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कांग्रेस के लिए यह बहुत हिम्मत वाला फैसला है, इंडियन एक्सप्रेस ने आज इस खबर को लीड बनाया है!

संजय कुमार सिंह  

कांग्रेस ने भाजपा को मंदिर की राजनीति करने का मौका दिया और भाजपा वही कर रही है। 22 जनवरी के कार्यक्रम का निमंत्रण स्वीकार करने का मतलब धर्म की राजनीति में भाजपा का नेतृत्व स्वीकार करना होता। नहीं जाने का मतलब यह है कि अब उसे भाजपा की धर्म की राजनीति का डर नहीं है या वह उसमें पड़ना नहीं चाहती है या मुकाबला कर सकती है। 22 जनवरी के कार्यक्रम में शामिल नहीं होने की घोषणा करके उसने भाजपा को यह कहने का मौका दिया है कि उसकी आस्था धर्म में नहीं है। कांग्रेस के लिए यह बहुत हिम्मत वाला फैसला है। इससे पहले ममता बनर्जी अपनी बात कह चुकी हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने आज इस खबर को लीड बनाया है। हिन्दी के मेरे दोनों अखबारों में कांग्रेस या मंदिर की खबर लीड नहीं है। नवोदय टाइम्स ने दो कॉलम में निपटा दिया है जबकि अमर उजाला में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। कारण आधे पन्ने का विज्ञापन हो सकता है पर वह अलग मुद्दा है।

मैं इस तथ्य या सूचना को खबर के रूप में प्रस्तुत किये जाने की संभावना जानते हुए कांग्रेस ने जो कहा है और अखबारों ने जो बताया है उसकी चर्चा करना चाहूंगा। सबको पता था कि नहीं जाने या निमंत्रण स्वीकार नहीं करने पर भाजपा क्या कहेगी या कह सकती है। जो कहा है उसके कुछ उदाहरण से यह स्पष्ट है कि उसमें कुछ नया नहीं है। वैसे भी दिख रहा है कि भाजपा के पास चुनाव के लिए कुछ नया नहीं है। मेरी दिलचस्पी इसमें है कि कांग्रेस ने यह नहीं कहा कि वह 15 जनवरी से न्याय यात्रा में व्यस्त रहेगी, उसके लिए (चुनाव जीतने या जनता की सेवा के लिए) वह ज्यादा जरूरी है। खासकर इसलिए भी कि भाजपा सरकार ने मणिपुर में यात्रा की शुरुआत जहां से होनी है उसकी अनुमति नहीं दी है। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार सशर्त अनुमति मिल गई है।

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कहने की जरूरत नहीं है कि इस साल लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के पास अपने किये काम गिनाने के लिए हैं। उसने अनुच्छेद 370 हटा दिया है पर वहां चुनाव नहीं करा पाई है। इधर मंदिर तो बन गया पर उसमें राजनीति स्पष्ट है। हालांकि, जनता की मांग पूरी हो गई अब उद्घाटन समारोह में कांग्रेस की उपस्थिति या अनुपस्थिति से उसकी भव्यता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए वह कह सकती थी कि उसे इसमें शामिल होने की जरूरत नहीं लगती है। राजनेताओं और सरकार की जरूरत देश चलाने के कामों में है, मंदिर का उद्घाटन तो धर्म से जुड़े लोग भी कर सकते हैं। कांग्रेस ने ऐसा नहीं कहा है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार, (इसे) भाजपा-आरएसएस का आयोजन कहते हुए 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन से अलग रहने की घोषणा की है।

दूसरी ओर, इंडियन एक्सप्रेस ने प्रचारक का काम करते हुए मूल खबर के साथ एक खबर छापी है जिसका शीर्षक है, भाजपा ने पलटवार किया : (इससे) पता चलता है कि सनातन धर्म के बारे में इंडिया समूह क्या सोचता है। अमर उजाला ने अपने दूसरे पहले पन्ने पर केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर का कहा छापा है, कांग्रेस का चाल, चरित्र और चेहरा कभी नहीं बदल सकता है। मुझे नहीं पता ठाकुर ने यह बात अपनी पार्टी और नेता के दस साल के शासन के बाद भाजपा के बदले चाल, चरित्र और चेहरे के संदर्भ में कही है या कांग्रेस की प्रशंसा में कि, वह जैसी थी वैसी ही है। यहां दिलचस्प यह भी है कि उद्घाटन में शामिल नहीं होने के कांग्रेस के कारण इतने ही नहीं हैं और दूसरे अखबारों में उनका जिक्र है। हालांकि खबर यह भी है कि कांग्रेस में लोग इसे आत्मघाती निर्णय कह रहे हैं।

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जहां तक इंडियन एक्सप्रेस की खबर और रिपोर्टिंग की बात है, उसने द टेलीग्राफ की तरह मूल खबर के बराबर में खबर छापकर यह नहीं बताया है कि शंकराचार्यों ने आयोजन पर एतराज किया है। इस खबर में कहा गया है कि चारो शंकराचार्य इस आयोजन में हिस्सा नहीं लेंगे क्योंकि यह सनातन धर्म के नियमों का उल्लंघन करके किया जा रहा है। कुल मिलाकर यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जब शंकराचार्यों ने इसमें शामिल नहीं होने का निर्णय लिया, इसे सनातन धर्म के नियमों के खिलाफ आयोजित किया जाना कहा है तब कांग्रेस ने इसे भाजपा आरएसएस का आयोजन कहा है। मेरा ख्याल से कुछ गलत नहीं कहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने खबरों की प्रस्तुति में निष्पक्षता नहीं रखी है जबकि द टेलीग्राफ ने दोनों खबरों के बीच में एक खबर से बताया है कि भाजपा ने कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने का टैग लगाया है।

मैं नहीं कहता कि भाजपा ने गलत कहा है पर कहा है तो वह खबर है, वैसे ही जैसे शंकराचार्यों का कहा है जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने प्रमुखता नहीं दी है। दूसरे अखबारों में भी नहीं है जबकि कार्यक्रम की खबर कैसे की जा रही आप देख ही रहे हैं। एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड में इसे कांग्रेस की ‘दुविधा’ कहा गया है और यह भी कि 2019 में उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था लेकिन निमंत्रण को लेकर राजनीतिक दुविधा में फंसी हुई थी। मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रशंसा करना और यह आयोजन जब, जैसे हो रहा है और जैसे जिन लोगों को जिस माहौल, संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में निमंत्रण दिया गया है और शामिल होने से मना किया गया है वैसे में दुविधा जैसी कोई स्थिति कांग्रेस तो छोड़िये किसी भी एक व्यक्ति में नहीं होगी। निश्चित रूप से कांग्रेस का यह फैसला काफी हिम्मतवाला है और बताता है कि वह भाजरा का मुकाबला इस मुददे के बाद भी कर सकती है।

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मीडिया की इस दशा को लोग सरकार का समर्थन कहते और मानते हैं कि मीडिया सरकार के दबाव में है। पर अखबार कौन बना रहा है यह तो मालिकान भी नहीं जानते हैं ऐसे में क्या रोज हर खबर के लिए निर्देश दिये जाते होंगे? मुझे संभव नहीं लगता है। मैंने पहले भी कहा है कि जब मैं जनसत्ता में था तो हमलोग अखबार देखकर समझ जाते थे कि किसने बनाया होगा। अखबार पर उसे बनाने वाले का छाप होता है और उसके लिए दबाव की जरूरत नहीं होती है। समर्पण हो तो दिख ही जाता है। एक-एक खबर में दिखता था। हमलोग यह भी समझ सकते थे कि किसकी खबर का शीर्षक किसने लगाया होगा। और पन्ना किसने बनवाया होगा। इसीलिये अमर उजाला में, डोम राजा प्राण प्रतिष्ठा में विशेष यजमान और आडवाणी भी होंगे शामिल जैसी खबरें तो हैं पर शंकराचार्य वाली खबर नहीं दिखी। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी अखबारों के पत्रकार अक्सर हिन्दू हो जाते हैं।

यह दिलचस्प है कि 22 के आयोजन में शामिल नहीं होने के कांग्रेस के निर्णय की खबर आज इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ के अलावा किसी अन्य अखबार में लीड नहीं है। कांग्रेस का फैसला निश्चित रूप से गंभीर और राजनीतिक है और भाजपा अगर धर्म की राजनीति कर रही है तो कांग्रेस ने बताया है कि वह न्याय की अपनी मांग पर अडिग है। भाजपा की आलोचना तो करती ही रही है। पर अखबारों ने इसे धार्मिक नजरिये से ही प्रस्तुत किया है और यह सूचना भर नहीं है। उदाहरण के लिए अमर उजाला ने इस खबर को लीड के ऊपर करीब सात कॉलम में छापा है। शीर्षक है, प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जाएंगे सोनिया, खरगे व अधीर …. कांग्रेस ने निमंत्रण ठुकराया। मुझे लगता है कि निमंत्रण ठुकराया भी तो यह सूचना है और सूचना की ही तरह प्रस्तुत किया जाना चाहिये था न कि राजनीति के भाग की तरह। कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस का निर्णय भले उसकी राजनीति हो पर अखबारों और पाठकों के लिए तो यह सूचना ही है और सूचना की ही तरह पेश किया जाना चाहिये जैसे बाकी के कई अखबारों ने किया है। टेलीग्राफ को यह बड़ी सूचना लगी तो उसने वैसे प्रस्तुत किया।

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