने टिक न सके। लेकिन इस क्रम में एक चूक हो रही है। जितने ही लंपट, लुच्चे, उठाइगिरे किस्म के लोग हैं, वो धीमे-धीमे पार्टी की मुख्यधारा में न केवल शामिल हो रहे हैं, बल्कि उन्हें वो अवसर भी दिया जा रहा है, जो बीजेपी के प्रतिबद्ध, समर्पित कार्यकर्ताओं को मिलना चाहिए था। जिन अवसरों से बीजेपी का प्रतिबद्ध, समर्पित कार्यकर्ता वंचित रह जा रहा है।
यहां पर ये तर्क दिया जा सकता है कि कारवां बढ़ रहा है। कारवां जितना बढ़ेगा, सत्ता पर पकड़ उतनी मजबूत होगी। तब संवैधानिक संशोधन भी किए जा सकेंगे। ये तर्क सही है। कारवां बढ़ रहा है। लेकिन ये भी एक सर्वविदित सत्य है कि जब कारवां बहुत बढ़ जाता है, जब कोई ऐतिहासिक शिखर पर पहुंच जाता है, तो वहां से विघटन शुरु होता है। ढलान शुरु होती है। अंत की शुरुआत होती है।
आज कांग्रेस के वो सारे नेता बीजेपी में शामिल हो रहे हैं जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। कांग्रेस ही क्यों, तमाम अन्य दलों से लोग शामिल हो रहे हैं जो भ्रष्टाचार में पांव से सिर तक डूबे हुए थे। ये सारे लोग बीजेपी के समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह जब सांसद, विधायक बन कर बीजेपी का प्रतिनिधित्व करेंगे तो क्या शेष बचेगा? और जो बचेगा, क्या वो बीजेपी होगी?
ये एक पहलू है। दूसरा पहलू ये है कि जब आप ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचते हैं तो वहां पर आपका आचरण अराजक हो जाता है। फिर भरभरा कर गिरते हैं। 1980 के चुनाव में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली। 353 सीटें थीं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। फिर कांग्रेस को ऐतिहासिक सीटें मिलीं। ये आंकड़ा 414 पहुंच गया।
लेकिन पांच साल बाद 1989 में कांग्रेस 414 से इतना गिरी की 200 के नीचे चली गई। तब से लेकर अब तक कांग्रेस ने सरकार तो तीन बार बनाई है, लेकिन कभी भी अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा पार नहीं किया है। और अब ये आलम है कि कांग्रेस 100 का आंकड़ा पार करेगी, इसकी गुंजाइश भी कम ही है।
इसलिए ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचने की महत्वाकांक्षा कभी सही नहीं होती। फिर भी मान ले कि आपने ये महत्वाकांक्षा पाल ही ली है तो पालिए। लेकिन उसके लिए प्रतिबद्ध, संवेदनशील, समझदार लोगों का ढांचा तैयार कीजिए। अपनी नींव को दरकने मत दीजिए। नींव को मजबूत कीजिए। वरना जब गिरने लगिएगा तो ऐसा कुछ नहीं होगा जो थाम सके। ऐसी स्थिति में गिरावट कहां और कैसे थमेगी, इसका अंदाजा लगाने के लिए हमारे सामने कांग्रेस एक प्रत्यक्ष उदाहरण के तौर पर मौजूद है। डर है कि कांग्रेस को खत्म करते-करते बीजेपी खुद न कांग्रेस बन जाए।