Yashwant Singh : आजकल कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ रहा हूँ। अमेज़न से 3 डॉलर का मंगाया। वर्ष 1848 में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने जो ये राजनीतिक दस्तावेज पेश किया, वह अदभुत है। ध्यान से देखिए तो दुनिया में दो तरह के लोग ही नजर आते हैं- शोषक और शोषित। वर्ग संघर्ष इस धरती का सच है, बाकी जो कुछ है वह इस क्लास स्ट्रगल के एक्शन या रिएक्शन में है।
इस 96 पेजी कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के आखिर में आह्वान किया गया है कि वर्किंगमेन ऑफ ऑल कंट्रीज यूनाइट! सदियां बीत जाने के बाद भी कितना सटीक और क्या खूब प्रासंगिक नारा है। आज का यह वक़्त वर्किंगमेन के सर्वाधिक असंगठित होते जाने का है। सरकारों ने आम जन का श्रम, पूंजी और खून पीने-लूटने की खुली छूट धनपशुओं को दे दी है।
आम जन बुनियादी मुद्दों- रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर बात न कर सके और पूंजीपतियों के लूट-शोषण पर ध्यान न दे सके, इसलिए धार्मिक घृणा और युद्धोन्माद का माहौल लगातार बनाए हुए हैं।
पूंजीपतियों और सरकारों की आम जनता के खिलाफ इस बड़ी साजिश में दलाल टुकड़खोर मीडिया अपने आकाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जनविरोधी आग में अंधराष्ट्रवाद रूपी घी डालने का काम कर रहा है। ऐसे वक्त में जनता की आंख खोलने के लिए एक बार फिर से कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ने और पढ़ाने की ज़रूरत है। लाल सलाम!
भड़ास संपादक यशवंत के उपरोक्त एफबी स्टेटस पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ प्रमुख यूं हैं:
Akhil Anand : जब पुरी दुनिया में दक्षिणपंथ अपने चरम सीमा पर है, ठीक ऐसे वक्त में इस किताब को पढ़ना मानसिक अय्यासी के अलावा कुछ भी नहीं है। भारत जैसे विविधतामूलक समाज में कम्युनिस्ट आंदोलन एक धोखा साबित हुआ है। इसने सभी विमर्शों को निगलने के बाद केवल सिकुलरिज्म का डफ़ली पकड़ कर आरएसएस के सामने घूटने टेक दिए। द्वंदात्मक भौतिक वाद के सहारे सबाल्टर्न आंदोलन को कुचलने वाले बी प्रजाति के वामपंथी अब केवल आदिवासी विमर्श में शिफ़्ट हो रहा है। अब इनलोगों की कुटिलता और जहिलपंथी से लोग कोसों दूर भागते हैं।
Yashwant Singh : अपढ़ आदमी ज्यादा ज्ञान पेलता है. धन्यवाद अखिल अज्ञानी जी!
Akhil Anand : शुक्रिया यशवंत जी!! कभी कभी अपढ़ आदमी का अनुभव ज्ञानी से ज्यादा गहरा होता है। आप अवश्य पढ़ें और इसके व्यवहारिक रूप का भी अवलोकन करें। इस किताब से प्राप्त होने वाले ज्ञान की अग्रिम बधाइयां।।
Yashwant Singh : भाई, आपने किताब का वाचन किया या नहीं, यह विषय है. नहीं किया है तो कर के रिव्यू लिखिए, किया है तो इस किताब के किस कंटेंट से किस प्रकार असहमति है, उसका तार्किक विश्लेषण करिए. भक्तों टाइप रायता न फैलाया करिए. धन्यवाद आपका भी.
Akhil Anand भैया, उस किताब से और मेरे प्रिय दार्शनिकों में से एक कार्ल मार्क्स से तनिक भी असहमति नहीं है। दरअसल मैंने भारतीय सामाजिक और राजनीतिक संरचना के संदर्भ में अपना अनुभव साझा किया है। आपकी भक्तों वाली टिप्पणी वाजिब है। लेकिन मेरा संदर्भ भारतीय वामपंथी आंदोलनों की ब्राह्मणवादी संस्करण को लेकर है।
Yashwant Singh मैं बात दर्शन की कर रहा था, बुक के जरिए. भारत में वामपंथी आंदोलन की असफलता एक अलग और बड़ा टापिक है बतियाने के लिए. गड़बड़ियां भयंकर थीं, तभी तो भारत में कम्युनिस्ट हाशिये के लोगों की आवाज उठाते उठाते खुद हाशिए की सियासी ताकत के रूप में सिमट गए हैं. ब्रदर ध्यान रखा करें, जो स्टटेस हो, उस पर बात किया जाए. बात भटकाने से क्या फायदा. यहां कम्युनिस्टों को गरियाना या प्रशंसा करना विषय है नहीं. सब्जेक्ट तो कम्युनिस्ट मेनीफेस्टों का कंटेंट और दुनिया भर में वर्किंगमेन का शोषण है जिसका शिकार हम और आप भी हैं.
Arvind Mohan : Pustak Mela me to pachas rupaye me Mili.
राजीव रंजन झा : यशवंत जी अपने पुराने कामरेडों को सबूत दे रहे हैं कि वे आज भी कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो खरीदने के लिए 3 डॉलर खर्च कर सकते हैं! 🙂
Yashwant Singh : पुराने कामरेड हमको कामरेड मानते ही नहीं. मुझे कामरेड मानने वालों में सबसे ज्यादा संख्या संघियों-भाजपाइयों की है 🙂
राजीव रंजन झा : इसीलिए तो सबूत देने की कोशिश/ जरूरत!
Yashwant Singh : सुबूत न तब दिए न अब देंगे. और फिर, देना किसे है सुबूत? कोई हमसे बड़ा कामरेड हो तो उसे दें सुबूत.. 🙂 हम लोग दिल के राजा हैं. जो अच्छा बुरा मन में आया, किए… 🙂
Devpriya Awasthi : मेनिफेस्टो में जो लिखा है उस पर अमल कहां हुआ? तथाकथित क्रांति के बाद उसके अगुवा ही क्रमशः शोषक बन गए। कुछ अपवाद जरूर हैं।
Yashwant Singh : सहमत सर.
Aalam Faridi : मैं कम उम्र में पढ़ लिया था। तब समझदारी बहुत ही कम थी। कुछ समझ नहीं आया था।
Girish Malviya : हम तो आपको संघी समझते थे 🙂
Yashwant Singh : बहुरुपिया हूं मैं 🙂 वैसे संघी भी लम्पट किस्म का कन्फ्यूज्ड सर्वहारा ही होता है 🙂
अनिल जैन : संघी सर्वहारा नहीं, ‘नरसेवक’ होता है।
Asit Nath : एक और किताब है..एक कदम आगे दो कदम पीछे..मौका मिले तो पढ़िएगा।
Sumer Dan : अंग्रेजी में हैं हिन्दी अनुवाद बताना
Yashwant Singh : हिंदी में भी आनलाइन मिल जाएगी, सर्च करें.
राजीव रंजन झा : बीएचयू के समय में जो खरीदे थे, वो कबाड़ी को बेच दिये थे क्या!
Yashwant Singh : वो सब शिशु कामरेड लोग को पढ़ने समझने के लिए गिफ्ट कर दिया था… 🙂
Akhilesh Pratap Singh : बीएचयू में पढ़ लिये होंगे आप… रिवीजन चल रहा है क्या…
Yashwant Singh : Bhu में तो नए बच्चों को पढ़ा कर ब्रेन वाश करता था। मेरा खुद का ब्रेन वाश इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ 😀
Rahul Singh : भाई, पी पी एच से ले लिये होते 40-50 रूपये में आ गये होते।