Prabhat Shunglu : दीपक चौरसिया आरएसएस का पक्षधर है, वो गोदी मीडिया है, वो मोदी सरकार का भोंपू है, वो हिंदुत्ववादी है ये सभी इल्ज़ाम अपनी जगह जायज़ हो सकते हैं। मगर शाहीन बाग़ वो बहैसियत पत्रकार गया था। वहां पर उसके साथ हाथापाई या बदसलूकी आंदोलन के उद्देश्य को हल्का करती है। आज़ादी के नारे को कमजोर करती है।
असहमति का ये तरीका कतई नहीं हो सकता। पत्रकार ही क्यों किसी भी अलग राय रखने वाले के साथ इस तरह का व्यवहार कतई अशोभनीय है। निंदनीय है।
शाहीन बाग़ के उसी मंच से अगर दीपक को तर्क संगत बहस से हराया जाता तो उसका भी वायरल होना तय था। मगर माइक छीन कर और कैमरा तोड़ कर आप ने अपनी आवाज़ भी खामखां की बहस में दबा दी। जबकि ये मौका है अपनी आवाज़ को हर तरीके से बुलंद करने का।
कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रभात शुंगलू की एफबी वॉल से.
देखें कुछ अन्य पत्रकारों की राय-
Rajesh Priyadarshi : दीपक चौरसिया के साथ शाहीन बाग में जो हुआ वह किसी एंगल से सही नहीं ठहराया जा सकता. जो हुआ वह सत्याग्रह की भावना के विपरीत है. आप असहमत हो सकते हैं, बात करने से मना करना भी आपका अधिकार हो सकता है लेकिन जो वीडियो में दिख रहा है उसका कोई justification नहीं.
वैसे देश में बहुत कुछ हो रहा है जिसका कोई justification नहीं है, लेकिन दोनों तरफ़ से एक जैसा व्यवहार हो तो किसका moral high ground और कैसे बचेगा?!
PS-दीपक मेरे सहपाठी रहे हैं लेकिन इस पोस्ट का हमारे 28 साल पुराने रिश्ते से कोई लेना-देना नहीं है, अगर उनकी जगह रोहित सरदाना, गौरव सावंत या सुधीर चौधरी भी होते तो मैं यही कहता कि ये ठीक नहीं था.
Sushil Mohapatra : शाहीन बाग में दीपक चौरसिया और उनके साथी कैमरामैन के साथ जो हुआ वो गलत है। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। किसी भी पत्रकार पर हमला नहीं होना चाहिए लेकिन पत्रकारों को भी संयम बरतने की जरूरत है।
आजकल पत्रकार भी स्टूडियो के अंदर दादागिरी करते हैं। पत्रकार कम, गुंडा ज्यादा लगते हैं। अपने पावर का गलत इस्तेमाल करते हैं। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि दो गेस्ट शो के दौरान लड़ाई करते हैं,मारपीट तक पहुंच जाते हैं लेकिन एंकर बैठकर देखता रहता है, कई बार एंकर खुद लड़ाई में शामिल हो जाता है।
ऐसे एंकर हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। कायदे से तो एंकर को तुरंत दोनों को रोकना चाहिए या फिर तुरंत ब्रेक ले लेना चाहिए लेकिम एंकर को पता होता है टीआरपी कहाँ से आता है। शो के बाद भी ऐसे मारपीट वीडियो को यूट्यूब में लगाया जाता है, टुकड़े करके सोशल मीडिया में शेयर किया जाता है, हैडिंग भी ऐसे होते हैं जिस को देखते ही दर्शक वीडियो पर क्लिक करता है ताकि व्यू ज्यादा मिले और उस व्यू से पैसा मिलता है।
पैसा और टीआरपी के लिए आजकल मीडिया चैनल कुछ भी करने के लिए तैयार है। लेकिन मेरा मानना है ऐसे शो और ऐसे टीवी चैनल को लोगों को देखना बंद कर देना चाहिए। लोग देख रहा है तब तो टीवी वाले दिखा रहा है। टीवी में ग्राउंड रिपोर्ट बंद हो गया है। दिनभर डिबेट चलता रहता है। प्रवक्ता फ़ालतू के बात करते रहते हैं। झूठ बोलते रहते हैं फिर भी लोग उसे देखते हैं।
आजकल दिल्ली चुनाव हैं नेता सब अपने भाषण में झूठ बोल रहे हैं लेकिन टीवी वाले उसी झूठ के भाषण को बिना ब्रेक लिए अंतिम तक दिखाते रहते हैं। दिल्ली के चुनाव रैली में झूठ पे झूठ बोला जा रहा है। अगर दर्शक कायदे से सब भाषण पर ध्यान देगा तो उसे पता चलेगा कि नेता सब कितना झूठ बोल रहे हैं। नेता सब लोगों को बेवकूफ समझता है उसे पता है वे जीतना भी झूठ बोलेगा लोग उस झूठ को गले लगा लेंगे इसीलिए वो झूठ बोलता रहता है।
आजकल डिजिटल मीडिया की हाल भी बहुत खराब है। न्यूज़ गायब होता जा रहा है। कौन कहाँ पर हनीमून बना रहा है, कौन बिकनी पहनकर घूम रहा है, कौन डांस कर रहा है इस तरह की खबर छापी जा रही है ऐसे खबर सब ट्रेंड भी कर रहा है।दर्शक पढ़ रहा है तब तो ट्रेंड कर रहा है। दर्शकों को ऐसे खबर पढ़ना बंद कर देना चाहिए।
दर्शक पढ़ना बंद करेगा तो खबर छपना भी बंद हो जाएगा। लेकिन मेरा मानना है दर्शक पढ़ रहा है इसका मतलब नहीं की मीडिया को ऐसे छापना चाहिए। इस देश मे एडल्ट फ़िल्म को लेकर भी युवाओं के बीच क्रेज़ रहता है इसका मतलब नहीं की मीडिया वाले ऐसे फ़िल्म भी अपलोड करने लगेंगे। ऐसे भी आजकल भोजपुरी गाना और भोजपुरी फ़िल्म अपलोड होने लगे हैं।
मीडिया को अपना रेस्पोंसबिलिटी समझना चाहिए।समाज के लिए क्या सही है और क्या गलत इस पर ध्यान देना चाहिए। मीडिया का काम है समाज को आईना दिखाना, युवाओं को सही रास्ता दिखाना ना कि युवाओं को गलत रास्ते मे ले जाना। फिर भी आप से कहना चाहता हूँ अगर आप किसी पत्रकार से नाराज़ है तो आप उसे देखना बंद कर दीजिए।नाराजगी का जवाब हिंसा नहीं है। मारपीट नहीं है।
Anurag Dwary : जब कन्हैया को वकीलों ने पीटा तो कुछ लोग हंसे… जब जेएनयू में गुंडागर्दी हुई तो कुछ लोग हंसे… जब रिपब्लिक के पत्रकारों को पीटा गया कुछ लोग हंसे.. जब दीपक चौरसिया के साथ मारपीट हुई तो कुछ लोग हंसे… यही हंसने वाली भीड़ “लिंच ” करती है… इसमें किंतु-परंतु लगाने वाले एक थान के कपड़े पहनते हैं… क्या सिर्फ विचार अलग हैं तो भीड़ की ताकत दिखाओगे??? इसी ताकत से हिन्दुस्तान को महफूज रखना है… असल में वैसे ये ताकत नहीं कमजोर लोग हैं जो झुंड में हुंआ हुंआ करते हैं… वो कभी लाल कपड़े पहनते हैं, कभी केसरिया, कभी हरा!
Jitendra Narayan : हम भी किसी भी तरह के हिंसा का विरोध करते हैं और दीपक चौरसिया, अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, रोहित सरदाना जैसों को पत्रकार कहने का भी…!!!
Ravish Shukla : दीपक चौरसिया जी के साथ जो हुआ बहुत अफसोसनाक है। सफाई देने के बजाए इसकी कड़ी आलोचना होनी चाहिए। जो भी लुंपेन ऐलीमेंट इसमें शामिल हैं उनकी पहचान होना जरुरी है। कुछ दिन पहले मेरे एक और मित्र रिपब्लिक टीवी के जावेद हुसैन के साथ भी धक्का मुक्की हुई थी। उसी भीड़ में कुछ लोग उनके साथ धक्का करने वाले थे तो बहुत सारे बचाने वाले भी। लेकिन मीडिया की गिरती साख का सबसे ज्यादा साइड इफेक्ट फील्ड रिपोर्टर झेल रहे हैं। वो चाहे किसी भी चैनल या अखबार के हों।
स्टूडियों में दंगल कराना आसान है लेकिन दो चार लोगों के साथ जाने पर भी एंकर साहेबान का भीड़ के साथ धक्कामुक्की और गालीगलौज से बच जाना बहुत मुश्किल है। अभी कुछ दिन पहले जेएनयू के बाहर अंधेरे में एक हिंसक भीड़ NDTV वालों को खोज रही थी। हम खली बनने के बजाए अपने को बिना एक्सपोज किए नीम अंधेरे में रहकर काम करते रहे।
मीडिया के बारे में बन रही नकारात्मक धारणा के साथ हमने काम करना सीख लिया है। हम अब पत्रकार होने की वजह से न तो लोगों से विशेष सम्मान चाहते हैं और न ही गाली या दो चार थप्पड़ खाने पर मानसिकतौर पर आहत होते हैं। कई बार हम इसका जिक्र भी नहीं करते हैं…ये सब हमारे काम के साथ नत्थी हो गई नई जिम्मेदारियां हैं। लेकिन किसी के भी साथ हो रही हिंसा के खिलाफ हम बिना बहानेबाजी के बोलेंगे भी और खड़े भी होंगे। जय हिंद।
सौजन्य – फेसबुक
इसे भी पढ़ें-