पुलवामा नहीं हुआ पर बाकी तरीके 2019 वाले ही हैं, देश की चिन्ता कौन कब करेगा?
संजय कुमार सिंह-
अब जब यह स्पष्ट ही है कि मुख्यधारा के ज्यादातर अखबार और देश का लगभग संपूर्ण मीडिया सत्ता के प्रति नर्म है, सरकार हेडलाइन मैनेजमेंट करती है, तो यह भी याद दिला दिया जाना चाहिये कि सोशल मीडिया पर सरकार (और सत्तारूढ़ दल) का विरोध करने वालों को नियंत्रित करने और उनके खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए भाजपा के पास आईटी सेल है (इस पर एक किताब भी है)। घोषित विरोधियों के खिलाफ सीबीआई, ईडी आदि के दुरुपोयग के बावजूद। यही नहीं, सरकार सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के उपाय करती रहती है। ऐसे में हेडलाइन मैनेजमेंट वाली खबरों की चर्चा करना ज्यादा जरूरी है क्योंकि मीडिया अगर ढंग से काम कर रहा होता तो ये खबरें नहीं होतीं या इन पर अखबारों में ही लिखा जाता, इधर-उधर लिखने की जरूरत नहीं रहती। अब जब यह काम कोई नहीं कर रहा है तो आप यहां पढ़ते रह सकते हैं।
आज की ऐसी खबरों में प्रमुख है, ‘मोदी का परिवार’ अभियान। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है, द टेलीग्राफ में लीड है, द हिन्दू में सेकेंड लीड है और मेरे बाकी अखबारों में भी पहले पन्ने पर है। शीर्षक और प्रस्तुति से ही यह स्पष्ट है कि क्यों इसे हेडलाइन मैनजमेंट की खबर कहा जा रहा है। हालांकि, टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू, नवोदय टाइम्स में इसकी प्रस्तुति सामान्य खबर की तरह है और कम से कम इन तीन अखबारों के पाठकों में इस खबर का वही असर होगा जो अपेक्षित है। भाजपा को खबरों में रखने के लिए शुरू किये गये इस अभियान की खबर का शीर्षक टाइम्स ऑफ इंडिया में इस प्रकार है – “लालू के ताने का जवाब देने के लिए भाजपा ने ‘मोदी का परिवार’ अभियान शुरू किया”।
द हिन्दू में यह खबर सेकेंड लीड है, “मोदी ने राजनीति में ‘वंशवाद’ की आलोचना की, कहा ‘मेरा देश मेरा परिवार’”। हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, लालू के ताने पर भाजपा नेताओं ने प्रोफाइल बदलकर ‘मोदी का परिवार’ किया। नवोदय टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, “मेरा भारत, मेरा परिवार : मोदी”। अमर उजाला में मुख्य शीर्षक है, तब मैं भी चौकीदार अब मोदी का परिवार। इसके ऊपर दो फ्लैग शीर्षक तीन -तीन लाइनों में हैं। पहला शीर्षक है, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की निजी टिप्पणी को पीएम मोदी ने बनाया भावनात्मक हथियार। मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने भी सोशल मीडिया पर बदला परिचय, चंद घंटों में करने लगा टॉप ट्रेन्ड।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस खबर को पुराने संदर्भ के साथ सिर्फ अमर उजाला ने प्रस्तुत किया है। उसपर आने से पहले बाकी शीर्षक से लगता है कि लालू यादव ने मोदी जी पर निजी हमला कर दिया तो उन्होंने इसे ही चुनाव जीतने का हथियार बना लिया। यह कामयाब होगा कि नहीं और होगा तो कितना यह अभी तय नहीं हो सकता है लेकिन भाजपा के प्रचार को इस तरह लपक लेना और पहले पन्ने पर जगह देना तथा न्याय यात्रा की उपेक्षा अपनी जगह तो है ही। कारण समझना मुश्किल नहीं है कि एक मामले में भाजपा का प्रचार किया जा रहा है तो दूसरे में कांग्रेस या इंडिया गठबंधन या राहुल गांधी की उपेक्षा की जा रही है। एक आरोप के जवाब को भावनात्मक रंग दिया जा रहा है जबकि इस मामले में पुरानी कहानी कुछ और है।
इंडियन एक्सप्रेस में इस खबर को पहले पन्ने पर नहीं छापना बताता है कि और भी गम हैं, जमाने में। जबकि द टेलीग्राफ ने लीड बनाकर इस अभियान की ही पोल खोल दी है। कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा को बेसब्री से किसी चुनावी मुद्दे की तलाश थी और मौका मिलते ही पार्टी ने उसे लपक लिया। ज्यादातर अखबारों ने उसका प्रचार ही किया है और अमर उजाला ने भले बताया है कि 2019 में (तब मैं भी चौकीदार) अभियान चलाया था। पर भाजपा चुनाव जीतने के लिए इस बार वही सब कर रही है यह बड़ी खबर है और उस ढंग से सिर्फ टेलीग्राफ ने प्रस्तुत किया लगता है। और आज की बड़ी खबर यह भी है कि इलेक्टोरल बांड के बारे में जानकारी देने के लिए एसबीआई ने समय मांगा है।
आप जानते हैं कि वंशवाद परिवारवाद का ही व्यावहारिक रूप है और नरेन्द्र मोदी इसके लिए विपक्ष की आलोचना करते रहे हैं। इस हद तक कि 2014 में “परिवार नहीं है” उनका यूएसपी था। राहुल गांधी ने अविवाहित होते हुए भी ऐसा दावा नहीं किया था। ना ही कहा था कि उनकी शादी नहीं हुई है, बहन का पति अच्छा भला कमाता है, राजनीति में आना चाहती तो आ जाती पर राजनीति में नहीं है, मां वर्षों से सांसद है। नाना की किताबों की रायल्टी इतनी मिलती है कि कमाने और नौकरी करने की जरूरत नहीं है। मैं किसके लिए भ्रष्टाचार करूंगा। प्रधानमंत्री होने के कारण ही दादी और पिता की हत्या हो चुकी है इसलिए मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनना या उसके बावजूद चुनाव लड़ रहा हूं तो वह वंशवाद नहीं, देश सेवा है। पैसे कमाने के लिए नहीं है आदि आदि।
यही नहीं, नरेन्द्र मोदी ने तब झूठ बोला था। उनकी शादी हो चुकी थी और विधिवत तलाक नहीं हुआ था फिर भी वे खुद को अविवाहित बताते रहे और परिवार नहीं है से यह आभास देते रहे हैं उनके परिवार में कोई नहीं है। जबकि मां जीवित थीं और भाइयों बहनों का भरा-पूरा परिवार था। यही नहीं बचपन का मित्र अब्बास भी था। और यह सब पिछले 10 सालों में किसी खोजी पत्रकारिता या सीबीआई की जांच से सामने नहीं आया, खुद उन्होंने ही बताया है। जाहिर है, बहुत मामूली बातों पर ईमानदारी का झूठा चोला पहन कर चुनाव प्रचार किया और जीत गये। उसके बाद काम के नाम पर जो किया वह ऐसा नहीं था कि 2019 में उसके नाम पर वोट मांगते।
दुनिया जानती है कि 2019 में नरेन्द्र मोदी के चुनाव जीतने में पुलवामा की घटना और चुनाव प्रचार में उसके उपयोग की बड़ी भूमिका थी। हालांकि, तब चौकीदार चोर है के आरोप के जवाब में “मैं भी चौकीदार” शुरू करवाया था। तब जनरल साब को भी चौकीदार बनना पड़ा था। दूसरी तरफ राहुल गांधी को पप्पू साबित करने में करोड़ों फूंकने का फायदा नहीं हुआ तो वंशवाद का राग अलापते रहे और भाजपा में वंशवाद बढ़ता रहा। गांधी परिवार और उपनाम तक पर आग उगलने के बावजूद आधा गांधी परिवार, गांधी नाम से ही भाजपा में है। देश को कांग्रेस मुक्त करते करते भाजपा को कांग्रेस युक्त ही नहीं किया उसे वाशिंग मशीन पार्टी बना दिया।
ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए मुद्दा नहीं है तो वंशवाद और परिवार में ही फंसे रहे और इसी के जवाब में लालू यादव ने कह दिया, परिवार नहीं है तो हम क्या करें- और बस मौका मिल गया भावनात्मक लाभ लेने का। कहने की जरूरत नहीं है कि नोटबंदी जैसे अपने खड़े किये संकट में वे यह व्यंग कर रहे थे कि घर में शादी है, पैसे नहीं हैं। ऐसा व्यक्ति अब पूरे देश को परिवार कह रहा है। इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिन्हें कपड़ों से पहचाना जा सकता है और जिनके घर पर बुलडोजर चलाने के लिए अदालत के आदेश की जरूरत नहीं होती है। ऐसे में अब नरेन्द्र मोदी को परिवार की जरूरत समझ में आ रही है, परिवार बना रहे हैं। उसमें ब्रजभूषण सिंह भी हैं। भाजपा के नेता मोदी के परिवार हैं तो संघ परिवार का क्या होगा?
आज अभियान की खबर यह सब पूछकर, बताकर छपनी चाहिये थी या फिर सवालों के साथ छापते लेकिन अखबारों ने ऐसा नहीं किया है। कर भी नहीं सकते हैं क्योंकि जवाब वो देते नहीं हैं। प्रश्न उनसे किये नहीं जाते हैं। और इस तरह हेडलाइन मैनेजमेंट चल रहा है। कामयाब है। कहने की जरूरत नहीं है कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी और तमाम सरकारी फैसलों से जो उम्मीद थी जो काम आसानी से हो जाना बताया गया था, नहीं हुआ। यह अनुभवहीनता, अयोग्यता, मनमानी, अगंभीरता सब है पर इसके लिए आलोचना नहीं है। चर्चा ही नहीं है। आम लोगों को समझ में नहीं आता होगा लेकिन मीडिया? लोकप्रियता बनाये रखने में जी-जान से जुटा है।
संघ परिवार को अपना उम्मीदवार तो बदल ही देना चाहिये। विदेश में रखा काला धन वापस लाने से लेकर, सपनों का भारत और स्मार्ट सिटी तक तमाम वायदे पूरे नहीं हुए लेकिन मोदी की गारंटी के विज्ञापन छप रहे हैं। सवाल कोई नहीं है। दिल जीतने के लिए भारत रत्न लुटा दिये गये। गनीमत यह रही कि अखबारों ने इसे मास्टर स्ट्रोक नहीं बताया। भले ही राज की बात न हो, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं 2019 वाली व्यवस्था स्पष्ट होती दिख रही है। संघ परिवार किंकर्तव्यविमूढ़ यह सब दे रहा है। इससे यह समझना मुश्किल है कि वह यह सब होने दे रहा है, उसका समर्थन है या वह भी लाचार और नियंत्रित है। अखबारों से इसका जवाब ढूंढ़ने बताने की मामूली सी अपेक्षा भी पूरी नहीं हो सकती है।
द टेलीग्राफ ने मोदी का परिवार अभियान पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया भी साथ में दी है। कांग्रेस ने कहा है कि चुनाव के जिम्मेदारी की जरूरत होती है, नौटंकी (गिम्मीकरी) की नहीं। अखबार ने यह भी लिखा है कि भाजपा के इस अभियान में 2019 वाले मैं भी चौकीदार की गूंज है। यही नहीं, पार्टी के मीडिया विभाग के प्रमुख और सोशल मीडिया प्रमुख ने कहा है कि भाजपा और राज्य सरकारों को किसानों और युवाओं के परिवारों के लिए चिन्तित होना चाहिये जो आत्महत्या कर रहे हैं न कि मोदी के परिवार के बारे में। इसमें एक दिलचस्प दावा भी है, आखिरकार हमें पता चल गया कि बृजभूषण शरण सिंह के परिवार का मुखिया कौन है! आज ज्यादातर अखबारों की लीड सुप्रीम कोर्ट की खबर है जिसके अनुसार संसद या विधानसभा में वोट या भाषण देने के लिए रिश्वत ली तो जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा चलेगा। इससे 1998 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले को पलट दिया गया है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में नहीं माना है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी के द्वारा कानून के दुरुपयोग की आशंका सही है। यहां महुआ मोइत्रा के मामला उदाहरण है। द टेलीग्राफ ने लिखा है कि इसका असर उनके मामले में भी होगा। हालांकि, उसके लिए रिश्वत लिया दिया-गया साबित करना होगा। रिश्वत लेने के साथ देना भी अपराध है तो देने वाले को सरकारी गवाह बना लिया जाता रहा है।
महुआ मोइत्रा की सदस्यता इन सब के बिना जा चुकी है पर सार्वजनिक रूप से रिश्वत लेने के मामले में एक फैसला इतने वर्षों बाद पलटे जाने के बाद क्या हम यही मानते रहें कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार के प्रभाव से मुक्त होता है? रिश्वत देने के आरोप में पूर्व गृहमंत्री और स्वयं कानून के जानकार पी चिदंबरम जेल में रह चुके हैं। मामले का क्या हुआ पांच साल बाद भी पता नहीं है और दुरुपयोग की आशंका को टालना जबकि राहुल गांधी को मामूली से सवाल पर अधिकतम सजा हो चुकी है। मुझे तो समझ में नहीं आया। मेरा मामला है भी नहीं लेकिन खबरों ना चिन्ता है ना सवाल।
खासकर इसलिये कि 10 साल में कितने ही विधायक खरीदकर कितनी ही सरकारें गिरा चुके नरेन्द्र मोदी ने इस फैसले पर कहा है और अमर उजाला तथा अन्य अखबारों ने छापा है, स्वागतम… राजनीति को स्वच्छ बनायेगा निर्णय। अब आप कीजिये अपना फैसला कि पहले क्या दिक्कत थी और अब क्या नया हो गया है। मुझे लगता है कि इस और ऐसे कई फैसलों के गंभीर मायने हैं। और राजनीति के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले बदलने (देर से आने) आदेश पर समय रहते अमल करने की बजाय समय मांगने और नोटबंदी के फैसले वाली मीटिंग के मिनट्स देने में भी देरी तथा उसपर देर से सुनवाई जैसे मामले गंभीर चर्चा और समाधान मांगते हैं लेकिन एक बार झूठ बोलकर चुनाव जीता जाये, दूसरी बार पुलवामा जैसे हमले से और फिर नौटंकी की कोशिशें चल रही हों तो काम करने वाली सरकार कैसे आयेगी? वह भी तब जब जो 10 साल कुछ नहीं कर पाया वही कहता रहा कि 70 साल क्या हुआ और उसका परिवार उसी को उम्मीदवार मानता है। पहले बिना परिवार का था तब और अब परिवार बना रहा है तब भी। लोकप्रियता तो बनी ही हुई है।