Sanjaya Kumar Singh : चौरसिया जी, यह हमला चौथे खंभे पर नहीं, आप पर है… निजी तौर पर मैं मानता हूं कि दीपक चौरसिया के साथ जो हुआ वह गलत हुआ, नहीं होना चाहिए था। मैंने घटना की वीडियो नहीं देखा, चैनल पर उनकी खबर भी नहीं देखी। मुझे लगता है सब कुछ जान बूझकर किया गया है। वो रिपोर्टर क्या जो रिपोर्ट नहीं कर पाए और उसे अंदाजा न हो कि वह रिपोर्ट नहीं कर पाएगा और पहुंच जाए।
ये स्थिति किसने बनाई और सब कुछ करने के बाद अभी भी आप कहेंगे कि यह हमला तथाकथित चौथे खम्भे पर था तो मान लीजिए कि उस खंभे में दीमक लग चुका है। उसे नोचा-खसोटा और चाटा जा जुका है। वह गिरने वाला है। कभी भी गिर सकता है। उसके भरोसे रहेंगे तो मार भले न खाएं, लिन्च भले न हों, खंभे पर से ही ऐसा गिरेंगे कि …. क्या-क्या हो सकता है उसका अनुमान मुझे अभी नहीं है।
दीपक चौरसिया अगर आज मौके से रिपोर्ट नहीं कर पा रहे हैं तो यह साधारण स्थिति नहीं है। इस पर उन्हें और उन जैसे लोगों को विचार करना चाहिए और अपने ही हित में (देश, दुनिया समाज का हित वो क्या करेंगे समझ में आ चुका है) स्थिति सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। मेरे ख्याल से रिपोर्ट करने से रोके जाने को चौथे स्तंभ पर हमला कहना (या मानना) और उसके बाद मार खाने की स्थिति बना लेने से भविष्य में मार खाने से बचने की उम्मीद नहीं बनेगी। उसके लिए रिपोर्टिंग करनी होगी, प्रचार और भड़ैती बंद करना होगा।
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मैं टीवी न्यूज नहीं देखता सिर्फ एक स्क्रीन शॉट की बात कर रहा हूं जो सोशल मीडिया पर है और उन सैकड़ों वीडियो और स्क्रीन शॉट के हवाले से कह रहा हूं जिसके साथ कई चैनल के लोगो (गुजरे छह साल में) कभी नजर नहीं आए।
आज स्थिति यह है कि बीच दिल्ली शहर में एक जाना-माना रिपोर्टर (संपादक हैं, जानता हूं) खबर नहीं कर पा रहा है। मोटा-मोटी उसपर शर्त लगाई गई कि लाइव करो नहीं तो जाओ। और उसके बाद जो हुआ वह स्थिति का वर्णन है। अलग-अलग लोग अलग ढंग से करेंगे। इस संदर्भ में मैं बताना चाहता हूं कि 1987 में जब मैं जनसत्ता में आया था तो डेस्क पर होने के कारण लोगों से जान-पहचान नहीं थी और भले ही निजी काम के लिए दफ्तर के लोगों का सहयोग मिलता था पर सच यही था कि काम अखबार के नाम से होता था।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के ओपीडी में तब भी खूब भीड़ होती थी और हमलोगों में से कई अखबार का नाम लेकर बिना लाइन दिखा लेते थे। लाइन में खड़े आम लोगों ने कभी विरोध नहीं किया।
यह स्थिति तब तक रही जब मैं एक बार मां को दिखाने ले गया। डॉक्टर साब से बात हो चुकी थी। सीधे कमरे में जाना था पर कॉरीडोर में इतनी भीड़ थी कि भारी मुसीबत हुई। उसके बाद हमलोगों ने तय किया कि बहुत जरूरी नहीं हो तो एम्स ओपीडी में नहीं जाएंगे। जरूरत नहीं पड़ी, नहीं गए। पर आज कोई बिना लाइन किसी अखबार या चैनल का नाम बोलकर अंदर जा सकता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि यह ऐसे ही नहीं था। एक केंद्रीय (संचार राज्य) मंत्री के दफ्तर में बिना बारी टेलीफोन लेने के लिए शाम करीब छह बजे फोन किया। कोई जान पहचान नहीं थी। ना पहले मिला था ना उस दिन के बाद मिला। फोन पर यही बताया कि जनसत्ता से बोल रहा हूं आपसे मिलना है, निजी काम है। अगर आप थोड़ी देर दफ्तर में हों तो अभी आ जाऊं। उन्होंने हां कहा।
मैं दफ्तर पहुंचा तो प्रवेश द्वार पर संतरी ने मुझसे पूछा – संजय सिंह? हां कहने पर ऊपर ले गया। मिलने वालों के संग बैठा दिया। मैं सोच ही रहा था कि कितना समय लगेगा कि अंदर से एक अधिकारी नुमा व्यक्ति निकले। पूछा संजय सिंह कौन हैं? मैंने बताया तो उन्होंने पूछा मंत्री जी के साथ कुछ लोग हैं, थोड़ा समय लगेगा। आपको अगर अपना काम सबों के सामने कहने में दिक्कत (शायद झिझक) ना हो तो चलिए वरना इनके निकलने तक इंतजार कीजिए।
मैंने काम बताया। वो भी समझ ही रहे थे। मैं जानना चाह रहा था कि मुझे अपना काम तमाम दूसरे लोगों के बीच कहना चाहिए कि नहीं। वो मुझे हाथ पकड़कर अपने साथ अंदर ले गए। मुझे कहना भी नहीं पड़ा। काम हो गया। क्या आज के समय में कोई बिना मंत्री को जाने सिर्फ किसी अखबार या चैनल से जुड़ा होकर ऐसा काम करा सकता है?
ऊपर के इन दो उदाहरणों से पता चलता है कि आम जनता के साथ-साथ नेताओं में भी अखबार वालों ही नहीं, अखबार में डेस्क पर काम करने वालों की भी पूछ थी। वह मीडिया का सम्मान था। मीडिया की विशेष स्थिति थी। बेशक वह कोई खास काम किए बगैर बनी हो पर अपना काम ठीक से करने से ही बनी थी। सिद्धांत रूप में इस तरह मंत्री से काम करना भले गलत हो पर मैंने कराया है। भले ही इसका कोई श्रेय मुझे न हो। लेकिन क्या अब कोई किसी मंत्री से ऐसे काम करा सकता है? भक्ति आप लोगों ने शुरू की। बिला वजह हम तो बिना जान पहचान काम करा लेते थे।
वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने अनुवादक संजय कुमार सिंह की एफबी वॉल से
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Ramveer hindusthani
January 25, 2020 at 3:35 pm
संजय कुमार जी आप उम्र में मेरे से बड़े हो।तो आप ने तो कोंग्रेस और bjp दोनों का काल खंड देखा है।याद करो इंदिरा का सेंसर शिप, या भूल गए।
संजय कुमार सिंह
January 25, 2020 at 8:44 pm
खूब अच्छे से याद है। कोई मुकाबला ही नहीं है। वह इमरजेंसी लगाकर नियमानुसार किया गया था अभी जो हो रहा है वह सत्ता और पद का दुरुपयोग है। और पहले के मुकाबले बहुत घटिया। क्योंकि यहां कोई नियम कानून ही नहीं है। तब खबर सेंसर करानी होती थी। पास नहीं होती थी तो अखबार खाली जगह छोड़ देते थे। अब किसकी औकात है जो खिलाफ खबर लिख दे या छाप भी दे – उंगली पर गिनती भर लोग और संस्थान नहीं हैं। किस अखबार ने जगह खाली छोड़ी? किस अखबार ने उस जगह का उपयोग भाड़ बनने के लिए नहीं किया?
Prakash
January 25, 2020 at 7:29 pm
सत्ता के खिलाफ बोलना लिखना ही पत्रकारिता है. दीपक तो सत्ता के पक्ष में इंटरव्यू, स्टोरी आदि करता है.
lalit mohan
January 25, 2020 at 7:56 pm
ये पत्रकारो पर नही पत्तलकरो (दलालों) पर हमला है।