बिल्डर संपादक और सलाहकार संपादक के बीच का संवाद
यह किस्सा मुझे भोपाल में मिला। पता चला कि यहां एक नामचीन पत्रकार हैं। मान लीजिए कि उनका नाम है मस्त-मस्त शर्मा। असली नाम नहीं बताऊंगा। हां, उनका सरनेम शर्मा है, शर्तिया और सौ-फीसदी सच। शर्मा जी दिल्ली में भी आला दर्जे की पत्रकारिता कर चुके हैं। शुरुआत में तो वे भी मध्य प्रदेश के कई बड़े शहरों में भी काम कर चुके थे, लेकिन दिल्ली में तो उनके जलवे ही थे। नामचीन नेताओं-अफसरों से उनके निजी रिश्ते बन गये। दरअसल, बेहद बलौस और तराशी हुई नजर अता फरमायी है खुदा ने उन्हें। वगैरह-वगैरह। लेकिन जैसा कि पत्रकारों के सिर पर से बाल खिसकते-छनते हैं और दीगर पत्रकारों की ही तरह उनकी खोपड़ी पर भी बेरोजगारी के पाले-पाथर बरसे। वे बेरोजगार भी हुए। यह किस्सा उनके इसी दौर का तफसील है।
तो, हुआ यह कि भोपाल के एक बड़े बिल्डर-व्यवसायी ने एक तामझामा अखबार निकाला। अखबार की ब्राण्डिग के लिए उन्हें शर्मा जी से सम्पर्क किया। पद मिला सलाहकार सम्पादक का, वेतन मिला पचास हजार रूपया महीना, तैनाती मिली दिल्ली में। कोई बात नहीं। शर्मा जी ने तय किया कि इसमें भी गुजारा कर लिया जाएगा। गर्दिश में जब यही सब होना है, तो हो ही जाए। क्या दिक्कत।
दो महीने बाद शर्मा जी को बिल्डर-सम्पादक ने बुलाया। बोला:- कुछ खास किया जाना चाहिए शर्मा जी, वरना अखबार की हनक कैसे बनेगी। यह जो आपने नीचे वाले पत्रकार तो बिलकुल मूरख हैं।
शर्मा बोले:- फिर क्या सोचा है आपने।
बिल्डर-सम्पादक:- अनोखा, अनोखा शर्मा जी, बिलकुल अनोखा आइडिया है मेरे पास।
शर्मा:- बोलिये।
बिल्डर:- आप तो सोनिया गांधी जी को करीब से जानते हैं ना। हो हो हो। मुझे पता चल गया है शर्मा जी, कि आप कितने महीन हैं। हो हो हो। आप मेरी भेंट करा दीजिए सोनिया गांधी से। बाकी मैं खुद ही कर लूंगा। दिल्ली, गुडगांव, फरीदाबाद में मैं कई नयी लांचिंग में जुट रहा हूं। अब ऐसा है शर्मा जी कि अगर सोनिया जी को हम अपने अखबार में बुला लें तो मजा ही आ जाएगा। दिल्ली पर राज करेंगे फिर हम सब। क्या ख्याल है आपका शर्मा जी।
शर्मा:- नहीं, मैं सोनिया जी को नहीं जानता।
बिल्डर-सम्पादक:- कोई बात नहीं, उनके सलाहकार से मेरी भेंट करा दीजिए। मैं खुद ही सोनिया गांधी से सम्पर्क कर लूंगा।
शर्मा:- लेकिन मैं यह नहीं कर सकता।
बिल्डर-सम्पादक:- क्यों
शर्मा:- क्योंकि यह मेरा काम आपके सम्पादकीय को सलाह देने का है।
बिल्डर-सम्पादक:- और आप अब तक क्या-क्या सलाह दे चुके हैं हमें।
शर्मा:- आपको नहीं, आपके अखबार को सलाह देता हूं। हर हफ्ते दो-दो लेख लिखता हूं।
बिल्डर-सम्पादक:- हां, हां। पता है मुझे कि आप क्या-क्या करते हैं। दो-चार पन्ने खराब करते हैं, और क्या करते हैं आप।
शर्मा:- सलाह के लिए पैसा देते हैं आप मुझे, दलाली के लिए नहीं।
बिल्डर-सम्पादक:- और पत्रकारिता क्या है। दलाली नहीं है क्या
शर्मा:- अगर ऐसी पत्रकारिता करानी है आपको मुझसे, तो फिर वही ठीक। लाइये, पचास लाख रूपया दीजिए मुझको। एकमुश्त। नकद। पचास लाख रूपया
बिल्डर-सम्पादक:- पचास लाख , अबे तू आदमी है या चूतिया
शर्मा:- अबे जा बे मांकड़े। तेरी —– में इतनी दम ही नहीं है कि मुझे बर्दाश्त कर पाये। साले, पचास हजार की नौकरी दे कर क्या तूने मुझे खरीद लिया है क्या बे भों—- के।
फिर क्या होना था। कुछ भी तो नहीं। सिवाय इसके कि शर्मा तनतनाते हुए दफ्तर से निकले और फिर कभी पलट कर नहीं आये। अबे जा बे मांकड़े। तेरी —
लेखक कुमार सौवीर वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क kumarsauvir@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.