-जे सुशील-
दफ्तर कथाएं- पत्रकारिता में दो ही तरह के लोग होते थे. एक संपादक फिर डेस्क और रिपोर्टर. यही ढांचा था और यही ढांचा होना चाहिए लेकिन फिर सत्तर अस्सी के दशक में मालिकों को लगा होगा कि यार ये ढांचा ठीक नहीं है क्योंकि ये रिपोर्टर दिन भर में एक रिपोर्ट लाता है. इतना तो कोई भी कर लेता या फिर ये कि डेस्क वाला करता ही क्या है.
संपादक को कुछ बोलो तो वो उलटे चढ़ जाता है. मालिकों ने संपादक पर नकेल कसने के लिए मैनेजर बनाए. मैनेजर आम तौर पर मूर्ख होते हैं खासकर पत्रकारिता में जो मैनेजर बनते हैं. मेरा अनुभव है लंबा और मैंने कम से कम अपने जीवन में पच्चीस तीस मैनेजर देखे हैं. हिंदुस्तानी से लेकर विदेशी तक और एकाध अपवाद को छोड़कर किसी को पत्रकारिता का एबीसीडी नहीं पता होता था. वो ऊपर की नीतियों को छल्लेदार भाषा में आकर पत्रकारों पर थोपते रहते थे.
कालांतर में सारे पत्रकार उसी रंग में रंग गए. मैंने मीटिंग्स में देखा है कि मैनेजर (इसे संपादक पढ़ें अब) कहता है ये स्टोरी होनी चाहिए. मझोला मैनेजर कहता है बिल्कुल होनी चाहिए. बवाल स्टोरी है. मीटिंग खत्म होती है. शाम तक स्टोरी नहीं होती है तो मझोले मैनेजर से ऊपर का मैनेजर (जो संपादक का चमचा होता है) पूछता है कि स्टोरी क्यों नहीं हुई तो जवाब मिलता है- सर कोई है ही नहीं करने वाला स्टोरी. मतलब समझिए कि एक स्टोरी जो संपादक स्वयं या उसके दो मातहत आसानी से कर सकते हैं वो कहानी नहीं होती है कि क्योंकि इनमें से किसी को स्टोरी करना आता नहीं है.
ये सब मिलकर एक जूनियर को पकड़ते हैं और उससे कहते हैं स्टोरी करो. वो कर के लाता है तो अगर मक्खनबाज है तो स्टोरी चल जाती है और अगर नहीं तो स्टोरी लटका कर उसमें दस गलतियां निकाल दी जाती हैं.
ऐसा मेरे साथ हो चुका है और मैंने ऐसा करते हुए कई मंझलों संझोले सीनियरों को देखा है जिन्हें एक रिपोर्ट लिखने को कहो तो हाथ पांव फूल जाते हैं. देखा तो मैंने ऐसे लोगों को भी है जो बीबीसी की वेबसाइट की रिपोर्टें उठा कर रेडियो और वीडियो के बुलेटिन में पूरा पूरा पढ़ जाते हैं क्योंकि वो खुद स्टोरी लिख नहीं सकते.
संपादक से कहो कि बंदे ने खुद नहीं लिखा और वेबसाइट की रिपोर्ट चेंप दी है तो संपादक मुस्कुरा कर कहता है कि बहुत अच्छा पढ़ा था उसने वीडियो में या रेडियो में. ऐसे संपादक एक नहीं कई है.
समस्या ये है कि संपादकों को ज्ञान देना बहुत अच्छा लगता है और अपने लोगों को बचाना और बढ़ाना लेकिन वो ये नहीं जानते कि एक दिन उनका भी नंबर लगता है तब कोई उन्हें नहीं पूछता है.
एक बार मैं कश्मीर गया अपने पैसे पर. कुछ मजेदार अनुभव हुए तो लौट कर मैंने एक ब्लॉगनुमा लेख लिखा. मेरे डिजिटल एडिटर ने कहा ठीक है लगा लो लेकिन तब तक संपादक के एक चमचे ने रोक लगा दी (ईमेल पर कुछ नहीं कहा). स्टोरी लटक गई तो मैंने ईमेल कर के पूछा कि कोई दिक्कत है तो बताया जाए. कहा गया ब्लॉग जैसा है तो मैंने जवाब दिया कि ब्लॉग जैसा नहीं है. ब्लॉग है. हेडिंग में मेंशन है.
फिर भी दो दिन स्टोरी नहीं लगी. मैंने फिर ईमेल लिखा कि स्टोरी में संपादकीय दिक्कत बताएं. तीसरे दिन वो पन्ने पर कहीं कोने में लगा कर हटा दी गई. ये चमचनुमा पत्रकार जो मेरी कहानी पर बैठा रहा तीन दिन तक उसने एक ढंग की रिपोर्ट नहीं लिखी अपने छह सात साल के करियर में. बाद में संपादक को निकाला गया तो वो भी साथ निकल लिया.
लेकिन जैसा कि होता है. ऐसे लोग जाते नहीं. ये एक आदत है जो दूसरों में तुरंत आ जाती है. इन दोनों के बाद नए संपादक चमचों की टोलियां बनीं. ऐसी टोलियां आती जाती रहीं. हम विद्रोही घोषित हुए. और भी न जाने क्या क्या घोषित होते रहे.
चाहे जो भी घोषित हों. मेरे साथ काम करने वाला कोई ये नहीं कह सकता कि मैंने कभी उसकी कहानी रोकी या कहानी पर फालतू टोका टाकी वाला फीडबैक दिया हो. यही मेरी कमाई है.