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सियासत

क्या कॉर्पोरेट मीडिया का काम सिर्फ बड़े राजनीतिक दलों का एजेंडा सेट करना है

इस समय चौबीस घंटे में तेईस घंटे मीडिया देश के नाम पर सिर्फ दिल्ली की ख़बरें दिखा रहा है। ये अपने को राष्ट्रीय चैनल कहते हैं। इसमें कहाँ है उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, केरल, मणिपुर, आंध्र, उड़ीसा की ख़बरें? क्या दिल्ली ही इनका देश और राष्ट्र है। क्या सिर्फ दिल्ली को देखने के लिए और मीडिया की सेट बकवास को सुनने के लिए हम दो सौ से सात सौ रूपये तक का भुगतान केबल और डिश को करते हैं। जो फेज़ मीडिया का चल रहा है, यह ऐसे ही चलता रहे, यही हम सब के हित में है। ऐसे अपने ही किये धरे से ये खुद ही जनता में अपना भरोसा खो देंगे।

<p>इस समय चौबीस घंटे में तेईस घंटे मीडिया देश के नाम पर सिर्फ दिल्ली की ख़बरें दिखा रहा है। ये अपने को राष्ट्रीय चैनल कहते हैं। इसमें कहाँ है उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, केरल, मणिपुर, आंध्र, उड़ीसा की ख़बरें? क्या दिल्ली ही इनका देश और राष्ट्र है। क्या सिर्फ दिल्ली को देखने के लिए और मीडिया की सेट बकवास को सुनने के लिए हम दो सौ से सात सौ रूपये तक का भुगतान केबल और डिश को करते हैं। जो फेज़ मीडिया का चल रहा है, यह ऐसे ही चलता रहे, यही हम सब के हित में है। ऐसे अपने ही किये धरे से ये खुद ही जनता में अपना भरोसा खो देंगे।</p>

इस समय चौबीस घंटे में तेईस घंटे मीडिया देश के नाम पर सिर्फ दिल्ली की ख़बरें दिखा रहा है। ये अपने को राष्ट्रीय चैनल कहते हैं। इसमें कहाँ है उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, केरल, मणिपुर, आंध्र, उड़ीसा की ख़बरें? क्या दिल्ली ही इनका देश और राष्ट्र है। क्या सिर्फ दिल्ली को देखने के लिए और मीडिया की सेट बकवास को सुनने के लिए हम दो सौ से सात सौ रूपये तक का भुगतान केबल और डिश को करते हैं। जो फेज़ मीडिया का चल रहा है, यह ऐसे ही चलता रहे, यही हम सब के हित में है। ऐसे अपने ही किये धरे से ये खुद ही जनता में अपना भरोसा खो देंगे।

ख़बरों का अर्थ क्या केवल बड़ी राजनीतिक पार्टियों का एजेन्डा सेट करना होता है? आप देश की कृषि नीति पर बात क्यों नहीं करते? यह देश नौजवानों का देश है, उनके लिए राज्य और केंद्र में रोजगार के लिए क्या उपाय किये जा रहे हैं इस पर बड़ी बहसें क्यों नहीं आयोजित करते? पुरुष प्रधान समाज की मूल्य मान्यताओं को तोड़ने के लिए बहस क्यों नहीं होती? पूरे देश में राज्य और केंद्र के कर्मचारी अपने मुद्दों को लेकर आन्दोलनरत हैं, यह आवाज़ कहाँ है? आदिवासियों के संघर्ष को लेकर सकारात्मक ख़बरें कहाँ हैं? पानी का निजीकरण हो रहा है, आज तक गंगा एक इंच साफ़ नहीं हुई, लाखों हेक्टेयर जंगल काटे जा रहे हैं, इन पर बहसें कहाँ हैं?

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मीडिया ने कभी बड़े बिजनेस हाउसेज, कारपोरेट के षड्यंत्रों पर बात नहीं की। हर चैनल पर यह पट्टी चलनी चाहिए कि इस चैनल में फलाने आदमी का पैसा लगा है। इससे लाख बेहतर तो अब भी सारे सरकारी चैनल हैं। सरकारी रेडियो है। डीडी से लेकर राज्यसभा और लोकसभा चैनल यहाँ तक कि क्षेत्रीय चैनल भी इनसे ज्यादा गंभीर हैं। अगर ये सरकार का पक्ष ज्यादा दिखाते भी हैं तो लोग यह जानते तो हैं कि यह सरकारी आवाज़ है।

मीडिया को केवल विजुअल प्रधान, हंगामेदार, सनसनीखेज मसाला ही दिखाना होता है। यह कारपोरेट मीडिया है जो जनता को ऐसे मुद्दों पर चौबीस घंटे उलझाए हुए है जिन पर बहसों से जनता के जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। न ज्ञान बढ़ना है, न राजनीति की पोल खोलनी है।

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ऐसे समय में छोटी पत्रिकाओं, सोशल मीडिया, ब्लॉगों, वेबसाईटों की ख़बरों और विश्लेषण का महत्व बहुत बढ़ जाता है। यह हम सबकी भी ज़िम्मेदारी है कि हम वास्तव में खबर दिखाने वाले इन कम-चर्चित पर बेहद ज़रूरी माध्यमों का प्रचार करें और जितना संभव हो इनकी आर्थिक मदद करें।

 

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कवि और सोशल एक्टिविस्ट संध्या नवोदिता की फेसबुक वॉल से।

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