मध्यप्रदेश में वेबसाइटों को मिलने वाले सरकारी विज्ञापनों के बारे मे विधानसभा मे सवाल के बाद चौंकाने वाले खुलासे हो रहे हैं। एक व्यक्ति कई-कई वेबसाइट चला कर सबके लिए विज्ञापन वसूलता रहा है. और तो और, मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र चरैवति की दो-दो वेबसाइटों का गोरखधंधा भी सामने आ चुका है जिनमे से एक फर्जी निकली थी. लगता यही है कि यह सरकारी विज्ञापनों की नोचखसोट की आपसी लड़ाई थी जिसे तब मिल बैठ कर सुल्टा लिया गया था। इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पेज पर दूसरी बड़ी खबर छाप कर विस्तार से वेबसाइट फर्जीवाड़े के बारे मे चौंकाने वाली जानकारी दी है। वैसे बता दें की समाचार वेबसाइटों जैसा ही, बल्कि कई मायनों मे उससे भी बदतर है, सरकारी विज्ञापनों के लिए किया जाने वाला बोगस दैनिक अखबारों का गोरखधंधा, जिसकी तरफ भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
अस्सी के दशक मे जब अर्जुनसिंह मुख्यमंत्री बने तो पाँच साल तक उन्होने बिना पात्र-अपात्र-कुपात्र का भेद किए मीडिया पर जम कर कृपा बरसाई।राजधानी की प्राइम लोकेशन एमपी नगर मे बेशकीमती सरकारी जमीन मीडिया के नाम पर लगभग लुटा दी गई और न जाने कैसे-कैसे लोग यहाँ जमीन हथियाने मे सफल रहे। कभी कस्बाई पत्रकार रहे तब के राज्यमंत्री मोतीलाल वोरा की अध्यक्षता मे उन्होने साप्ताहिकों को उपकृत करने के लिए कमेटी बनाई। इसने साप्ताहिकों को हर महीने एक पेज का विज्ञापन देने की अनुशंसा की जिसे मंजूर करने मे कुँवर साब ने देर नहीं की।
फिर क्या था देखते-देखते मध्यप्रदेश मे साप्ताहिक अखबारों की बहार आ गई और हर कोई पत्रकार और संपादक बन बैठा। नामों का टोटा पड़ गया और डम-डम डिगा-डिगा जैसे अजीबोगरीब नामों से साप्ताहिक निकलने लगे। एक पेज विज्ञापन के नियम का जमकर दुरुपयोग किया गया और बहुत से कथित पत्रकार तीन-तीन चार-चार साप्ताहिक निकालने लगे। इसमे कोई मेहनत नहीं थी और एक ही अखबार की खबरों को उलट-पुलट [आल्टर] कर सभी साप्ताहिकों मे फिट कर दिया जाता था। बस, अखबार का मत्था याने नाम बदलना होता था। बहुत से प्रिंटिंग प्रेस इस फर्जीवाड़े मे शामिल हो रेडीमेड अखबारों का धंधा करने लगे। इस फर्जीवाड़े मे अति होने पर बाद मे किसी सरकार ने मासिक विज्ञापन बंद कर दिए। जाहिर है इस फैसले के खिलाफ अदालतबाजी हुई पर हाईकोर्ट ने इस सरकारी भीख को साप्ताहिकों का अधिकार मानने से साफ इन्कार कर दिया।
मासिक विज्ञापन से बंधी-बंधाई आमदनी पर ग्रहण लगते ही धंधेबाजों की दिलचस्पी साप्ताहिक अखबारों से जाती रही और देखते-देखते दैनिक अखबारों की बाढ़ आ गई। सुबह का दैनिक, दोपहर का दैनिक और शाम का दैनिक, और इनमे से ज़्यादातर केवल जनसम्पर्क विभाग के रिकार्ड की प्रतियाँ ही छापते हैं। इतने दैनिक होने से स्वाभाविक है शीर्षक की मारामारी यहाँ भी होनी थी, इसलिए गनअप और चलती आँखें जैसे लोमहर्षक औरडरावने नामों से भी अखबार निकल रहे हैं। दैनिक का खर्चा उठाना आसान नहीं होता इसलिए जो प्रेस साप्ताहिकों को आल्टर करते थे उन्होने दैनिकों को भी ये सेवाएँ देना शुरू कर दिया।
इस समय मध्यप्रदेश मे करीब 500 दैनिक छप रहे हैं, जिनमे से ज़्यादातर सरकारी विज्ञापन पा रहे हैं। इन दैनिकों मे से नब्बे फीसदी को न सर्कुलेशन से मतलब है और न पत्रकारिता से, मतलब है तो सिर्फ और सिर्फ सरकारी विज्ञापनों से। वेबसाइट की ही तरह अखबारों मे काम कर चुके बहुत से पत्रकार भी देखते-देखते दैनिक अखबार के मालिक बन बैठे ..! बहुत से बोगस दैनिकों द्वारा भारत सरकार की विज्ञापन एजेंसी डीएवीपी से मनमानी विज्ञापन दर मंजूर करा ली जाती है जिसे मध्यप्रदेश जनसम्पर्क विभाग ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेता है। उम्मीद है कि मध्यप्रदेश मे मीडिया के नाम पर जो गोरखधंधा किया जाता रहा है वह वेबसाइटों को कठघरे मे खड़ा करने के बाद थम नहीं जाएगा। बोगस दैनिकों के साथ दिल्ली मे चल रहे विज्ञापन दर फर्जीवाड़े को भी सामने लाएगा..?
भोपाल से श्रीप्रकाश दीक्षित की रिपोर्ट।
navkalpana
May 24, 2016 at 3:58 pm
कोई बेवसाइट फर्जी कैसे हो सकता है
कोई अखबार फर्जी कैसे हो सकता है
आॅनलाइन प्रक्रिया के तहत बेवसाइट का डोनेम मिलता है। सर्वर सपेस कंपनियों से मिलता है।
इसी तरह आरएनआई नियमानुसार प्रक्रिया पूरी कर आखबार का टाइटल देता है।
यदि कोई अखबार उसका दुरुपयोग करता है तो वह गलत है। यह कहां नियम है कि कोई बीस या पचास अथवा सौ कॉपी अखबार नहीं छाप सकता है। कितनी संख्या में छापे यह उसका हक है। यदि उसका प्रसार ज्यादा दिखाता है तो गलत है, गलत प्रसार संख्या की जांच होनी चाहिए। सरकार मानक तय करें, विज्ञापन तो नियमानुसार ही मिलते हैं…