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दीवानी मामलों को आपराधिक बनाने पर सुप्रीमकोर्ट सख्त

धारा 482 के तहत हाईकोर्ट यह जाँच कर सकता है कि दीवानी मामले को आपराधिक रंग तो नहीं दिया जा रहा है… आजकल दीवानी मामलों की सुनवाई में अतिशय अदालती देरी के चलते दीवानी मामलों को आपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है, ताकि मन मुताबिक समझौते की संभावना बन सके. यही नहीं सुविधा शुल्क वसूली के लिए दीवानी मामलों को अपराधिक रंग देने की प्रवृत्ति में पुलिस की भी मिलीभगत बढती जा रही है. दीवानी मामलों को अदालत के बाहर निपटने में जहाँ अपराधिओं/दबंगों की कंगारू अदालतें बनती जा रही है वहीं पुलिस भी सुविधा शुल्क वसूली के लिए इसमें कूद पड़ी है .ऐसे में उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण फैसला आया है, जिसमें कहा गया है कि दीवानी मामले को आपराधिक प्रकृति का बताने की कोशिश करना अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग है.

उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दिया हा कि कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए हाईकोर्ट इस बात की पड़ताल कर सकता है कि जो मामला दीवानी प्रकृति का है उसे आपराधिक मामला तो नहीं बनाया जा रहा है. न्यायालय ने कहा कि अगर किसी मामले को दीवानी है पर उसे आपराधिक मामला बनाया गया है तो इस मामले का जारी रहना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इस मामले को निरस्त किया जा सकता है. यह व्यवस्था न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने प्रो आर के विजय सारथी बनाम सुधा सीताराम एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) 1434 / 2018,मामले में दिया है.

इस मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने आपराधिक मामलों को निरस्त करने के आरोपियों की अपील को सुनने से मना कर दिया था . मामले के तथ्यों के अनुसार यह विवाद दो परिवारों के बीच था । शिकायतकर्ता की बेटी आरोपी के बेटे की पत्नी है। बेटी की तलाक़ की अर्ज़ी पारिवारिकअदालत ने ख़ारिज कर दी। आरोपी के बेटे ने 17 फ़रवरी 2010 को अपनी सास के खाते में 20 लाख रुपए डाल दिए। बाद में जब दोनों के बीच वैवाहिक संबंध टूट गए तो उसने इस राशि की वापसी के लिए अपनी सास के ख़िलाफ़ एक दीवानी मामला दर्ज कर दिया। इसके बाद सास ने कहा कि यह राशि बाद में उसने अपने माँ-बाप को नक़द दी और उन लोगों ने इसकी कोई प्राप्ति रसीद उन्हें नहीं दी। सास ने आरोप लगाया कि आरोपी (उनकी बेटी का पति) और उसके माँ-बाप ने मिली भगत से इस पैसे को निकाल लिया है और जो दीवानी मामला दायर किया गया है,उसमें कोई दम नहीं है। मामले में मजिस्ट्रेट के आदेश के बाद आईपीसी की धारा 405, 406, 415 और 420 (धारा 34 के साथ) एफआईआर दर्ज किया गया। हाईकोर्ट ने इस एफआईआर को निरस्त करने से मना कर दिया।

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उच्चतम न्यायालय ने इस बात की जानकारी दी कि कैसे हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत इस मामले की जाँच कर सकता है। पीठ ने कहा कि इस शिकायत में वो सारी बातें होनी चाहिए जो इसे आईपीसी के तहत एक अपराध बनाता है। पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट सीरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का जब प्रयोग करता है तो उसे यह देखना चाहिए कि शिकायत में जिन बातों का ज़िक्र किया गया है वे पीनल कोड के तहत उसे मामला बनाने के लिए पर्याप्त है या नहीं. अगर आरोप ऐसे नहीं हैं तो आपराधिक मामले को धारा 482 के तहत निरस्त किया जासकता है. पूरी शिकायत पर आरोपों के सही या ग़लत होने के बारे नहीं सोचते हुए उस पर उसकी समग्रता में विचार किया जाना चाहिए. यह ज़रूरी है कि पीनल कोड के तहत शिकायत लायक़ सारे आवश्यक तथ्य उसमें हों.

शिकायत की जाँच करते हुए पीठ ने कहा कि इस मामले में शिकायतकर्ता ने दीवानी मामले को आपराधिक प्रकृति का बताने की कोशिश की है। कोर्ट ने कहा कि ऐसा करना अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग है और मामले को ख़ारिज किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत मिले अधिकार का प्रयोग सावधानी से करने की ज़रूरत है। इसके तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए हाईकोर्ट इस बात की पड़ताल कर सकता है कि कोई मामला जो कि आवश्यक रूप से दीवानी प्रकृति का है, उसे आपराधिक मामले का रूप तो नहीं दिया गया है। अगर शिकायत को सिर्फ़ पढ़कर ही ऐसा नहीं लगता कि ये तथ्य आपराधिक मामलों से संबंधित हैं, तो इस मामले को जारी रहना अदालती प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

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गौरतलब है कि अर्थ संबंधी मामले अर्थात जिनमें संपत्ति, क्रय-विक्रय, लेन-देन आदि पर विवाद शामिल हों, दीवानी (सिविल) मामले माने जाते हैं और दीवानी यानि सिविल विधि प्रक्रियाओं और दीवानी (सिविल) अदालतों के द्वारा निपटाएं जाते हैं। उदाहरण के लिए मकान मालिक और किराएदार के बीच किराए पर या मकान खाली करने आदि पर मतभेद के मामले अथवा संपत्ति के स्वामित्व या उत्तराधिकार आदि से जुड़े मामले। वास्तव में वे सभी कानूनी विवाद जो अपराध अथवा फौज़दारी से संबद्ध न हों, उन्हें दीवानी मामले कहा जा सकता है।फौजदारी कानून के अधीन वह सब मामले आते हैं जो आपराधिक कृत्यों से जुड़े हों उदाहरण के लिए हत्या, बलात्कार, धोखाधड़ी, मारपीट, डकैती, चोरी आदि के मामले।दीवानी मामलों के लिए सिविल प्रोसिजर कोड और फौज़दारी मामलों के लिए अपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) है.

गौरतलब है कि इसके पहले भी उच्चतम न्यायालय कह चूका है कि यह एक आम धारणा बन गई है कि अगर किसी व्यक्ति को आपराधिक मामले में उलझा दिया जाए, तो मामले में समझौते की संभावना बढ़ जाती हैं. इस तरह का कोई भी प्रयास दूसरे पक्ष के व्यक्ति को हतोत्साहित कर सकता है, जो कभी किसी आपराधिक मामले में संलिप्त नहीं रहा है.

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इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट.

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